"सम्पूर्ण परिवर्तन की देवी"
हमारे इस विश्व में अभी तक मानव देह में भी जितनी भी उच्च श्रेणी की चेतनाएं आयीं हैं वो सभी किसी न खास कार्य के लिए ही आयीं। 'श्री राम ' से इस कलयुग तक कितने ही अवतार, पैगम्बर,ऋषि-मुनि, संत, सद-गुरु, नबी, औलिया इत्यादि इस धरा पर आये और सदा मनुष्यों का कल्याण ही करते रहे। वे सभी केवल एक ही बात कहते रहे कि 'आप सभी एक ही परमात्मा की संतान हैं और सभी कों प्रेम के साथ रहना चाहिए।' और वो सभी परमात्मा के साथ जुड़ने की ही बात करते रहे व उस काल के मुताबिक 'इश्वर' से जुड़ने का तरीका सिखाते रहे।
आज जो पूरे विश्व के धर्मो व मार्गों में विभिन्नता दिखाई देती है उसका का कारण समय, स्थान व परिस्थिति है, जिस काल में जितनी मनुष्य की चेतना विकसित थी उसी के अनुसार महान चेतनाओं ने मनुष्यों के उत्थान के लिए समयानुकूल मार्ग प्रशस्त किया। समस्त धर्म एक ही कार्य के लिए बनाये गए है। जैसे कि एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने के लिए हम सभी वाहन का इस्तेमाल करते है। और अक्सर नई तकनीक वाला वाहन ही लेना चाहते हैं क्योंकि वह उस काल के मुताबिक होता है। "आज हम स्टीम से चलने वाली कार क्यों नहीं चलाते " क्योंकि उससे भी ज्यादा उच्च तकनीक व सुविधा के वाहन आज उपलब्ध हैं।
इसी प्रकार से 'परमपिता' काल व परिस्थितियों कों ध्यान में रखते हुए ही अपने से जुड़ने का मार्ग मनुष्यों कों देते आयें हैं जिसके कारण आज हम देखतें हैं अनेकों प्रकार के धर्म व मार्ग हमारे सामने हैं। सभी मार्ग सच्चे हैं परन्तु अंतर है तो केवल आज के मुताबिक तकनीक का।अब जैसे हम 'आष्टांग योग' कों ही लें जिसको 'पतांजलि ऋषि' ने विकसित किया था, कुछ वर्षों पहले योगी 'श्री धीरेन्द्र ब्रह्मचारी' जी ने इस योग कों कार्यान्वित किया, और अब 'बाबा रामदेव स्वामी जी' के द्वारा संचालित किया जा रहा है, और उन्होंने आज के अनुसार उसमे कुछ चीजे और जोड़ दीं हैं जैसे स्ट्रेचिंग, एरोबिक इत्यादि।
क्योंकि उन्होंने देखा कि आज का मनुष्य का शरीर काफी मोटा हो गया है यदि पतला होगा तभी न 'आष्टांग योग' कर पायेगा। ढीक इसी प्रकार से 'परमात्मा' कों पाने के मार्गों कों भी ज्ञानियों के द्वारा बदला जाता रहा है। जैसे-जैसे मानव की जाग्रति पतित होती गयी वैसे-वैसे 'परमपिता' अपने कों आसानी से उपलब्ध कराने के लिए पहले से भी आसान- आसान विधियाँ मनुष्य कों देते रहे हैं। क्योंकि 'वो' जानते हैं कि आज का मनुष्य कठिन रास्तों को नहीं अपना सकता इसीलिए 'वे' सदा परिवर्तन करते आ रहे है।
इसी की कड़ी में इस घोर कलयुग में 'परमेशवर' ने अपने से जोड़ने के एक बेहद आसान मार्ग "सहज योग" कों एक उच्चतम स्तर की शख्सियत "परम पूज्य श्री माता जी श्री निर्मला देवी" के माध्यम से घटित कराया, जिसके बारे में कई हजार वर्षों पूर्व लग-भग सभी 'धार्मिक ग्रंथो के द्वारा बताया जा चुका है। जिसका लाभ आज विश्व के १४० राष्ट्रों के नागरिक उठा रहें हैं जो निरंतर एक दीपक से दूसरा दीपक जलाने के सामान बढ़ता ही जा रहा है। और इसको पाने वाले मानव अपने भीतर 'पूर्ण परिवर्तन' की अभिव्यक्ति कों अनुभव कर अपने-अपने मानवीय जीवनों कों सार्थक होता देख पा रहे है और मुक्ति की ओर अग्रसर होते जा रहे है।
ऐसा इस युग में प्रथम बार हो रहा है कि सामूहिक स्तर पर इतनी बड़ी संख्या में लोग मुक्ति की प्रक्रिया का आनंद उठा रहे हैं, व अपने भीतर अथाह शांति, आनंद व सभी के लिए प्रेम का अनुभव भी कर रहे है। जरा सोचिये, इस भागम-भाग से भरे जीवन में, और गला-काट प्रतिस्प्रधा के बीच कैसी शांति ?
