"मानवीय चेतना का दशम आयाम"
(Tenth Dimension)
अब से लगभग 7 वर्ष पूर्व "श्री माँ" ने मानवीय चेतना के 'नवम आयाम' (23-04-11) तक लिखवाने की प्रेरणा प्रदान की थी किन्तु उस समय भी इसके बाद के आयाम के बारे में लिखने का भाव हृदय में बना रह गया था किन्तु लिखना बन नहीं पाया था।
पिछले काफी समय से भीतर में कहीं मानवीय चेतना के दशम आयाम के बारे में लिखवाने के लिए "हृदेश्वरी"लगातार प्रेरणा दे रहीं है।
अतः बारम्बार "उनके" द्वारा दिये जाने वाले मौन संकेतो के परिणाम स्वरूप आज इस चेतना के भीतर मानवीय चेतना के 'दशम आयाम' के बारे में लिखने के लिए इच्छा जागृत हो ही गई।
वास्तव में मानवीय चेतना का दशम आयाम स्थूल शरीर रहित सक्रिय अवस्था का ही द्योतक है।
यानि जब कोई जीवात्मा मृत्युप्रान्त मानव देह का त्याग करने के उपरांत भी अपने उसी मानवीय "छाया रूप"(पारदर्शी आकृति) में सक्रिय रह कर सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण के लिए प्रयासरत रहती है तब वह मानवीय चेतना के दशम आयाम को जी रही होती है।
अक्सर इस प्रकार का छाया रूप तब तक किसी भी साधारण मनुष्य को दिखाई नहीं देता जब तक वह छाया रूपी चेतना दिखाना न चाहे।
किन्तु इस प्रकार का छाया रूप अधिकतर इंफ्रारेड कैमरा, इंफ्रारेड दूरबीन, नाईट विजन सी सी टी वी कैमरा व फ्लैश गन के इस्तेमाल के साथ खींचे गए फोटो में अथवा टीवी मॉनिटर पर आ सकता है वो भी जब यदि वो चेतना चाहे तो।
क्योंकि इस प्रकार के अदृश्य रूप प्रकाश के कणों में विभक्त होने के कारण प्रकाश की गति से भी तीव्र गति से विचरण करते है। और जब ये कण संगठित हो जाते हैं तो पारदर्शी छाया रूप में प्रगट होते हैं।
जो साधारण मानव की आंखों से दिखाई नहीं देते।ये केवल और केवल विभिन्न प्रकार के प्रकाशों के द्वारा ही दर्शनीय हो पाते हैं।क्योंकि प्रकाश की गति भी अत्यंत तीव्र होती है।
और कभी कभी इस स्तर तक पहुंची हुई चेतना सच्चे मानवो की मदद करने के लिए कुछ काल के लिए प्रकाश के कणों को पंच तत्वों की सहायता से कुछ काल के लिये स्थूल अणुओं में परिवर्तित कर स्थूल शरीर का आवरण बना कर उसे धारण कर लेती हैं।
ताकि साधारण किन्तु अच्छे हृदय के जिस मानव की वह मदद कर रही है उसे असुविधा न हो अथवा वह डर न जाय।
हालांकि ये अवस्था उच्च दर्जे के साधकों/साधिकाओं के द्वारा शरीर रहते हुए भी प्राप्त की जा सकती है।
ऐसी विलक्षण चेतनाएं विभिन्न स्थानों पर एक साथ प्रगट होकर सद कार्यो को अंजाम भी दे सकती हैं।
और यदि "परमात्मा" के अवतार धरती पर मानव देह में अवतरित होते हैं तो उनके पास तो ये शक्तियां पहले से ही मौजूद होती हैं।
जैसे कई बार "श्री भोले नाथ" का त्रि 'आयामी अक्स' "श्री कैलाश पर्वत" पर जाने वाले श्रद्धालुओं के कैमरों में भी परिलक्षित हुआ है।
