"आध्यात्मिक विकास के लक्षण"
अक्सर हममे से बहुत से सहजियों के मन में ये विचार कौंधता रहता है कि हमें 10-15 या इससे भी ज्यादा वर्ष हो गए हैं ध्यान का निरंतर अभ्यास करते करते।
आखिर हम कुछ आत्मिक तरक्की को प्राप्त भी हुए हैं या नहीं। यदि कुछ आंतरिक उन्नति हुई है तो कैसे जानेंगे की हम प्रगति कर रहे है या नहीं, उसका आंकलन हम किस प्रकार से करेंगे?
आखिर हम कुछ आत्मिक तरक्की को प्राप्त भी हुए हैं या नहीं। यदि कुछ आंतरिक उन्नति हुई है तो कैसे जानेंगे की हम प्रगति कर रहे है या नहीं, उसका आंकलन हम किस प्रकार से करेंगे?
मेरी चेतना के अनुसार कुछ लक्षण हमारी चेतना में, हमारे अस्तित्व में, हमारे व्यवहार में, हमारे स्वभाव में व् हमारे व्यक्तित्व में विभिन्न प्रकार के सकारात्मक परिवर्तनों के रूप में परिलक्षित होने लगते हैं।
आत्म-उन्नति का आंकलन तो हम स्वम् अपने भीतर विभिन्न प्रकार की अन्तर्निहित निम्न अवस्थाओं से स्वम् कर सकते हैं:-
1.उपलब्ध साधनों में सदा कायम रहने वाली संतुष्टि,
2.विषमतम प्ररिस्थितियों में भी निरंतर आनंदित रहने वाली चेतना की अनुभूति का यथावत रहना,
3.पर-कल्याण की भावना से ओतप्रोत मन स्थिति का सदा बने रहना,
4."श्री माँ" के प्रति पर्वत के समान दृढ विश्वास का स्थायित्व,
5.किसी भी वस्तु, व्यक्ति, पद या स्थिति को खोने के भय का पूर्णतया आभाव का होना,
6.किसी के प्रति भी ईर्ष्या, घृणा, भेदभाव, प्रतिस्पर्धा की भावना की नगण्यता का विद्यमान रहना,
7.आत्म-विश्वास व आत्म-सम्मान की भावना व् ऊर्जा से लबरेज धड़कता हुआ हृदए का बरकरार रहना,
8.सभी की ओर समान रूप से उठने वाली दृष्टि का बने रहना,
9.सभी के आत्म-कल्याण व् सम्मान के प्रति पूर्ण जागरूकता का विद्यमान होना,
10.किसी से कुछ भी वस्तु, सुविधा या सहायता प्राप्त करने की इच्छा का न होना,
11.पर-पीड़ा के वास्तविक घटनाक्रम को अपने स्वम् के भीतर घटित होने का आभास करना,
12.दूसरों की प्रसन्नता में स्वम् की प्रसन्नता का अभिर्भाव,
13.पञ्च-तत्वों में होती उथल-पुथल की प्रतिक्रिया का अपने यंत्र में घटित होना,
14."श्री माँ" से कुछ भी मांगने की इच्छा का न होना,
15. अनुकूल या प्रतिकूल स्थिति में मानसिक योजनाओं के प्रति उदासीनता का होना,
16.किसी के भी द्वारा हमारे साथ किये गए बुरे से बुरे व्यवहार या उसके द्वारा हमें पहुंचाई गई हानि के वाबजूद भी उसके प्रति किसी भी प्रकार की बदले की भावना से मुक्त रहना,
17. किसी भी किस्म के सांसारिक उद्देश्य के प्रति ललक या चिपक का अभाव होना,
18.सांसारिक उन्नति या अवनति के प्रति अत्यधिक चिंता का न होना,
19.अपने प्रिय परिजनों की किसी गंभीर बीमारी या मृत्यु पर अत्यधिक शोक में न डूबना और न ही उनकी शरीर रूप में अनुपस्थिति के प्रति छटपटाहट को महसूस करना,
20.अपनी शारीरिक बीमारियों के प्रति अत्यधिक चिंतित न होना,
21.सभी मानवों के भीतर सोई हुई 'कुण्डलिनी माँ' व् 'अप्रकाशित आत्मा' के प्रति उत्तरदायित्व महसूस करना,
22."श्री माँ"की सम्पूर्ण रचना के प्रति प्रेम-भाव व् जागरूकता का होना,
23. "परमेश्वरी" की पीड़ा व् इच्छा को अपने अन्तःकरण में समय समय पर आभासित करते रहना,
24.केवल और केवल हृदए से प्रस्फुटित होने वाली प्रेरणाओं व् संवेगों पर आधारित कार्य करना,
25.मन को अपनी 'जागृत चेतना' के आधीन रखकर सर्व-साधारण सांसारिक जीवन यापन करना,
26.निरंतर अपने चित्त व् चेतना को सभी 'सत्य-खोजियों' के आंतरिक कल्याण के लिए तैयार रखना,
27.किसी भी सामूहिकता में किसी भी कारण से शरीर रूप में उपस्थित न हो पाने के अपराधबोध से मुक्त रहना,
28.जागृति व् ध्यान के कार्यो में समय समय पर अन्य सभी सहाजियों को आगे आने का अवसर देते रहना,
29.जो भी ध्यान में प्राप्त हो उसे अन्य सभी सहाजियों के साथ निरंतर बांटते रहना,
30.अपने स्वम् के मान-मनोव्वल व् प्रशंसा से परहेज करना,
31.भूत-प्रेत, राक्षस, शैतान, हिंसक-प्राणी, व् नकारात्मक मानव के प्रति पूर्ण निर्लिप्तता का भाव का होना,
32.मानवता विरोधी समस्त कार्यो व् गतिविधियों के प्रति क्रोध व् रोष का होना,
33."परमात्मा" व् 'प्रकृति' विरोधी मानवो की समस्त बुराइयों के उन्नमूलन के प्रति पूर्ण रूप से जागरूक रहकर कार्यशील रहना,
34.अपने अतिप्रिय, प्रिय व् सभी सामान्य रिश्तों के प्रति निर्लिप्त रहते हुए अपने हृदए में प्रेममयी-भाव रखते हुए उनके सर्व-कल्याण के प्रति कर्तव्य-प्रधान जागरूकता रखना,
35.किसी भी प्रकार के सांसारिक अथवा आध्यात्मिक आकर्षणों से विरत रहना,
36.अपने यंत्र में विशेषकर अपने सहस्त्रार व् मध्य हृदए में हर प्रकार की अच्छी व् बुरी स्थिति व् प्ररिस्थिति में "श्री माँ" की 'ऊर्जा' को निरंतर महसूस करते रहना।"
------------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"
Jai Shree Mata Ji
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