हालाँकि आज "श्री माता जी" साकार रूप में हम सभी के बीच नहीं हैं पर 'उनकी' उच्च स्तर की सूक्ष्म अभिव्यक्ति 'तीव्र ऊर्जा' के वेगों के रूप में हम सब के साथ निरंतर है, 'वे' सदा हम सबके बीच उपस्थित है। ऐसे हजारों अनुभव 'सहज साधकों ' के पास संचित हैं और निरंतर बढ़ते ही जा रहे हैं।
दो वर्ष पूर्व २३.०२.११ रात्रि ९ बजे को 'श्री माँ" ने अपना शरीर रूपी सफ़र 'कबेला', इटली में पूरा किया व आज ही के दिन यानी २८.०२.११ को दिल्ली के निकट 'छाबला' ग्राम में स्थित सहज संस्था द्वारा लिए गए स्थान "श्री निर्मल धाम" में समाधिस्थ हो गयीं। यह स्थान उच्च आवर्ती की शक्ति धाराओं को प्रसारित करने वाले 'स्वम भू' के रूप में स्थापित हो गया है, जो भी यहाँ पर श्रद्धा से नतमस्तक होगा अन्तत: उसका कल्याण ही होगा। यह बात निश्चित है।
मनुष्य को अनेको समस्याओं से निजात दिलाने वाली "सम्पूर्ण परिवर्तन की देवी" का शरीर रूप में जन्म भू मध्य रेखा पर स्थित, महाराष्ट्र व मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित "छिंदवाडा" में दिन के ढीक १२ बजे, जब दिन और रात पूरे १२-१२ घंटे के (इक्विनोक्स आवर्स) होते हैं, २१ मार्च १९२३ को एक इसाई परिवार में हुआ था।
जन्म के समय 'आप'नहीं रोई, दाई माँ ने काफी कोशिश की किसी तरह यह बच्चा रोए पर रोने के स्थान पर 'वह' मुस्कुराईं।' आपके' शरीर पर कुछ भी न चिपका होने के कारण 'आपका' नाम "निर्मला" रखा , बड़े बुजुर्गों ने कहा कि ये तो 'निश्कलंका' है। 'आपके' पिता श्री प्रसाद राव व माता कोर्नेलिया प्राचीन राजसिक घराने 'शालिवाहन' से थे, और दोनों ने ही भारत के स्वंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी व श्री महात्मा गाँधी के काफी नजदीक रहे थे।
उस ज़माने में 'श्री माँ' की माता जी भारत की पहली महिला थीं जिन्होंने मैथमेटिक्स में सम्मानित डिग्री प्राप्त की थी, और 'माँ निर्मला' के पिता बहुत बड़े विद्वान् थे, उनका १४ भाषाओँ पर पूरा अधिकार था, व उन्होंने मराठी भाषा में 'श्री कुरआन शरीफ' का अनुवाद भी किया था।
'माँ निर्मला' भी बचपन में 'गाँधी' जी के आश्रम में जाया करतीं थी, और गाँधी जी प्रेम से 'उन्हें' नेपाली कहकर बुलाया करते थे।उनकी उच्च दर्जे की समझ के कारण अक्सर उनसे सलाह मशवरा किया करते थे। बचपन में 'श्री माता जी' ने भी 'भारत छोड़ो आन्दोलन में सक्रीय रूप से भाग लिया, अंग्रेजो ने उन्हें भी टार्चर किया। जब 'माँ निर्मला' १२ वर्ष की थीं तो उनके माता-पिता जेल चले गए और उन्होंने इतनी छोटी उम्र में ही अपने छोटे भाई-बहनों कों बड़ी जिम्मेदारी के साथ सम्हाला। अंदरूनी जाग्रति इतनी थी कि 'वे' अक्सर नंगे पाँव ही धरती पर चला करतीं थीं, सदा 'माँ' धरती का आदर करतीं थीं।