और सहजियों ने तो अक्सर "श्री माता जी" को हाल फिलहाल में भी विभिन्न सहज के कार्यक्रमो में कैमरे से लिये गए चित्रों में भी देखा है।
वैसे "श्री माता जी"
"अपने" 'साक्षात शरीर काल' में भी अपने पारदर्शी छाया रूप में कई बार सहज के अनेको कार्यक्रमों में सहजियों के द्वारा कैमरे से लिए गए चित्रों में परिलक्षित होती ही रहीं हैं।
चेतना के इस दशम आयाम में रहने वाली चेतनाओं को हम दो भागों में विभक्त कर सकते है।
प्रथम-उच्च दर्जे के साधक/साधिकाओं की चेतनाएं(Higher
Being):-
ये वो मुक्त चेतनाएं होती हैं जो केवल और केवल मानव जाति के कल्याण व उनके उत्थान के लिए अपनी स्वतंत्र इच्छा से कार्य करती हैं।
जैसे "ईश्वर" के विभिन्न अवतार, पीर, पैगम्बर, सद गुरु, सन्त, ईश्वर के सच्चे भक्त, सुंदर हृदय के मानव जो शरीर का कार्य काल समाप्त होने के बाद भी छाया रूप/स्थूल रूप अपना कर समय समय पर अच्छे व सच्चे लोगों की मदद करते रहते हैं।
बहुत से उच्च दर्जे की चेतना के "श्री माँ" के बच्चे भी अपने शरीर की यात्रा पूर्ण करने के उपरांत इस दशम आयाम में रहकर स्थूल शरीर रहित अवस्था को प्राप्त कर "श्री माँ" की अनुकंम्पा से चेतना के कार्यो में संलग्न रहेंगे।इसका भी अभास इस चेतना को है।
इस प्रकार की उच्च दर्जे की चेतनाओं के चेहरे से तेजस्विता व ओजस्विता टपक रही होती है और इनका स्वरूप धवल होता है।
मेरे एक 70 साल के अंकल पड़ोसी हुआ करते थे और वो "साईं बाबा" के भक्त थे किंतु शराब पीने के वो आदि थे।
वो अक्सर बताते थे कि साईं बाबा आकर उन्हें डंडे से पीटते हैं और शराब पीने से मना भी करते हैं।
ऐसा ही एक जिक्र "श्री माता जी" ने अपने एक लेक्चर में "श्री भैरव बाबा" के लिए भी किया है कि वो एक "माँ" के भक्त के बाग की रखवाली किया करते थे।एक बार "उन्होंने" फल चुराने के लिए आये चोरों को भी खूब पीट पीट कर भगा दिया था।
द्वीतीय-निम्न स्तर की चेतनाएं(Lower Being) जो केवल और केवल सांसारिक मोह, वासना, लिप्सा, अतृप्ति व अधूरी इच्छाओं के कारण मुक्त नहीं हो पाती।
वो भी अक्सर छाया रूप में विद्यमान रहती हैं और समय समय पर लोगों को कभी पारदर्शी छाया रूप में तो कभी स्थूलता के आवरण में भी दिखाई देती हैं।
किन्तु इस वर्ग की निम्न स्तर की चेतनाओं का स्वरूप काला व निस्तेज होता है। इनके चेहरे के भावों में खिन्नता, उदासी, दुख, पीड़ा, आक्रोश, उदग्विनता व क्रोध आदि नजर आ सकता है।
इस प्रकार की चेतनाएं भूत, प्रेत, पिशाचों व जिन्नों के वर्ग में आती हैं। इस सम्बंध में इस चेतना का हृदय आप सभी के साथ कुछ अपने स्वम् के कुछ पुराने अनुभव शेयर करने का कर रहा है।
प्रथम अनुभव:-इस दशम आयाम की अवस्था का सबसे प्रथम अनुभव इस चेतना को तब हुआ जब इस चेतना की शारीरिक आयु 15-16 वर्ष की रही होगी, उस वक्त(1978-79) ये चेतना सांसारिक रूप में हाई स्कूल की पढ़ाई से गुजर रही थी।
