"निर्लिप्तता"
अब क्या जाऊं मैं, मंदिर, मस्जिद, गिरजा, गुरूद्वारे,
अब तो आ गए हैं सब के सब, मेरे हृदय के द्वारे,
सोचता रहता था अक्सर, इनपर क्या चढाऊँ मैं,
चढ़ा कर स्वम को "श्री चरणों" में "श्री माँ" के,
हर चढ़ावे से ही मुक्त हो गया हूँ मैं,
बंध कर हृदय से "श्री माँ" के बन्धनों में प्रथम ही बार,
बारम्बार के बन्धनों से मुक्त हो गया हूँ मैं,
डूब कर प्रेम में "श्री माँ" के इक बार, अभी तक भी न उबरा हूँ मैं,
सोखता रहता हूँ मैं, सहस्त्रार से अनन्त धाराओं को,
फिर फूट सोकिंग का क्या करूंगा मैं,
खोकर अस्तित्व को अपने "श्री माँ" में, अब संतुलन कैसे स्थापित करूंगा मैं,
रख ही दिया है जब शीश अपना "श्री चरणों" में "श्री माँ" के,
अब भूत-राक्छ्सों से क्या डरूंगा मैं,
बनाया है रहबर जब "श्री माँ" को अपना, पंच तत्वों से क्या मदद लूँगा मैं,
मिटाया है जब भेद जीवन-मृत्यू का अपनी,
फिर अपनी सुरक्षा का क्या करूंगा मैं,
जब से "माँ आदि" "निर्मला" बन के आईं,
तभी से पंच तत्व, ग्रह, नक्छत्र, तारे व हम सभी, बन गए हैं बहिन व भाई,
अपेक्षा रखतीं हैं "श्री माँ" हम सबसे केवल एक कार्य की,
मदद चाहतीं हैं वे, हम सब से केवल सृष्टी चलाने की,
बड़े प्रेम से बनाई इस सृष्टी को, कैसे वे अकेले चलायेगीं,
जब तक हम सबके सहस्त्ररों पर "माँ कुण्डलिनी" नहीं लहरायेगीं,
सहस्त्रार को "हवन कुंड" बनाकर, " माँ कुण्डलिनी" को ज्वाला बनाया है,
अनेको जन्मों के संचित विचारों को, आहूति का जामा पहनाया है,
देकर हमें 1008 नामों को, सभी विचारों से हमें मुक्त कराया है,
कर कर समस्त कार्यों को, माध्यम से हमारे,
समस्त कर्मों से हमें मुक्त कराया है,
करता रहता था कुछ, कुछ बहुत पहले, अब अजीब से अकर्म में आ गया हूँ मैं,
जो भी देती हैं उसे कर्तव्य मान लेता हूँ, निभाकर समस्त कर्तव्यों को हृदय से,
हर कर्तव्य से ही मुक्त हो गया हूँ मैं,
कुण्डलिनी उठाना भी कर्तव्य है, कर्म नहीं है, स्वम को नित्य खोजना ही कर्म है, भ्रम नहीं है,
ऐसे ही अनूठे कार्य को पा गया हूँ मैं,
दौड़ता रहता था अक्सर परिधि पर पहले, ऐसा लगता है अब स्वम,
धुरी ही हो गया हूँ मैं,
अब क्या बनाऊं पहचान मैं "माँ" अपनी तुझसे अलग, तू ही मेरा "सूरज" मैं हूँ तेरी "किरण",
तुझी से जुदा हुआ था मैं युगों पहले, अब तो बस तुझी में ही समां गया हूँ मैं,
ऐसा लगता है शायद, खुद से ही खुदी को पा गया हूँ मैं,
तेरी बनाई इस सुन्दर सृष्टि मैं, तेरे ही सौन्दर्य को पा गया हूँ मैं,
अब क्या ये संसार और अध्यात्म जुदा-जुदा लगेंगे, अरे दोनों में ही अब तेरे को पा गया हूँ मैं।
"जय श्री माता जी"
----नारायण