भारत कों स्वाधीनता मिलने के कुछ ही अरसा पहले 'आपका' विवाह 7 अप्रैल 1947 कों 'श्री सी पी श्रीवास्तव जी' से संपन्न हुआ जो उस समय आई एफ़ एस थे जिनको इंग्लॅण्ड की महारानी द्वारा उनके उत्कृष्ट कार्यों के कारण 'सर' की उपाधि से विभूषित किया गया। बाद में 'श्री माता जी' के कहने से देश की सेवा करने के लिए आई ऐ एस का कार्य-भार स्वीकार किया।
आप १९६४ से १९६६ तक तत्कालीन प्रधान मंत्री 'श्री लाल बहादुर शास्त्री जी' के आफिस में सह-सचिव के पट पर भी आसीन रहे। उसके बाद लागातार १६ वर्ष तक अंतर राष्ट्रीय जहाज रानी संस्था में 'सेक्रेटरी जनरल' के पद पर सुशोभित रहे। ऐसा माना जाता रहा था कि 'सर सी पी श्रीवास्तव जी' की उन्नति में 'माँ निर्मला' की उच्च स्तरीय सवेदनाओं का बहुत बड़ा हाथ रहा है। जहाँ भी 'सर सी पी ' बुलाये जाते थे वहां पर सभी देशों के राष्ट्रपतियों , प्रधानमंत्रियों, मेयरों व शेरिफों के द्वारा 'माँ निर्मला' कों सदा खासतौर से बुलवाया जाता था। सभी लोग 'उनके' वास्त्सल्य व स्नेहमई व्यवहार से अवश्य प्रभावित होते थे।
२८.०२.११ कों 'श्री निर्मल धाम' में 'सर सी पी जी' ने बहुत ही मार्मिक भाव से 'श्री माता जी' के व्यक्तित्व कों व्यक्त किया, उनके शब्दों में, "मैं आप सब से एक बात शेयर करना चाहता हूँ जो मैंने आज तक किसी के सामने भी नहीं कही है, मैं जब ४ वर्ष का था तो मेरे माता-पिता का देहांत हो गया और मैं अनाथ हो गया, पर जब मेरी शादी 'इनसे' हुयी तो मुझे लगा कि मैं अब अनाथ नहीं हूँ, बड़े ही प्रेम से इन्होने मुझे सम्हाला। और जब हमारी दोनों लड़कियां बड़ी हो गयीं व उनका विवाह हो गया तब 'इन्होने' मुझ से कहा कि 'मैं' अब विश्व कों बदलना चाहती हूँ, इस विश्व में चारों तरफ लड़ाई-झगडा हो रहा है, लोग अज्ञानता के भवर में फंसे हुए हैं, सभी लोग एक ही परमात्मा के बनाये हुए हैं, हिन्दू, मुस्लिम,सिख, इसाई तो केवल नाम है। सभी उसी परमात्मा की संतान है।"
