"ध्यान-संस्कार भी एक बाधा"
"अक्सर किसी न किसी सहज-सामूहिकता में ऐसा अवसर आता है कि हम किसी सहजी के अन्तःकरण से प्रस्फुटित होने वाले सामूहिक 'लंबे-ध्यान' का आनंद उठा रहे होते हैं।
'दिव्य' ऊर्जा का प्रवाह हमारे सूक्ष्म यंत्र को आडोलित कर रहा होता है, हमारी चेतना उस ऊर्जा में निहित "श्री माँ" के प्रेम का रसास्वादन कर रही होती है और हमारा अन्तर्मन आनंदित हो रहा होता है।
किन्तु इसके विपरीत हममे से कुछ सहजी उस ध्यान के दौर में काफी असहज व बेचैनी महसूस कर रहे होते हैं। उनके लिए बीतने वाला एक एक क्षण बेकली व व्याकुलता को बढ़ाने वाला होता है, वो वास्तव में प्रतीक्षा कर रहे होते हैं कि जल्दी से ये ध्यान का दौर समाप्त हो और उनकी परेशानी से उन्हें निजात मिल जाये।
जैसे ही ध्यान समाप्त होता है वे सहजी आपस में उस ध्यान व ध्यान के माध्यम की बुराई शुरू कर देते हैं। आपस में बताते हैं कि उनके यंत्र में उस ध्यान के कारण क्या क्या परेशानी आई।और ध्यान के कार्यक्रम के आयोजकों से उस माध्यम के द्वारा पुनः ध्यान न कराये जाने का निवेदन भी करते हैं।
एक ओर आनंद का सागर लहरात है दूसरी ओर बेचैनी का दरिया बहना प्रारम्भ हो जाता है।अब प्रश्न ये उठता है कि इन दो एक दूसरे की विरोधी परिस्थितियां सहजियों के यंत्रों में क्यों कर परिलक्षित होती रहती हैं।
जबकि माध्यम भी वही एक ही होता है, स्थान भी वही होता है, समय भी एक ही होता है, "श्री माँ" का 'अल्टार' भी होता है, "उनकी" वात्सल्यमयी 'ऊर्जा' भी वातावरण में उपस्थित होती है, उच्चारण भी "श्री माँ" के नाम का चल रहा होता है।
परंतु फिर भी कुछ सहजी ध्यान का आनंद लेने के स्थान पर आंतरिक अशांति के दौर से गुजर रहे होते हैं। मेरी चेतना व अनुभव के मुताबिक ऐसा इसलिए होता है कि हममे से अधिकतर सहजी एक ही विधि से ध्यान में जाने के आदि हो चुके होते हैं। क्योंकि हमारे अधिकतर सभी सेंटर्स में ध्यान में उतरने के लिए एक ही प्रकार की विधि अपनाई जाती है।
यानि पहले कुछ देर तक भजन होते हैं, फिर "श्री माँ" की वाणी सुनवाई जाती है, उसके बाद फिर कुछ भजन और होते हैं, फिर आरती होती है फिर 'महामंत्र' लिया जाता है और फिर 5 मिनट तक ध्यान और फिर कुण्डलिनी को बांध कर सब प्रसाद लेने के लिए उठ जाते हैं।
ये उपरोक्त रिचुअल भारत के लगभग सभी सेंटर्स में अपनाया जाता है जिसके कारण हममे से ज्यादातर सहजी जाने अनजाने में ध्यान में उतरने के लिए इसी विधि के द्वारा कंडीशंड हो जाते हैं।
क्योंकि हमने से ज्यादातर सहजी सेंटर्स के अतिरिक्त घंटे-दो धंटे वाली लंम्बी ध्यान की सिटिंग अपनाते नहीं हैं जिसके कारण उनको ज्यादा देर तक ध्यान में रहने का अभ्यास नही होता है।
जब भी कभी किसी सहजी के माध्यम से "श्री माँ" रूटीन से कुछ अलग हट कर सामूहिक ध्यान को घटित कराती हैं तो उन कंडीशंड सहजियों का मन जाने अनजाने में उस ध्यान के विरोध में चला जाता है और उन्हें विचलित कर देता है।
और ध्यान में मन का प्रभाव बढ़ने से ध्यान में प्रस्फुटित हुई 'दिव्य ऊर्जा' व मन से उत्सर्जित हुई ऊर्जा में घर्षण शुरू हो जाता है जिसके परिणाम स्वरूप उनका यंत्र गर्माहट उत्पन्न करने लगता है।
परिणाम स्वरूप वो अपने हथेलियों व कानो से गर्म गर्म ऊर्जा को निकलता महसूस कर रहे होते हैं और अज्ञानता में ध्यान के माध्यम को गलत ठहराना प्रारम्भ कर देते हैं और कहने लगते हैं कि उस माध्यम के वायब्रेशन ठीक नही हैं।
जबकि दिक्कत उनकी स्वम् की समझ व यंत्र में होती है किंतु आरोप उस माध्यम के ऊपर आक्षेपित हो जाते हैं। वास्तव में यदि हम सभी सहजी किसी भी सहजी के माध्यम से कराए जाने वाले ध्यान का भरपूर आनंद उठाना चाहते हैं .
तो हमें अपने मन के द्वार बंद करने होंगे। और अपना प्रेम पूर्ण हृदय उस माध्यम के लिए खोलना होगा तभी हम उसके यंत्र के द्वारा प्रवाहित होने वाले "मातृ-प्रेम" का लुत्फ उठा पाएंगे।
इसका आनंद उठाने के लिए हमें अपना चित्त उस माध्यम के द्वारा कराए जाने वाले ध्यान के तरीके पर न रखकर उसके हृदय से फूटने वाले "श्री माँ" के प्रेम पर होना चाहिए। यदि हमने उसके तरीके पर ज्यादा ध्यान दिया तो हमारे मन में ध्यान की पूर्व संचित ध्यान विधि में संघर्ष प्रारम्भ हो जाएगा।
हमारा मन उस नए तरीके को ग्रहण नही करेगा जिसके परिणाम स्वरूप हमारा यंत्र वातावरण में उपस्थित 'श्री-चैतन्य' से वंचित रह जायेगा और हम बेचैनी का अनुभव करेंगे। वास्तव में हम सभी "श्री माँ" के विभिन्न पुष्प हैं जिन्हें
"श्री माँ" ने अपनी अपनी सुगंधि बिखेरने के लिए तैयार किया है।
------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"
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