"बंधन"
"यदि हम सब शांति से बैठकर 'ध्यानस्थ' अवस्था में मनन व् चिंतन करें तो पाएंगे कि हम मानव भौतिक व् आध्यात्मिक दोनों ही संसारों में अनेको प्रकार के बंधनो से बंधे हुए है।
1) जब एक जीवात्मा गर्भस्थ होती है तो वो गर्भ रूपी नर्क से बंधी होती है रात दिन हाथ जोड़कर "प्रभु" से मुक्त करने के लिए प्रार्थना कर रही होती है।
2) जब जन्म लेकर शिशु के रूप में संसार में आती है तो भोजन के लिए जन्म-दात्री के ऊपर निर्भर होती है।
3) जब शिशु चलने लायक हो जाता है तो अनेको अपने से बड़े घर के लोगों के अधीन होता है।
4) जब 4 वर्ष का होता है तो प्रायमरी स्कूल में उसका दाखिला दिला दिया जाता है और शिक्षकों के संरक्षक में रहना पड़ता है और उसे न चाहते हुए भी सभी कुछ सीखना पड़ता है।
5) जब थोडा और बड़ा होता है यानि 7-8साल का तो जूनियर स्तर की पढाई व् कुछ घर के छोटे-मोटे कार्यों की जिम्मेदारी उसके सर पर आ जाती है।
6) जब वह हाई स्कूल की आयु तक पहुँचने लगता है तो घर के कामों में हाथ बंटाने के साथ साथ उसे अपने कॅरियर बनाने के बारे में सोचने की जिम्मेदारी को वहन करना पड़ता है और रात-दिन पढाई करके अच्छे नंबर लाने की चिंता सताने लगती है।
7) जब 11-12 कक्षा में आ जाता है तो उसे अपनी आजीविका के लिए तन-मन-धन से पढाई में जुटना पड़ता है क्योंकि माता-पिता के सपनो को पूरा करने का बोझा अपने सर लेना पड़ता है।
8) जब कॉलेज में ग्रेजुएशन में एडमिशन ले लेता है तो अपने सीनियर्स की चाकरी करनी पड़ती है जो उसके सर पर हर समय सवार रहते हैं न करने पर उनकी रेगिंग का शिकार होना पड़ता है।
9)ये सब पूरा करने के बाद या तो वह नौकरी करता है या पोस्ट ग्रैजुएशन करता है और या अपने पिता के व्यापार में हाथ बंटाता है ।
यदि वह मानव स्त्री के रूप में जन्मा है तो अब उस पर शादी करने का दवाब बनना प्रारम्भ हो जाता है।उसकी मर्जी हो या न हो माता-पिता किसी भी प्रकार से उसकी शादी करके अपनी जिम्मेदारी से फारिग होना चाहते हैं।
10) यदि पुरुष के रूप में जन्मा है तो उसे नौकरी या व्यवसाय 2-4साल करने के बाद शादी और उसके बाद अपने जीवन-साथी की जिम्मेदारी भी उस पर आ ही जाती है और साथ ही अपने भाई बहिन व् माता-पिता की जिम्मेदारी भी उसे वहन करनी ही होती है।
इसके अतिरिक्त वो जिस देश में रहता है वहां के समाज व् क़ानून व्यवस्था से भी उसे बंधना पड़ता है।
11) अक्सर शादी के 2-3 साल बाद संतान हो जाती है और उसकी जिम्मेदारियों में और भी इजाफा हो जाता है और वह बंधता ही चला जाता है।
12) अपने उपयुक्त समय पर घर इत्यादि बनवाकर बच्चों को पढ़ा लिखा कर उन्हें दो रोटी कमाने लायक बना कर सही वक्त पर उनकी शादी भी कर देता है और फिर उसके बच्चों की भी जिम्मेदारी उठता है।और अपने बच्चों के कार्यों में हाथ भी बंटाता है।