विश्व जाग्रति का यह अनुपम कार्य 'श्री माँ' ने ५ मई सन १९७० में मुंबई से १५० कि.मी दूर गुजरात के शांत समुन्द्र तट 'नार्गोल' से प्रारंभ किया था, अपनी कई घंटे की अथक साधना के द्वारा 'उन्होंने' मानव के उत्थान के मार्ग'सहज योग' को कार्यान्वित करने का रास्ता खोज लिया था। जो आज साधारण मनुष्यों के द्वारा सारे विश्व में लगातार फैलता जा रहा है। जो बिलकुल एक दीपक से दूसरा दीपक जलाने के सामान है। और जब ये दीपक अच्छे प्रकार से जल जाता है तो उसका प्रकाश सारा संसार देखता है व् उससे लाभ उठाता है।
सबसे बड़ा चमत्कार मानव के भीतर इस 'दिव्य माँ ' के सानिग्ध्य में होता है, वो है स्वम् को पूर्ण रूप से परिवर्तित करने की तीव्र इच्छा का होना। जो की इस काल का मानव जो 'पशुवत मनुष्य योनि' के पाश में पूरी तरह से फंसा हुआ था, के लिए पूरी तरह से असंभव थी। 'श्री माँ ' ने हम सभी के भीतर जागृत हो कर हमें हमारे वास्तविक स्वरुप से परिचित कराया और साथ ही अपनी शक्तियां भी दीं ताकि हम अपने को अपनी निम्न अवस्था से उच्च अवस्था में स्थित कर सकें। और बाकी सभी मानवों को भी जो अपने को उठाने में रूचि रखते हैं, उनकी मदद कर सकतें हैं। क्योंकि 'परिवर्तन में ही परिवर्तन निहित है।
"या देवी सर्वभूतेषु संतुष्टि रूपेण संस्थिता,
नमस्तस्ये, नमस्तस्ये, नमस्तस्ये नमो नम:"
इस साधारण बालक('साधक') का आपको कोटि कोटि प्रणाम 'माँ'
हमारे इस विश्व में अभी तक मानव देह में भी जितनी भी उच्च श्रेणी की चेतनाएं आयीं हैं वो सभी किसी न खास कार्य के लिए ही आयीं। 'श्री राम ' से इस कलयुग तक कितने ही अवतार, पैगम्बर,ऋषि-मुनि, संत, सद-गुरु, नबी, औलिया इत्यादि इस धरा पर आये और सदा मनुष्यों का कल्याण ही करते रहे। वे सभी केवल एक ही बात कहते रहे कि 'आप सभी एक ही परमात्मा की संतान हैं और सभी कों प्रेम के साथ रहना चाहिए।' और वो सभी परमात्मा के साथ जुड़ने की ही बात करते रहे व उस काल के मुताबिक 'इश्वर' से जुड़ने का तरीका सिखाते रहे।
आज जो पूरे विश्व के धर्मो व मार्गों में विभिन्नता दिखाई देती है उसका का कारण समय, स्थान व परिस्थिति है, जिस काल में जितनी मनुष्य की चेतना विकसित थी उसी के अनुसार महान चेतनाओं ने मनुष्यों के उत्थान के लिए समयानुकूल मार्ग प्रशस्त किया। समस्त धर्म एक ही कार्य के लिए बनाये गए है। जैसे कि एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने के लिए हम सभी वाहन का इस्तेमाल करते है। और अक्सर नई तकनीक वाला वाहन ही लेना चाहते हैं क्योंकि वह उस काल के मुताबिक होता है। "आज हम स्टीम से चलने वाली कार क्यों नहीं चलाते " क्योंकि उससे भी ज्यादा उच्च तकनीक व सुविधा के वाहन आज उपलब्ध हैं।