और ये चेतना जीवन के उस दौर में चेतना के आयाम जैसे गूढ़तम विचार व सोच के बारे में तो कोई कल्पना भी करने योग्य नहीं थी।
तब तक इस चेतना को साक्षात "श्री चरणों" में रहने का अवसर प्राप्त भी नहीं हुआ था।इस चेतना को "श्री चरणों" में रहने की कृपा "श्री माँ" ने मार्च 2000 में प्रदान की थी।
लगभग गर्मी के दिन चल रहे थे और घर में मेरी चचेरी बहन की शादी की तैयारी चल रही थी।
मैं अपने पारिवारिक मकान के कमरे में शाम के साढ़े छह-सात बजे के करीब लेटा हुआ शादी की तैयारी से सम्बंधित विचार कर रहा था।
तभी मैंने देखा कि बन्द दरवाजे से एक छाया रूपी एक पुरुष की आकृति कमरे में आई और ड्रेसिंग टेबल के सामने जा कर खड़ी हो गई और अपने को कुछ सैकिंड तक निहारती रही।
और फिर अपने बालों में कंघी करने लगी। यह देखकर मेरे होश उड़ गए, भय की तीव्र लहर मेरे अन्तर्मन को झकझोर गई।
मैंने जोर से चिल्ला कर किसी को बुलाना चाह किन्तु मेरे कंठ से आवाज भी नहीं निकल पाई साथ ही मेरे हाथ पांव एक दम जम से गए थे।
लगभग एक डेढ़ मिनट तक वह आकृति शीशे के सामने खड़े होकर अपने बाल संवारते हुए अपने को निहारती रही और उसके बाद उस काले रंग की आकृति ने मेरी तरफ देखा और फिर वो उसी दरवाजे से बाहर निकल गई।
मैंने महसूस किया कि मेरा पूरा शरीर पसीने से भीग गया था और मेरे हाथ पांव बिल्कुल ठंडे हो गए थे और हिलडुल भी नहीं पा रहे थे और मेरा हृदय बुरी तरह धक धक कर रहा था।
किसी तरह हिम्मत जुटा कर मैं बाहर निकला किन्तु मैंने ये बात किसी को भी नहीं बताई क्योंकि कोई यकीन नहीं करता।
किन्तु आज इस स्मृति के आधार पर कह सकता हूँ कि मेरा सामना एक जीवात्मा से हुआ था जो शायद मेरे स्व.ताऊ जी की रही होगी, क्योंकि उन्ही की पुत्री की शादी होने जा रही थी।
शायद मेरे जन्म से भी पहले वो कम उम्र में मृत्यु को प्राप्त हो गए थे, अतः अपनी पुत्री की शादी में उनकी जीवात्मा प्रसन्न हो रही होगी ।मुझे बाद में पता लगा कि वो उसी कमरे में रहा करते थे।
द्वीतीय अनुभव:-दूसरी घटना भी उसी घर की है, सन 1984 में मैं स्नातक की पढ़ाई कर रहा था, हमारा पूरा परिवार प्रथम तल पर खुले आकाश के नीचे रात्रि में सो रहा था।
प्रथम तल पर जो खुली छत थी उस पर एक कमरा था और दो कमरे उस छत के उत्तर दिशा की ओर बने थे जिन पर पहुंचने के लिए दो साइड के छज्जो से गुजरना पड़ता था, और दोनों छज्जो की बीच में खुला चौंक था।
अचानक मेरी बहन की डरी हुई चीख से मेरी निद्रा खुली और मैं तेजी से उठा तो मैने सफेद कुर्ता पजामा पहने एक आकृति को बायें छज्जे के द्वारा जाते हुए देखा।
मुझे लगा कि कोई चोर हमारे घर में छत से उतर आया है जिसको मेरी बहन ने देख लिया है।पहले जमाने में ज्यादातर घर आपस में मिले मिले ही होते थे।
मैंने तुरंत सिरहाने पर रखा हुआ डंडा जो बंदरों के लिए रखा हुआ था, उसको उठा कर उस सफेद आकृति की ओर दौड़ा।
