"धर्म/अधर्म"
"आजकल हमारे देश में चारों तरफ व् मिडिया में धार्मिक भेद-भाव व् वाद-विवाद बढ़ते ही जा रहे हैं।
कोई सारे संसार के लोगों को मुसलमान बनाने के लिए 'जेहाद' के नाम पर 'काफिरों' का कत्लेआम करता है,
कोई 'ईसाई' बनाने के लिए पैसा बरसा कर गरीबों को खरीदता है,
कोई 'निस्वार्थ सेवा भाव' में 'गुरुबानी' के जरिये 'सिख' होने के लाभ गिनाता है,
कोई 'साधना व तपस्या' के द्वारा 'बौद्ध' बनाने की इच्छा रखता है,
कोई विभिन्न प्रकार के त्यागों व 'स्व-पीड़न' के द्वारा 'जैन' के रास्ते पर चलाना चाहता है,
तो कोई 'सनातन प्रथा' प्रचलित कर 'हिंदुओं' में शामिल करने की सोचता है।
पर इन सबमें कोई भी ऐसा नहीं जो इंसान को वास्तव में 'इंसान' बनाने की बात करता हो।
जबकि जिन 'महान' विभूतियों ने वक्त की जरूरत के मुताबिक अलग अलग काल में स्थापित इन रास्तों पर चलकर "ईश्वर" से जुड़ने की व्यवस्था की।
'उन्होंने' कभी इन सभी को धर्म का दर्जा नहीं दिया।
बल्कि 'उन सभी' ने तो केवल और केवल मानव-धर्म की ही बात की।
क्या कभी भी इन सबने ये चिंतन किया है कि,
'जीवात्मा'(रूह=Soul) खुद ही अपने लिए 'घर' और 'बाहरी धर्म' चुनती है उस 'इंसान' को जीने के लिए।"
-----------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"
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