"धन का सदुपयोग"
"अधिकतर देखने में आता कि कुछ आर्थिक रूप से संपन्न लोगों को अपने जीवन में कभी न कभी विभिन्न प्रकार की विपत्तियों व् परेशानियों, जैसे एक्सीडेंट, बेईमानी, चोरी, झगड़ा, व् गंभीर बिमारियों आदि के दौर से गुजरना पड़ता है जिसके कारण बहुत से धन की हानि हो जाती है।और इस धन-हानि के कारण वो लोग बहुत ही पीड़ित महसूस करते हैं, उनको ऐसा लगता है कि जैसे उनका सब कुछ चला गया हो और इस गम में वो बेहद दुखी हो जाते हैं और दुखी होकर उदास रहने लगते हैं और अपने पूर्व-जीवन का अवलोकन कर गलतियां ढूँढने का प्रयास करते है।
इस अवलोकन व् विश्लेषण में कभी तो वो स्वम् को दोष देते हैं तो कभी दूसरों के दोष ढूंढ ढूंढ कर उनको हानि का कारण समझने लगते हैं और उनसे मन ही मन घृणा करने लगते हैं।उनको लगता है कि ये स्थिति इन्ही लोगों के कारण उत्पन्न हुई है।पर ये कभी नहीं समझ पाते कि यदि "परमात्मा" ने उन्हें सम्पन्नता बक्शी है तो जरूर इस धन में उनके पूर्व जीवनों का कुछ ऋण भी शामिल होगा जो इन्ही घटनाओं के माध्यम से चुकता होना है परन्तु हम उन सभी लोगों के बारे में नहीं जानते जिनके हम ऋणी हैं।
क्योंकि "विधाता" ने हमारे वर्तमान जीवन को चिंता रहित व् आनंददायी बनाने के लिए हमारे पूर्व-जीवनों की समस्त स्मृतियों को विस्मृत कर हमें "स्मृति-लोप" का वरदान दिया है जिससे हम सामान्य जीवन व्यतीत कर सकें। परंतु "उन्होंने" हमारे ऋण चुकाने व् हमारे द्वारा दूसरों को दिए गए पूर्व ऋणो को वापस प्राप्त करने की भी व्यवस्था की हुई है जिसके कारण यह सब हमारे जीवन में चलता ही रहता है अतः हमें दुखी नही होना है ।
बल्कि ये सोच कर "प्रभु" को धन्यवाद देना है कि यदि यही विपत्तियाँ 'विपन्नता' की स्थिति में आती तो इनका किस प्रकार से सामना कर पाते और समर्थ न होने के कारण पूर्णतया नष्ट ही हो जाते।ये तो उनकी असीम कृपा है की ऋण अदायगी सम्पन्नता की अवस्था में हो रही है। जब भी किसी के पास उसकी वास्तविक आवश्यकता से अधिक धन व् साधन उपलब्ध हों तो समझ लेना चाहिए कि वो 'एक्स्ट्रा धन' किसी न किसी की अमानत है यदि वो हानि के रूप में जा रहा है तो जाने देने में पीड़ा न महसूस करें बल्कि ये सोचें कि पूर्व-जीवन का कर्ज उतर रहा है।
चाहे उस धन-सम्पदा को हम इसी प्रकार की नाकारात्मक घटनाओं के जरिये मजबूरी में दें या फिर किन्ही सद-कार्यों में उसका ख़ुशी ख़ुशी सदुपयोग करें।उसने तो समय आने पर जाना ही है। विभिन्न प्रकार के नाकारात्मक मार्गों का उपयोग कर उसे बचाने की कोशिश भी व्यर्थ है क्योंकि ऐसा करने पर जाने वाले धन पर प्रकृति हमसे ब्याज भी चॉर्ज कर लेगी यानि हमारी विपत्तियों में थोड़ा और इजाफा हो जाएगा और परिणाम स्वरूप और भी धन की हानि होगी। आवश्यकता से अधिक धन का एक सबसे सुन्दर सदुपयोग है और वो है 'मानव चेतना' के विकास कार्यों के मद् में उसे खर्च किया जाए।
यानि जो लोग "प्रभु साधना व् भक्ति" में आगे बढ़ना चाहते हैं उनको इस सुन्दर मॉर्ग पर चलने में उत्साहित करें व् उनके लिए अपने सामर्थ्य के अनुसार सुरम्य स्थानों पर सामूहिक साधना के लिए भवनों का निर्माण करा कर व् सामूहिक चेतना के विकास के लिए विभिन्न प्रकार के आयोजन कर ऐसे कार्यों को आगे बढ़ाने में सहयोग करना चाहिए।
ताकि साधक-गण अपनी साधना व् भक्ति के माध्यम से विश्व-शांति के लिए और भी नए जागरूक मानवों को साधक बनने में मदद कर सकें व् पूरी मानव जाति को जागरूक कर उन सभी के लिए उन्ही के मानवीय जीवन को सार्थक करने में मदद कर"परमपिता"
की सृष्टि को सुचारू रूप से चलाने में अपना योगदान दे सकें।"
------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata ji"
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