"Impulses"
"ज्यादातर मानव "ईश्वर" से जुड़ने के लिए "ध्यान" का मार्ग इसलिए अपनाना चाहते हैं कि उनके जीवन में कोई परेशानी न आये और उनके समस्त प्रकार के सांसारिक कार्य बिना किसी अवरोध के सम्पादित होते रहें व् उनका स्वास्थ्य संसार को अच्छे से भोगने के लिए सदा बना रहे।जब गहराई से "ध्यानस्थ" अवस्था में चिंतन के दौर से गुजरेंगे तो एहसास होगा कि ये एक प्रकार की 'कंडीशनिंग' ही है जो हमारे हर मानवीय जीवन के साथ चली आ रही है।
जो मानवीय-सभ्यता के प्रारंभिक विकास काल में अपनाई जाने वाली "वस्तु-विनिमय" पद्यति (Barter System) पर ही आधारित है जो आज भी हमारे 'अवचेतन मन' में मौजूद है। इसीलिए जब भी हम "प्रभु" के ध्यान में उतर रहे होते हैं तब कहीं न कहीं हमारे मन के कोने में ध्यान के बदले में हमारे सांसारिक कल्याण का भाव छुपा होता है इसीलिए ज्यादातर लोग
"मन्नतों" के चक्कर में उलझ कर ही "पवित्र स्थलों" पर जाते हैं और गर्व से अपने को 'धार्मिक' कहलाते हैं।
जो कि वास्तव में एक 'याचक' के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होते।याचक कभी भी "भगवान्" की संतान नहीं बन सकते क्योंकि "उनकी" संतान को तो "उनसे" विरासत में 'दाता भाव' मिलता है, वो केवल देना ही जानते हैं, लेने का भाव ही उनके 'दिव्य अस्तित्व' के विपरीत है। अतः हमको ध्यानस्थ अवस्था में 'आंतरिक' विश्लेषण के माध्यम से स्वम् को टटोलना होगा की हम 'याचक' के वर्ग में पीड़ित हैं या 'दाता' के वर्ग में आन्दित हैं।
सत्य का खोजी कभी भी याचक नहो हो सकता वरन् वो तो सदा "परमपिता" का 'पुत्र/पुत्री' होने के अपने गौरव में ही स्थित रहता है सभी को अपने हृदय से प्रेम देता है और "उनके" कार्यों में अपने स्तर व् चेतना के मुताबिक हाथ बंटाता रहता है।"
("Most of the people want to come into Meditation because
of attaining their External Well Being like Prosperity, Health, Name, Fame etc. When we go deep into meditation only then we come to know that
this desire of materialistic well being is nothing but a mere 'Conditioning'
which is moving along with since our First Human Birth.
This conditioning is based on 'Ancient Barter System' which was
adopted by Humans in their Early Age of Developing Civilization. And such
instinct still resides into our Sub-Conscious mind.When we go Into Meditation then the feeling of our Materialistic
Welfare too exists somewhere into the corner of our mind as the consideration
of our Devotion.
That's why most of the people keep on going to Sacred Places out
of demand and they usually love to be called themselves a "Religious
One" in this way.They are nothing but more or less than a 'Beggar' in disguise
actually.
A Beggar can never be a Son/Daughter of "God". Because
"God" is an ardent 'Giver' and their children too heridate "His Traits" of 'Giving' only. The Feeling of Taking is against their 'Divine
Entity'.So we have to find out our actual status through Internal
Analysis in deep meditative state that, do we belong to the category of a Beggar or a Giver.
A True Seeker can never be
a beggar but he/she always enjoy the status of Being a Child of
"Almighty" always, loves everyone with his/her true heart and gives a
shoulder to "His" works at his/her level of
awareness."
----------------------------Narayan
"Jai Shree Mata ji"
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