इसी प्रकार से 'परमपिता' काल व परिस्थितियों कों ध्यान में रखते हुए ही अपने से जुड़ने का मार्ग मनुष्यों कों देते आयें हैं जिसके कारण आज हम देखतें हैं अनेकों प्रकार के धर्म व मार्ग हमारे सामने हैं। सभी मार्ग सच्चे हैं परन्तु अंतर है तो केवल आज के मुताबिक तकनीक का।अब जैसे हम 'आष्टांग योग' कों ही लें जिसको 'पतांजलि ऋषि' ने विकसित किया था, कुछ वर्षों पहले योगी 'श्री धीरेन्द्र ब्रह्मचारी' जी ने इस योग कों कार्यान्वित किया, और अब 'बाबा रामदेव स्वामी जी' के द्वारा संचालित किया जा रहा है, और उन्होंने आज के अनुसार उसमे कुछ चीजे और जोड़ दीं हैं जैसे स्ट्रेचिंग, एरोबिक इत्यादि।
क्योंकि उन्होंने देखा कि आज का मनुष्य का शरीर काफी मोटा हो गया है यदि पतला होगा तभी न 'आष्टांग योग' कर पायेगा। ढीक इसी प्रकार से 'परमात्मा' कों पाने के मार्गों कों भी ज्ञानियों के द्वारा बदला जाता रहा है। जैसे-जैसे मानव की जाग्रति पतित होती गयी वैसे-वैसे 'परमपिता' अपने कों आसानी से उपलब्ध कराने के लिए पहले से भी आसान- आसान विधियाँ मनुष्य कों देते रहे हैं। क्योंकि 'वो' जानते हैं कि आज का मनुष्य कठिन रास्तों को नहीं अपना सकता इसीलिए 'वे' सदा परिवर्तन करते आ रहे है।
इसी की कड़ी में इस घोर कलयुग में 'परमेशवर' ने अपने से जोड़ने के एक बेहद आसान मार्ग "सहज योग" कों एक उच्चतम स्तर की शख्सियत "परम पूज्य श्री माता जी श्री निर्मला देवी" के माध्यम से घटित कराया, जिसके बारे में कई हजार वर्षों पूर्व लग-भग सभी 'धार्मिक ग्रंथो के द्वारा बताया जा चुका है। जिसका लाभ आज विश्व के १४० राष्ट्रों के नागरिक उठा रहें हैं जो निरंतर एक दीपक से दूसरा दीपक जलाने के सामान बढ़ता ही जा रहा है। और इसको पाने वाले मानव अपने भीतर 'पूर्ण परिवर्तन' की अभिव्यक्ति कों अनुभव कर अपने-अपने मानवीय जीवनों कों सार्थक होता देख पा रहे है और मुक्ति की ओर अग्रसर होते जा रहे है।
ऐसा इस युग में प्रथम बार हो रहा है कि सामूहिक स्तर पर इतनी बड़ी संख्या में लोग मुक्ति की प्रक्रिया का आनंद उठा रहे हैं, व अपने भीतर अथाह शांति, आनंद व सभी के लिए प्रेम का अनुभव भी कर रहे है। जरा सोचिये, इस भागम-भाग से भरे जीवन में, और गला-काट प्रतिस्प्रधा के बीच कैसी शांति ?
