"मोक्ष-प्राप्ति"
"हममें से बहुत से सहजी यह अक्सर सोचते हैं कि आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने के उपरांत जन्म-मरण की प्रक्रिया से हमें मुक्ति मिल जाएगी।
"श्री माता जी" ने भी इस विषय में "अपने" कई वक्तव्यों में जन्म लेने की बाध्यता के समाप्त होने के बारे में बताया है।
यह बात बिल्कुल सत्य है इसमें कोई संदेह नहीं है, किंतु इस उपक्रम में एक शर्त छुपी हुई है। और वो है हमारी चेतना की पूर्ण मुक्त अवस्था का होना।
यानि जब तक हमारी चेतना लाभ, हानि, भय, सांसारिक झुकाव, लालसा, घृणा, ईर्ष्या, राग-द्वेष, शोक, आकांशा,शंका, सन्देह, इच्छा, आकर्षण, तूलना, ऊँच-नीच, व किसी भी प्रकार के मोह, विछोह आदि से ऊपर नहीं उठेगी।
तब तक हमारे लिए पूर्ण मुक्त अवस्था उपलब्ध नहीं होगी। यानि कुंडलिनी जागृत होने के उपरांत भी यदि हम उपरोक्त भावों व इनके विचारों से बाहर नहीं आ पाते हैं।
तो हमारी मृत्यु के समय भी हमारी चेतना इन्हीं विचारों से आच्छादित रहेगी और इन्ही विचारों के उपापोह में हम अनेको प्रकार की मानसिक व शारीरिक पीड़ाओं से पीड़ित होते हुए प्राण त्याग देंगे।
शरीर त्यागने के उपरांत भी हमारी जीवात्मा के साथ हमारा मन व हमारी चेतना उसी स्तर में बने रहेंगे जो शरीर की मृत्यु के समय थे।
भले ही मृत्युपरांत हमारी जीवात्मा को "श्री माता जी" के "श्री चरणों" में स्थान मिल जाये किंतु हमारी चेतना के विकास की प्रक्रिया निश्चित रूप से अवरुद्ध हो जाएगी।
ये भी सम्भव है कि हम पुनः जन्म न लेना चाहें किंतु हमारी चेतना में पूर्ण मुक्ति का प्रकाश नहीं फैल पायेगा।
जिसके कारण हम, अपने प्रेममयी 'स्रोत' से एकाकार होने के लाभ से सदा वंचित ही रहेंगे और हमारी चेतना में सदा असंतुष्टि बनी ही रहेगी।
हमारी अंतर्चेतना व चिंतन के अनुसार स्थूल देह की मृत्यु के बाद हमारी चेतना का विकास वहीं का वहीं ठहर जाता जहां तक वह जीवित अवस्था में था।
"श्री माँ" की अनुकंम्पा से मृत्यु के बाद आत्मसाक्षात्कारी
होने का हमें केवल इतना ही लाभ मिल पाता है कि हमारी जीवात्मा पर कोई भी तांत्रिक/अघोरी कब्जा नहीं कर पाता।
और न ही हमारी जीवात्मा को कोई भी असुर, भूत, प्रेत, जिन्न व कोई भी नकारात्मक जीवात्मा ही पीड़ित कर पाती है। यानि कि हमारी जीवात्मा इसी नरक लोक में ही विचरण करती रहती है।
जो भी मानव अपने जीवन काल में "श्री माँ" से अशीर्वादित नहीं हो पाते उनकी जीवात्मा को शरीर छोड़ने के उपरांत अनेको प्रकार के भयानक कष्ट भोगने ही पड़ते हैं।
और अक्सर तांत्रिकों/अघोरियों की गुलामी ही करनी पड़ती है साथ ही असुरों व बुरी जीवात्माओं से निरंतर संघर्ष करते हुए विभिन प्रकार की प्रताड़नाओं से गुजरना पड़ता है।
इसी लिए हम सभी ध्यान अभ्यासियों को अपने इस शरीर के उपलब्ध रहते हुए हर पल सहस्त्रार व मध्य हृदय में जुड़े रहते हुए अपने आत्मिक विकास के लिए अत्यंत सजग व जागृत रहना होगा।
गहन ध्यान की अवस्था में अपनी हर प्रकार की सांसारिक इच्छाओं, लालसाओं व झुकावों की ओर प्रवुत होने की प्रवृति को चेतना में समाधान के माध्यम से समाप्त करना होगा।
अन्यथा हमारी जीवात्मा मुक्त नहीं हो पाएगी और हम अनेकानेक कष्टों व यंत्रणाओं के भागी बनेंगे।
