"Relishing the 'Energy' of Future 'Sahaj-Collective' through our Attention at our Own Place"
This Blog is dedicated to the "Lotus Feet" of Her Holiness Shree Mata Ji Shree Nirmala Devi who incepted and activated "Sahaj Yoga", an entrance to the "Kingdom of God" since 5th May 1970
Wednesday, September 28, 2016
Monday, September 26, 2016
"Impulses"-306-"जशन-ऐ-ख़ाक" (अनुभूति--38-26-09-16)
"जशन-ऐ-ख़ाक"
"अपनी ख़ुशी से मिटने का मजा कुछ और ही होता है दोस्तों,
जैसे मक्खन का वजूद गर्म रोटी पर ख़ुशी ख़ुशी पिघल जाता है,
जैसे मोमबत्ती का मोम जलती बाती के साथ अपनी मर्जी से ख़ाक हो जाता है,
जैसे मन का दुःख दिल के दरिया डूब कर समां जाता है,
जैसे बर्फ का टुकड़ा मदहोश होकर जाम में ग़ाफ़िल हो जाता है,
जैसे 'इजहारे-ऐ-इश्क' की बेताबी में अल्फाज लबों में ही घुल जाता है,
जैसे एक दीवाना ख़ुशी ख़ुशी अपनी सच्ची मुहब्बत के लिए फना हो जाता है,
जैसे ढलती साँझ में 'उजाला' मदमस्त हो अँधेरे के आगोश में बड़े शौक से जज्ब हो जाता है,
जैसे 'रूहानी गुफ्तगू' के दौर में उठने वाला हर नफ्फसानी-ख्याल, अपने "रहबर" के एहसास में मजे से खुदकुशी कर लेता है,
जैसे सदियों से तरसती हुई 'रूह' का इश्क "उनके" 'दीदार-ऐ-उल्फत' में बड़ी शिद्दत से दम तोड़ देता है।"
-------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"
रूहानी गुफ्तगू=ध्यान
नफ्फसानी-ख्याल=भौतिक इच्छाएं
Wednesday, September 21, 2016
"Impulses"---305
"Impulses"
1)"हम सभी मानव "परमात्मा" की संतान होने के कारण कहीं न कहीं एक दूसरे के प्रति नैसर्गिक व् नैतिक रूप से एक जिम्मेदारी सी महसूस करते है।
चाहे हम किसी को जानते हैं या नहीं भी जानते पर कहीं न कंही एक अंदरूनी रूप से एक रूहानी रिश्ते का एहसास बना ही रहता है जब तक के कोई भी एक पक्ष दूसरे पक्ष के साथ धोखा, बेईमानी, ईर्ष्या, झूठ या अपमान प्रगट न करदे।
यदि किसी के साथ भी ऐसा हो जाता है तो दुखी न हों बल्कि ये सोचें "ईश्वर" ने स्वम् हमारी नैतिक जिम्मेदारी कम करदी।
अतः "भगवान्" को धन्यवाद दें और उस शख्स को अपने मन व् हृदय से दूर कर स्वतंत्रता का आनंद उठायें ।"
2)"एक " साधक" का जीवन अनेको प्रकार की विषमताओं से भरा होता है, समय समय पर वह अपने को झूठे, लालची, फरेबी, धूर्त, कपटी, धोखेबाज, गद्दार, विश्वासघाती, अहंकारी, चालबाज व् षड्यंत्रकारी किस्म के लोगों से घिरा पाता है और जिस कारण उसे निरंतर संघर्षरत रहना पड़ता है ।
ऐसे नकारात्मक लोग ज्यादार नजदीकी रिश्तों के रूप में उसको किसी न किसी रूप में छलते ही रहते है,पर इन सबके कारण उसको निराश नहीं होना चाहिए।
बल्कि उन्हें ये सोचना चाहिए की "परमपिता पमेश्वर" को ऐसी निम्न अवस्था में जीने वाली 'जीवात्माओं' के उत्थान के बारे में भी व्यवस्था करनी पड़ती है।
इसीलिए वो "उच्च अवस्था' की चेतना से युक्त साधक के जीवन में इस प्रकार के निम्न श्रेणी के लोगों को नजदीकी बनाकर जन्म दे देते हैं।
ताकि उसकी गहन साधना से उत्पन्न "ऊर्जा क्षेत्र" से कभी न कभी ऐसे लोगों की चेतना विकसित हो पाये।
इस प्रकार की पीड़ाएँ एक साधक की साधना को और भी ज्यादा परिष्कृत कर उसकी चेतना को और भी ज्यादा विकसित करती हैं।
और साथ ही ऐसे साधक को "परमपिता" की अनेको शक्तियों का सनिग्ध्य भी प्राप्त होता है और अन्ततः वह मुक्त अवस्था का आनंद उठाने का अधिकारी बनता है।"
------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"
Monday, September 19, 2016
Saturday, September 17, 2016
"Impulses"---304
"Impulses"