13) और धीरे धीरे बूढ़ा होते होते अंत में मृत्यु का वरण करता है और उसके बाद अपने जीवन में किये गए अच्छे बुरे कर्मों के आधार पर प्राप्त हुए स्थान या स्तर से पुनः बंध जाता है।यानी मृत्यु के बाद भी बंधन पीछा नहीं छोड़ते, और यदि उसकी रूचि "प्रभु" के ध्यान व् साधना में है तो उस मॉर्ग के अनेकों नियम व् तरीके उसे बाँध लेते हैं।
14) अब जैसे किसी को "श्री माँ" की कृपा से 'सहज योग' प्राप्त हो जाता है तो उसको सहज-समाज के अनेको नियमों व् तौर तरीकों से बंधना पड़ता है। वर्ना कुछ अन्य सहजी उसके बारे में अनर्गल प्रचार प्रारम्भ कर देते हैं और बिन बात के उसके बारे में अनेकों कहानियां तक घड़ डॉलते हैं।
15) यदि गलती से भी "श्री माँ" की बात का अनुसरण करने में कुछ भूल हो जाए तो सूक्ष्म यंत्र में बैठे देवी-देवता रुष्ट हो जाते है और उस पर अनेको कष्टों के बादल छा जाते हैं।
16) यदि किसी भी कारणवश ठीक से ध्यान न हो पाये तो तीनो नाड़ियों पर विराजी हुई 'महा देवियाँ' व् उनके सहायक गण नाराज हो जाते हैं और वो बेचारा असंतुलित हो जाता है।
17) यदि नए लोगों की प्रतदिन कुण्डलिनी न उठाये तो चैतन्य का आभाव होने लगता है और शरीर में कुछ न कुछ तकलीफ होनी प्रारम्भ हो जाती है।
18) यदि गहन ध्यान में चिंतन मनन न कर पाये तो चेतना विकसित न होने के कारण विवेक जाग्रत नहीं हो पाता।
जिसके कारण उसमे "श्री माताजी" के लेक्चर को ठीक प्रकार से ग्रहण कर पाने की क्षमता उत्पन्न नहीं हो पाती और वो बेचारा अपने मोक्ष का अधिकारी नहीं बन पाता।
19)यदि मोक्ष प्राप्त हो भी गया तो उसके बाद भी इस धरती पर उपस्थित सुप्त मानवों को जागृत करने की जिम्मेदारी उठानी होगी।
20) और यदि धरती का कार्य "श्री माँ" की कृपा से पूर्ण हो भी गया तो उसके बाद फिर इस ब्रहम्माण्ड में स्थित अन्य स्थानों पर "श्री माँ" के द्वारा भेज दिया जाएगा और उस स्थान पर कार्य करना होगा।
कुल मिला कर ये निष्कर्ष निकलता है की हमारी चेतना किसी न किसी रूप में कोई न कोई जिम्मेदारी उठाती ही रहेगी।अतः अपने हृदय में 'स्वतंत्रता' प्राप्त करने रुपी भ्रम को स्थान न दिया जाय वर्ना निराशा ही हाथ लगेगी।
वास्तव में स्वतंत्रता प्राप्त करने का भ्रामक भाव किसी न किसी रूप में हम सभी की चेतनाओं में जीवन के प्रति सकारात्मक सोच को बरकरार रखते हुए "परमात्मा" के द्वारा रची गई इस रचना में गति बनाये रखता है।
जिन साधकों के हृदय से ये भाव लुप्त हो जाता है वो इस रचना में होते हुआ भी इस रचना से परे विद्दमान होते हैं और वास्तविक रूप में में मुक्त हो जाते हैं।
जब तक भी हम किसी न किसी रूप में चेतना के रूप में मौजूद रहेंगे तब तक हमारे बंधन समाप्त न होंगे और जब तक हमारी चेतना
"सर्वोच्च चेतन" से एक रूप हो "चेतन के स्रोत" में नहीं समां जायेगी तब तक हम स्वतंत्र नहीं होंगे।यदि ऐसा हो जाए तो हम निश्चत रूप से चिर-प्रतीक्षित "निर्वाण" को प्राप्त हो जाएंगे।"
----------------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"
No comments:
Post a Comment