अचानक मेरे देखते ही देखते वह आकृति कमरे की दीवार के पास अदृश्य हो गई, उसके बाद हमने सारे कमरे व घर खोज डाला किन्तु उसका कोई आता पता नहीं चल पाया।
उस समय ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे वो सफेद साया दीवार में समा गया हो, कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि वो कहाँ गया।
सुबह जब ये चर्चा हमने परिवार के अन्य सदस्यों से की तो उन्होंने बताया कि हमारा ये घर 100 वर्ष से भी ज्यादा पुराना है और ऊपर के उस कमरे में एक पीर बाबा का आला है और एक आला धरती तल पर भी मौजूद है।
शायद हमने उन्ही पीर बाबा को सफेद आकृति के रूप में देखा होगा, वो किसी को भी कष्ट नहीं देते हैं बल्कि उल्टे कठिन समय में सहायता ही करते हैं।
हालांकि मैं उस वक्त भी किसी भी प्रकार के भूत, प्रेत व आत्माओं में विश्वास नहीं करता था। और न ही मुझे इस प्रकार की घटनाओं व बातों से कभी डर ही लगता था।किंतु इन दो सच्चे अनुभवों ने मुझे कुछ न कुछ सोचने पर मजबूर अवश्य कर दिया।
तृतीय अनुभव:-मेरे जीवन का बड़ा ही विलक्षण अनुभव 1995 में हुआ जब घर से किसी गम्भीर समस्या होने के बारे में फोन आया और मैं अपने कार्य स्थल से अपनी यजदी बाइक पर घर जा रहा था।
जल्दी पहुंचने के लिए मैंने छोटा गलियों वाला रास्ता पकड़ा था, उन्ही में से एक स्थान खैर नगर के नाम से जाना जाता है।
जैसे ही सोच विचार करता हुआ मैं उस स्थान से गुजरा, अचानक मेरे कानों में आवाज पड़ी, 'अरे भई रुकना'।
ये सुनकर तुरंत मैंने ब्रेक लगाए और पीछे मुड़कर देखा कि एक लंबे तगड़े प्रभाव शाली मुस्लिम बुजुर्गवार शानदार काली शेरवानी व सफेद टोपी पहने खड़े हैं।
उनके दमकते हुए चेहरे पे सन जैसी झक सफेद दाड़ी चमक रही थी, चेहरे का रंग उजला गुलाबी था और उनके चेहरे से तेज टपक रहा था। ऐसा प्रतीत होता था मानो वह किसी काफी राइस खानदान से ताल्लुक रखते थे।
जब मैंने उनकी तरफ देखा तो उन्होंने मुझ से पूछा कि क्या मुझे आप कुछ दूर तक छोड़ दोगे, सदा की तरह मैंने हामी भरने वाले अंदाज में सिर हिलाया और उन्हें पिछली सीट पर बैठा लिया।
बैठते ही उन्होंने मुझसे पूछा कि कहाँ जा रहे हो तो मैंने बताया कि कुछ घर में अचानक परेशानी आ गई है तो मैं वहीं जा रहा हूँ।
तब उन्होंने कहा कि सब ठीक हो जाएगा, तब मैंने भी उनकी बातों का अनुमोदन करते हुए कहा कि हां सब "प्रभु" ठीक कर देंगे।
ये सुनते ही वो बड़ी जोर से खिल खिला कर हंसे, उनकी हंसी मुझे कुछ अलग व अजीब सी लगी किन्तु मेरा मन घर की परेशानी पर ही था तो मैंने ज्यादा गौर नहीं किया।
किन्तु मन में जरूर सोचा कि मैंने तो ऐसी कोई बात ही नहीं की जिससे उन्हें इतनी जोर से हंसी आये। लगभग आधा किलोमीटर के बाद उन्होंने मेरे कंधे को थपथपा कर बोला मुझे यहीं उतार दो, ये स्थान बुढ़ाना गेट का चौराहा कहलाता है।