हो सकता है इस चिंतन यात्रा से गुजरते हुए हममें से बहुत से सहजी अपने सहज कार्यों का आंकलन करने लग जाएं कि हमें तो इस प्रकार की कोई भी परेशानी नहीं आने वाली।
क्योंकि हम प्रतिदिन "श्री माँ" की वाणी सुनते हैं, अपने चक्र स्वच्छ करते हैं, नाड़ियों को संतुलित करते हैं।
प्रति सप्ताह सेंटर जाते हैं, प्रतिमाह पूजा अटैंड करते है और साल में चार-छै बार बड़ी सामूहिकता का आनंद भी लेते है।
इसके अतिरिक्त हम नए लोगों को निरंतर आत्मसाक्षात्कार देते रहते हैं और कई बार सहज सामूहिकता को ध्यान भी कराते हैं।
साथ ही जब भी हम ध्यान में बैठते हैं तो हमें वायब्रेशन भी बड़े ही अच्छे आते हैं।
हमें अपनी कोई भी नाड़ी व चक्र बाधित महसूस नहीं होते हैं, हम समस्त प्रोटोकाल का अनुपालन भी करते हैं।
हमारी चेतना के अनुसार, वास्तव में सहज से सम्बंधित हर प्रकार के कार्यों को करने से हमें 'दिव्य ऊर्जा' प्राप्त होती है।
और यदि हम इस दिव्य ऊर्जा का उचित सदुपयोग कर पाएं तो यह ऊर्जा हमारे चित्त के माध्यम से सर्वप्रथम हमारे मध्य हॄदय को खोलती है।
उसके उपरांत यदि हमारे भीतर सच्ची खोज विद्यमान है तो हम अपनी चेतना के माध्यम से अपनी 'आत्मा' को जागृत करते हैं और अपनी आत्मा के सम्पर्क में हर पल ध्यानस्थ स्थिति में बने रहते हैं।
और फिर अपनी 'प्रकाशित आत्मा' के प्रकाश में गंभीर चिंतन व मनन के माध्यम से अपने समस्त प्रकार के सांसारिक प्रश्नों व लालसाओं के लिए समाधान प्राप्त करते हैं।
समाधानी होने के उपरांत ही हमारे अन्तःकरण में 'निर्लिप्तता' प्रस्फुटित होती है जो हमें साक्षी अवस्था प्रदान करती है।
और साक्षी होकर ही हम वास्तविक रूप से 'मुक्ति रूपी फल' का स्वाद चख पाते हैं और मृत्युपरन्त इसी अवस्था में हम बने रहते हैं।
यही सुंदर स्थिति हमारे मृत्यु के पलो को शांतिमय व आरामदायक बनाती है। यानि हर प्रकार के भय, लालसा व मुक्ति की चाह से मुक्त होना ही सही मायनों में मुक्ति है।
अन्यथा सहजी की जीवात्मा भी विभिन्न प्रकार के नरकों को भोगने के लिए बाध्य होती है।
हमारी अन्तःजागृति के अनुसार मानव वास्तव में दो प्रकार के नरकों को भोगता है।
प्रथम 'मन-जनित-नरक' होता है जो विभिन प्रकार की मानसिक जड़ताओं, पीड़ाओं, संस्कारो के कारण आभासित होता है।
और दूसरा है 'तन-जनित-नरक' जो वास्तव में मन की नकारात्मक दशा के परिणाम स्वरूप उत्पन्न होने वाले विभिन प्रकार के गम्भीर रोगों से उत्पन्न भयानक पीड़ा के रूप में परिलक्षित होता है।
आम मानव व मोह-ग्रसित ध्यान अभ्यासी इन्ही दो प्रकार के नरकों से गुजरकर अपनी 'इहलीला' समाप्त करते हैं।
और फिर उनकी जीवात्मा शरीर छोड़ने के बाद भी मन की जड़ताओं के परिणाम स्वरूप उत्पन्न हुए विभिन प्रकार के नरकों की पीड़ा को भोगती ही रहती है।
ये चेतना "श्री माँ" से सच्चे हृदय से प्रार्थना करने के साथ साथ शुभकामनाएं भी प्रेषित करती है, 'कि आप सभी को आपके इसी जीवन काल में "पूर्ण मुक्त अवस्था" प्राप्त हो, आमीन।"
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----------------------------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"
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