हालाँकि आज "श्री माता जी" साकार रूप में हम सभी के बीच नहीं हैं पर 'उनकी' उच्च स्तर की सूक्ष्म अभिव्यक्ति 'तीव्र ऊर्जा' के वेगों के रूप में हम सब के साथ निरंतर है, 'वे' सदा हम सबके बीच उपस्थित है। ऐसे हजारों अनुभव 'सहज साधकों ' के पास संचित हैं और निरंतर बढ़ते ही जा रहे हैं।
दो वर्ष पूर्व २३.०२.११ रात्रि ९ बजे को 'श्री माँ" ने अपना शरीर रूपी सफ़र 'कबेला', इटली में पूरा किया व आज ही के दिन यानी २८.०२.११ को दिल्ली के निकट 'छाबला' ग्राम में स्थित सहज संस्था द्वारा लिए गए स्थान "श्री निर्मल धाम" में समाधिस्थ हो गयीं। यह स्थान उच्च आवर्ती की शक्ति धाराओं को प्रसारित करने वाले 'स्वम भू' के रूप में स्थापित हो गया है, जो भी यहाँ पर श्रद्धा से नतमस्तक होगा अन्तत: उसका कल्याण ही होगा। यह बात निश्चित है।
मनुष्य को अनेको समस्याओं से निजात दिलाने वाली "सम्पूर्ण परिवर्तन की देवी" का शरीर रूप में जन्म भू मध्य रेखा पर स्थित, महाराष्ट्र व मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित "छिंदवाडा" में दिन के ढीक १२ बजे, जब दिन और रात पूरे १२-१२ घंटे के (इक्विनोक्स आवर्स) होते हैं, २१ मार्च १९२३ को एक इसाई परिवार में हुआ था।
जन्म के समय 'आप'नहीं रोई, दाई माँ ने काफी कोशिश की किसी तरह यह बच्चा रोए पर रोने के स्थान पर 'वह' मुस्कुराईं।' आपके' शरीर पर कुछ भी न चिपका होने के कारण 'आपका' नाम "निर्मला" रखा , बड़े बुजुर्गों ने कहा कि ये तो 'निश्कलंका' है। 'आपके' पिता श्री प्रसाद राव व माता कोर्नेलिया प्राचीन राजसिक घराने 'शालिवाहन' से थे, और दोनों ने ही भारत के स्वंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी व श्री महात्मा गाँधी के काफी नजदीक रहे थे।
उस ज़माने में 'श्री माँ' की माता जी भारत की पहली महिला थीं जिन्होंने मैथमेटिक्स में सम्मानित डिग्री प्राप्त की थी, और 'माँ निर्मला' के पिता बहुत बड़े विद्वान् थे, उनका १४ भाषाओँ पर पूरा अधिकार था, व उन्होंने मराठी भाषा में 'श्री कुरआन शरीफ' का अनुवाद भी किया था।
'माँ निर्मला' भी बचपन में 'गाँधी' जी के आश्रम में जाया करतीं थी, और गाँधी जी प्रेम से 'उन्हें' नेपाली कहकर बुलाया करते थे।उनकी उच्च दर्जे की समझ के कारण अक्सर उनसे सलाह मशवरा किया करते थे। बचपन में 'श्री माता जी' ने भी 'भारत छोड़ो आन्दोलन में सक्रीय रूप से भाग लिया, अंग्रेजो ने उन्हें भी टार्चर किया। जब 'माँ निर्मला' १२ वर्ष की थीं तो उनके माता-पिता जेल चले गए और उन्होंने इतनी छोटी उम्र में ही अपने छोटे भाई-बहनों कों बड़ी जिम्मेदारी के साथ सम्हाला। अंदरूनी जाग्रति इतनी थी कि 'वे' अक्सर नंगे पाँव ही धरती पर चला करतीं थीं, सदा 'माँ' धरती का आदर करतीं थीं।
भारत कों स्वाधीनता मिलने के कुछ ही अरसा पहले 'आपका' विवाह 7 अप्रैल 1947 कों 'श्री सी पी श्रीवास्तव जी' से संपन्न हुआ जो उस समय आई एफ़ एस थे जिनको इंग्लॅण्ड की महारानी द्वारा उनके उत्कृष्ट कार्यों के कारण 'सर' की उपाधि से विभूषित किया गया। बाद में 'श्री माता जी' के कहने से देश की सेवा करने के लिए आई ऐ एस का कार्य-भार स्वीकार किया।