मैंने तुरंत ब्रेक लगया और मोटर साइकिल रोक ली, उतरकर उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या तुम्हारे पास दो रुपये हैं।
तब मैंने अपनी जेब पर हाथ लगा कर सिक्के टटोले और न पाकर उनसे कहा कि बाबा इस वक्त जेब में नहीं हैं।
तब उन्होंने मुस्कुराकर कहा कि कोई बात नहीं, मुझे जल्दी भी थी तो मैंने तुरंत गियर डाल कर आगे बढ़ने की सोची।तभी मेरा मन उनको एक बार देखने का किया।
जैसे ही मैंने नजर घुमा कर उनको देखना चाहा तो मुझे नजर नहीं आये, मात्र दस सैकिंड से कम समय में ही मैंने अपना चेहरा उनकी तरफ कर लिया था, मुझे बड़ा आशचर्य हुआ था कि वो अचानक कहाँ अंतर्ध्यान हो गए थे।
क्योंकि मैंने उन्हें बीच चौक में उतारा था और उस स्थान से वो किसी भी दिशा में जाएंगे तो वो कम से कम आधा एक मिनट तक दिखाई अवश्य देंगे।
खैर मेरा मन परेशानी में उलझा था तो ज्यादा न सोच कर मैं पुनः घर की ओर रवाना हो गया।
घर पहुंच कर मैंने जाना कि उस गम्भीर समस्या का स्वतः ही समाधान हो चुका था। और मेरे कानों में उनकी बात व खिलखिलाती हंसी गूंज रही थी।
कुछ तो जरूर अजीब था जो मुझको उस समय समझ नहीं आ रहा था।कुछ समय बाद मैं ये घटना पूरी तरह भूल गया।
इसके लगभग दो वर्षों बाद मेरी मुलाकात किसी सिलसिले में एक एक सूफी जी से हुई जो पूरी सच्चाई के साथ इबादत किया करते थे और कई कई महीनों के लिए दूसरे देशों में जमातों के जरिए जाया करते थे।
वो मुझे इस्लाम के बारे में काफी बाते बताया करते थे क्योंकि मेरी सभी धर्मों के बारे में जानने की रुचि पहले से ही हुआ करती थी।
हालांकि मैं बाह्य रूप से बिल्कुल भी धार्मिक नहीं था और न ही मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे व चर्चो में विश्वास ही करता था।किंतु मेरे हृदय में सभी का पूर्ण सम्मान अवश्य रहता था।
किसी भी मजहब का मैंने कभी अपमान या अवहेलना नहीं की, परंतु किसी का कभी अनुसरण भी नहीं किया।
एक तरीके से मैं तथाकथित रूप से नास्तिक ही रहा हूँ, किन्तु मेरा उस 'अदृश्य' 'शक्ति' पर सदा पूर्ण विश्वास था जो ब्रह्मांड को चलाती व सभी का लालन-पालन करती है।
इसीलिए मेरे कोई भी धार्मिक संस्कार नहीं रहे हैं और न ही मैं किसी भी प्रकार के धार्मिक रीति-रिवाज में कभी विश्वास ही किया है।
उस काल में भी मैं केवल 'मानवता' के धर्म को मानता था और आज भी सर्वप्रथम स्थान मेरे हृदय में मानवता के धर्म का ही है।
मेरे लिए मेरा "भगवान" 'माता प्रकृति ही थीं, और इस रचना की समस्त रचनाएं, यानि, वृक्ष, नदी, पहाड़, समुंदर, आकाश, धरती, परिन्दे, समस्त जीव-जंतु मेरे शिक्षक ही रहे थे।
इसीलिए मेरे हृदय के कोरे पन्ने पर केवल और केवल "श्री माता जी" का ही नाम लिखा गया है, इस जन्म की "वही" मेरी प्रथम व अंतिम "ईश्वर" हैं।
अतः ये चेतना किसी भी प्रकार के धार्मिक कर्मकांड, बंधनो, शुभता-अशुभता आदि विचारों से सदा मुक्त ही रही है और आज भी मुक्त है।
