"ऊर्जा-संकेत"-'एक मौन वार्तालाप'(भाग-1)"
(21-12-17)
हम सभी सहज साधको/साधिकाओं को "श्री माँ" ने हमारी सोई 'शक्ति' को जागृत कर विभिन्न प्रकार के 'ऊर्जा-संकेतकों' के माध्यम से विभिन्न 'निराकार शक्तियों' से 'मूक-वार्तालाप' के योग्य बना दिया है।
किन्तु ये बहुतायत में देखा गया है कि हममे से अधिकतर 'सहज-ध्यान-अभ्यासी' 'चैतन्य' की मौन भाषा को ठीक प्रकार से समझ नहीं पाते।
और गलत आंकलन के कारण अक्सर विपरीत निष्कर्ष पर पहुंच कर निर्थक पीड़ा व उत्पीड़न के भागी स्वम् भी बनते हैं और अन्य सहजियों को भी उस यंत्रणा का हिस्सा बना देते है।
वास्तव में हमें जो भी ऊर्जा संकेत प्राप्त होते हैं वो केवल और केवल हमारे चित्त/विचार/भाव/स्वभाव/ की प्रतिक्रिया स्वरूप ही महसूस होते हैं।
"यदि हम अपने चित्त को पूर्ण रूप से शून्य में स्थापित कर लें तो हमारा यंत्र किसी भी प्रकार के ऊर्जा संकेतो को प्रगट नहीं करेगा"।
ऐसी अवस्था में हम चिर स्थाई शांति, स्थायित्व व आनंद को महसूस कर रहे होंगे।यही स्थिति तो हमें ध्यान के अभ्यास से प्राप्त करनी है।
यदि हमने "श्री माँ" के लेक्चर्स को ठीक प्रकार से सुना व आत्मसात किया है तो हम सभी जानते हैं कि हमारी कुण्डलिनी के सहस्त्रार में आने के उपरांत हमारे मानवीय अस्तित्व में स्थित सूक्ष्म चक्रों व नाड़ियों का आभास हमें चार स्थानों पर होता है।
क्या कभी हममें से किसी ने चिंतन किया है कि चक्रो व नाड़ियो की विभिन्न अवस्था की अभिव्यक्ति एक स्थान के स्थान पर चार स्थानों पर क्यों कर होती है ?
मेरी तुच्छ समझ व विकास प्रक्रिया के दौर से गुजरती मेरी चेतना के अनुसार इन चार स्थानों पर प्रकट होने वाले विभिन्न लक्षणों का सम्बंध हमारी चेतना की परिवर्तित होती अवस्था व इसके स्तर पर निर्भर करता है।
----------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"
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