1)"मानव की चेतना में स्थित किसी भी प्रकार का आकर्षण अन्तर्निहित कमी को ही उजागर करता है चाहे वो कमी हमारे मन में भौतिक जगत के प्रति हो या हमारी जीवात्मा में आध्यात्मिक जगत के प्रति मौजूद हो।
जब "प्रभु-साधना" के प्रताप से मानव के भीतर की समस्त प्रकार की कमियों की पूर्ती होने लगती है तब मानव आंतरिक रूप से मस्त हो जाता जाता है। और समस्त प्रकार के आकर्षणों की दीवारे ढ्हनि प्रारम्भ हो जाती हैं चाहे उसके बाहरी जीवन में कितने भी प्रकार के तूफ़ान चल रहे हों।
तृप्ति व् संतुष्टि का भाव उसकी अंतरात्मा को आच्छादित रखता है जो उसके बाहरी व्यक्तित्व से भी झलकने लगता है और असीम शांति उसके चेहरे से परिलक्षित होने लगती है।"
2)"संघर्ष शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है यानि संग+घर्षण, संग=साथ, घर्षण=रगड़ना।
अकसर हमारे मन की सोची गई बात या परिस्थिति का वर्तमान में घटित होने वाले घटनाक्रमो से मिलान नहीं हो पाता, क्योंकि हमारा मन हमारे भूतकाल का प्रतिनिधित्व करता है।
यानि मन की सोची गई स्थिति के विपरीत जब घटना क्रम घटित होता है तो मन की वर्तमान के संग लड़ाई होती है जिसके परीणाम स्वरूप हमारी चेतना में संघर्ष उत्पन्न होता होता है।
इस संघर्ष को समाप्त करने का सर्वोत्तम उपाय है अपने मन को हृदय में ही रखा जाए क्योंकि हमारा हृदय केवल सत्य से ही संचालित होता है और वर्तमान सत्य का प्रतिनिधित्व करता है।
इस प्रकार से हृदय में भूत काल व् वर्तमान काल एक दूसरे में विलय हो जाते हैं जैसे की दूध में पानी विलीन हो जाता है।यानि मन को हृदय में रखने से व्यर्थ के संघर्ष से निजात पाई जा सकती है।"
------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"
Tuesday, September 13, 2016
"Impulses'---303
"Impulse"
1) "ज्यादातर मानवों की पृकृति भी बड़ी अजीब होती है, जब मानव के पास सांसारिक सुख-सुविधाएँ व् साधन नहीं होते वो रात-दिन "परमात्मा" के आगे सर झुकाता है और अपने व् अपने परिवार को साधन-संपन्न बनाने के लिए गुहार लगाता रहता है और अपने सांसारिक कर्तव्यों का निष्ठां-पूर्वक पालन करता है ।
और जब प्रभु उसकी श्रद्धा व् परिश्रम से प्रसन्न होकर उसको उसकी आवश्यकता पूर्ण करने योग्य साधन प्रदान कर देते हैं तो इसका सारा श्रेय वह स्वम् को देने लगता है व् "परमात्मा" को भूल जाता है व् अहंकार से युक्त होकर हर स्थिति-परिस्थिति का निर्णायक खुद को ही बना लेता है ।
यह सब देखकर समस्त देव-गण बड़े ही कुपित होते हैं व् उस मानव से नाराज हो जाते हैं फिर उसकी मति को भ्रमित कर उससे प्रकृति के विपरीत उलटे-सीधे कार्य करा कर उसे फिर अपने तरीकों से कुछ सजा दिलवाते है।
ताकि वह मानव अपने अहम् को त्याग कर "प्रभु" की शरण में समर्पित हो जाए, यदि फिर भी कुछ सुधार नहीं होता तो फिर उस पर प्रकृति के कोप का भाजन बनना पड़ता है और फिर वह मानव किसी योग्य नहीं रह जाता ।"
2)"किसी को भी खुले हृदय से क्षमा करना एक मजबूरी व् कमजोरी नहीं है जो अपनी आंतरिक पीड़ा को कम करने के लिए दी जाए और न ही ये उदारता को प्रगट करने का ही साधन है।
बल्कि ये तो एक 'मातृत्व' व् 'प्रेम' की एक वास्तविक आनंदमई अनुभूति है जैसे कि माता-पिता अपनी बिगड़ी हुई संतानों के द्वारा की गई बड़ी से बड़ी गलती करने पर भी उन्हें माफ़ कर देते हैं।
परंतु क्षमा करने के बाद दूरी बनाना आवश्यक है वर्ना ये क्षमा आपकी भावनात्मक कमजोरी का पर्याय बन जायेगी और क्षमा किये गए व्यक्ति को और भी ज्यादा जानबूझ कर गलतियां करने को प्रेरित करेगी ।"
------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"
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