हां ये चेतना अत्यंत जिज्ञासू रही थी, हर प्रकार की गूढ़ चीजो को जानने व समझने की अनंत इच्छा से परिपूर्ण थी।
इसीलिए मैं उनसे अक्सर पूछा करता था कि आप जमातों में जाकर क्या करते हो तो वो बताते थे, 'कि हम आसमान से ऊपर व जमीन के नीचे की बाते किया करते हैं।'
तो मैं उनसे कहता था कि मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा, तब वो कहते थे, 'कि यदि तेरी यही लगन बनी रही तो एक दिन सब कुछ समझ में आने लगेगा।इन सभी को समझने के लिए इस तरफ की पढ़ाई करनी पड़ती है।'
ये बात मुझे उनकी उस वक्त कभी भी समझ नहीं आती थी, किन्तु "श्री माँ" की कृपा और उनकी शुभकामनाओं से आज सभी कुछ काफी हद तक समझ आने लग गया है।
आज वो संसार में मौजूद नहीं हैं किंतु उनकी चेतना मुझे आज उनके बारे में लिखने की प्रेरणा दे रही है। वो बहुत ही रहम दिल व अच्छे इंसान थे।
वो अपनी इबादत के स्तर पर लोगों की काफी मदद किया करते थे, बहुत सारे लोग उनका काफी सम्मान किया करते थे।
रोजों के समय वो देसी घी, प्याज तक खाना छोड़ देते थे, वो कहते थे कि इन सब चीजों से 'अल्लाह' की इबादत में मुश्किल आती है और हमारा मन भटकता है।
उनसे बात करते करते अचानक एक दिन मैंने उनसे उन 'बुजुर्गवार' वाली घटना का जिक्र किया तो तुरंत उन्होंने अपनी आंखें बंद कर लीं और दो मिनट तक ध्यानस्थ रहे।
उसके बाद आंख खोलकर बोले, 'अरे यदि तूने उन्हें दो रुपये दे दिए होते तो तेरा और भी ज्यादा कल्याण हो जाता।
पता भी है तुझे कि वो कौन थे, अरे वो तो रखवाले थे, वो 'छतरी वाले पीर' थे, तेरी परेशानी को हल करने के लिए ही तेरे पास आये थे।
तब मैंने उनसे कहा बाबा मैं तो कभी भी किसी पीर आदि में विश्वास नहीं करता तो वो बोले इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता।
ऊंचे दर्जे के लोग तो ऐसे ही सबकी मदद करते रहते हैं, जरूर तेरे कर्म बहुत अच्छे रहे हैं जो वो तेरी मदद करने के लिए कुछ देर तेरे साथ रहे।
उन सूफी जी के साथ "श्री माँ" के "श्री चरणों" में आने तक मेरा मिलना जुलना बना ही रहा और वो मुझे अपने मत के बारे में अनेको जानकारियां व अनुभव देते रहे।
"माँ" की शरण में लाये जाने के उपरांत मैं "श्री माँ" के प्रेम में खोता ही चला गया, समस्त प्रकार की मित्र मंडली से मैं हट गया और रात दिन "श्री माँ" के प्रेम प्रसारण में ही निकलते गए।
लगभग दो वर्षों के बाद मैं उसी सड़क पर किसी काम से जा रहा था तो मेरे हृदय में आया कि मैं उन सूफी जी के पास होता चलूं।
जब उनके बारे में उनके लड़के से पूछा जो बाहर सड़क पर एक दुकान चलाता था, कि वो कहाँ हैं तो उसने बताया कि बाबा तो कई महीनों से बेहद बीमार हैं और वो तो बिस्तर से भी उठ नहीं पाते हैं।
तब मैंने तुरंत उनसे मिलने के लिए कहा और उनके घर चला गया, जिस कमरे में वो लेटे थे, "श्री माँ" ने चित्त के माध्यम से उनके सूक्ष्म यंत्र पर कुछ देर तक मौन अवस्था में कार्य करवाया फिर मैंने उनको पुकारा, मेरी आवाज वो पहचान नहीं पाए।