आप १९६४ से १९६६ तक तत्कालीन प्रधान मंत्री 'श्री लाल बहादुर शास्त्री जी' के आफिस में सह-सचिव के पट पर भी आसीन रहे। उसके बाद लागातार १६ वर्ष तक अंतर राष्ट्रीय जहाज रानी संस्था में 'सेक्रेटरी जनरल' के पद पर सुशोभित रहे। ऐसा माना जाता रहा था कि 'सर सी पी श्रीवास्तव जी' की उन्नति में 'माँ निर्मला' की उच्च स्तरीय सवेदनाओं का बहुत बड़ा हाथ रहा है। जहाँ भी 'सर सी पी ' बुलाये जाते थे वहां पर सभी देशों के राष्ट्रपतियों , प्रधानमंत्रियों, मेयरों व शेरिफों के द्वारा 'माँ निर्मला' कों सदा खासतौर से बुलवाया जाता था। सभी लोग 'उनके' वास्त्सल्य व स्नेहमई व्यवहार से अवश्य प्रभावित होते थे।
२८.०२.११ कों 'श्री निर्मल धाम' में 'सर सी पी जी' ने बहुत ही मार्मिक भाव से 'श्री माता जी' के व्यक्तित्व कों व्यक्त किया, उनके शब्दों में, "मैं आप सब से एक बात शेयर करना चाहता हूँ जो मैंने आज तक किसी के सामने भी नहीं कही है, मैं जब ४ वर्ष का था तो मेरे माता-पिता का देहांत हो गया और मैं अनाथ हो गया, पर जब मेरी शादी 'इनसे' हुयी तो मुझे लगा कि मैं अब अनाथ नहीं हूँ, बड़े ही प्रेम से इन्होने मुझे सम्हाला। और जब हमारी दोनों लड़कियां बड़ी हो गयीं व उनका विवाह हो गया तब 'इन्होने' मुझ से कहा कि 'मैं' अब विश्व कों बदलना चाहती हूँ, इस विश्व में चारों तरफ लड़ाई-झगडा हो रहा है, लोग अज्ञानता के भवर में फंसे हुए हैं, सभी लोग एक ही परमात्मा के बनाये हुए हैं, हिन्दू, मुस्लिम,सिख, इसाई तो केवल नाम है। सभी उसी परमात्मा की संतान है।"
विश्व जाग्रति का यह अनुपम कार्य 'श्री माँ' ने ५ मई सन १९७० में मुंबई से १५० कि.मी दूर गुजरात के शांत समुन्द्र तट 'नार्गोल' से प्रारंभ किया था, अपनी कई घंटे की अथक साधना के द्वारा 'उन्होंने' मानव के उत्थान के मार्ग'सहज योग' को कार्यान्वित करने का रास्ता खोज लिया था। जो आज साधारण मनुष्यों के द्वारा सारे विश्व में लगातार फैलता जा रहा है। जो बिलकुल एक दीपक से दूसरा दीपक जलाने के सामान है। और जब ये दीपक अच्छे प्रकार से जल जाता है तो उसका प्रकाश सारा संसार देखता है व् उससे लाभ उठाता है।
सबसे बड़ा चमत्कार मानव के भीतर इस 'दिव्य माँ ' के सानिग्ध्य में होता है, वो है स्वम् को पूर्ण रूप से परिवर्तित करने की तीव्र इच्छा का होना। जो की इस काल का मानव जो 'पशुवत मनुष्य योनि' के पाश में पूरी तरह से फंसा हुआ था, के लिए पूरी तरह से असंभव थी। 'श्री माँ ' ने हम सभी के भीतर जागृत हो कर हमें हमारे वास्तविक स्वरुप से परिचित कराया और साथ ही अपनी शक्तियां भी दीं ताकि हम अपने को अपनी निम्न अवस्था से उच्च अवस्था में स्थित कर सकें। और बाकी सभी मानवों को भी जो अपने को उठाने में रूचि रखते हैं, उनकी मदद कर सकतें हैं। क्योंकि 'परिवर्तन में ही परिवर्तन निहित है।
"या देवी सर्वभूतेषु संतुष्टि रूपेण संस्थिता,
नमस्तस्ये, नमस्तस्ये, नमस्तस्ये नमो नम:"
इस साधारण बालक('साधक') का आपको कोटि कोटि प्रणाम 'माँ'
.......................................................नारायन
"जय श्री माता जी"