अब तो आ गए हैं सब के सब, मेरे हृदय के द्वारे,
सोचता रहता था अक्सर, इनपर क्या चढाऊँ मैं,
चढ़ा कर स्वम को "श्री चरणों" में "श्री माँ" के,
हर चढ़ावे से ही मुक्त हो गया हूँ मैं,
बंध कर हृदय से "श्री माँ" के बन्धनों में प्रथम ही बार,
बारम्बार के बन्धनों से मुक्त हो गया हूँ मैं,
डूब कर प्रेम में "श्री माँ" के इक बार, अभी तक भी न उबरा हूँ मैं,
सोखता रहता हूँ मैं, सहस्त्रार से अनन्त धाराओं को,
फिर फूट सोकिंग का क्या करूंगा मैं,
खोकर अस्तित्व को अपने "श्री माँ" में, अब संतुलन कैसे स्थापित करूंगा मैं,
रख ही दिया है जब शीश अपना "श्री चरणों" में "श्री माँ" के,
अब भूत-राक्छ्सों से क्या डरूंगा मैं,
बनाया है रहबर जब "श्री माँ" को अपना, पंच तत्वों से क्या मदद लूँगा मैं,
मिटाया है जब भेद जीवन-मृत्यू का अपनी,
फिर अपनी सुरक्षा का क्या करूंगा मैं,
जब से "माँ आदि" "निर्मला" बन के आईं,
तभी से पंच तत्व, ग्रह, नक्छत्र, तारे व हम सभी, बन गए हैं बहिन व भाई,
अपेक्षा रखतीं हैं "श्री माँ" हम सबसे केवल एक कार्य की,
मदद चाहतीं हैं वे, हम सब से केवल सृष्टी चलाने की,
बड़े प्रेम से बनाई इस सृष्टी को, कैसे वे अकेले चलायेगीं,
जब तक हम सबके सहस्त्ररों पर "माँ कुण्डलिनी" नहीं लहरायेगीं,
सहस्त्रार को "हवन कुंड" बनाकर, " माँ कुण्डलिनी" को ज्वाला बनाया है,
अनेको जन्मों के संचित विचारों को, आहूति का जामा पहनाया है,
देकर हमें 1008 नामों को, सभी विचारों से हमें मुक्त कराया है,
कर कर समस्त कार्यों को, माध्यम से हमारे,
समस्त कर्मों से हमें मुक्त कराया है,
करता रहता था कुछ, कुछ बहुत पहले, अब अजीब से अकर्म में आ गया हूँ मैं,
जो भी देती हैं उसे कर्तव्य मान लेता हूँ, निभाकर समस्त कर्तव्यों को हृदय से,
हर कर्तव्य से ही मुक्त हो गया हूँ मैं,
कुण्डलिनी उठाना भी कर्तव्य है, कर्म नहीं है, स्वम को नित्य खोजना ही कर्म है, भ्रम नहीं है,
ऐसे ही अनूठे कार्य को पा गया हूँ मैं,
दौड़ता रहता था अक्सर परिधि पर पहले, ऐसा लगता है अब स्वम,
धुरी ही हो गया हूँ मैं,
अब क्या बनाऊं पहचान मैं "माँ" अपनी तुझसे अलग, तू ही मेरा "सूरज" मैं हूँ तेरी "किरण",
तुझी से जुदा हुआ था मैं युगों पहले, अब तो बस तुझी में ही समां गया हूँ मैं,
ऐसा लगता है शायद, खुद से ही खुदी को पा गया हूँ मैं,
तेरी बनाई इस सुन्दर सृष्टि मैं, तेरे ही सौन्दर्य को पा गया हूँ मैं,
अब क्या ये संसार और अध्यात्म जुदा-जुदा लगेंगे, अरे दोनों में ही अब तेरे को पा गया हूँ मैं।
"जय श्री माता जी"
----नारायण
जय श्री माताजी
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