तो उन्होंने पूछा, कौन है,' तब मैंने उन्हें अपना परिचय दिया तो वो पहचान गए और बोले,'अरे बहुत दिन बाद आया है। तब मैंने उनसे कहा कि बाबा मुझे रास्ता मिल गया है जिसके बारे में आप मुझे आशीर्वाद देते थे।
ये सुनकर वो बहुत प्रसन्न हुए, और अपने आप उठकर बैठ गए, उनके घर वाले बड़े हैरान हुए कि जो इंसान पिछले कई महीनों से बैठ नहीं पाया वो कैसे बिस्तर से उठकर बैठ गया और खुश दिखाई दे रहा है।
प्रसन्न होकर उन्होंने अपनी पत्नी से चाय बनाकर लाने के लिए कहा और मेरे से पूछा, 'कि तू क्या करता है, तेरे आने के बाद मेरा मन बहुत खुश हो रहा है।
मैं तो बड़ी ही चिंता में घिर गया था कि अपनी मौत के बाद मैं कहाँ जाऊंगा, इसी चिंता में मैं बहुत बीमार पड़ गया।
तब मैंने उन्हें "श्री माँ" का चित्र दिखाते हुए सूक्ष्म यंत्र व कुण्डलिनी के बारे में उन्ही की भाषा(उर्दू) में बताया तो वो एकदम खुश हो गए बोले पचासियों साल बाद मैंने 'बुर्राख' (कुण्डलिनी) के बारे में सुना है, जब मैं रूहानी तालीम हांसिल कर रहा था तब मैंने इसके बारे में पढ़ा था।'
'आज मैं तेरे मुंह से 'इसके' बारे में सुनकर बहुत खुश हो गया हूँ, ऐसा लग रहा है कि मैं बीमार ही नहीं हूँ, ऐसा लगता है कि अब मेरे को किसी भी तरह की चिंता नही रह गई है।'
इसके बाद "श्री माँ" ने उनको कुछ देर तक ध्यान करवाया जिसके बाद उन्हें और भी अच्छा लगने लगा।
मेरे यंत्र में उनके यंत्र की प्रतिक्रियाएं
प्रकट हो रहीं थीं जो पूर्ण सन्तुलन व 'कुण्डलिनी माँ' के सहस्त्रार में आने की कहानी बयां कर रहीं थीं।
इस प्रक्रिया के बाद मैंने उनको बताया कि जब भी आपको कुछ परेशानी लगे तो अपने दिल व सर पर अपना मन रख कर 'अल्लाह' को कुछ देर तक याद कर लेना या इसी अवस्था में अपने तरीके से इबादत कर लेना।
ये सब कुछ बता कर मैंने उनसे इजाजत मांगी और कहा कि मैं कुछ दिन बाद फिर से मिलने आऊंगा।
भीतर ही भीतर मेरी चेतना अत्यंत प्रसन्न हो रही थी कि "श्री माँ" ने एक और जीवात्मा को अपने "श्री चरणों" में स्थान दे दिया।
बहुत सारे आशीर्वाद व दुआएं सूफी बाबा ने मुझें चलते हुए दीं, जिसकी अनुभूति मुझे अभी भी ये सब लिखते हुए हो रही है।
वास्तव में "श्री माँ" के "श्री चरणों" में स्थित उनकी चेतना ही मेरे माध्यम से अपना संदेश इस लेख के माध्यम से आप सभी तक पहुंचाने की प्रेरणा दे रही है।
मानवीय चेतना के अगले आयामो में इस स्थिति का जिक्र विस्तार से किया जाएगा, अभी तो ये सब एक कहानी के रूप में आप सब के सम्मुख आ रहा है।
क्षमा कीजियेगा कि सूफी जी का जिक्र कुछ लंबा हो गया है किंतु कहीं न कहीं इस जिक्र में "श्री माँ" की इच्छा छुपी है।
केवल और केवल "श्री माँ" ही मेरी समस्त हृदयगत प्रेरणाओं का एक मात्र स्रोत हैं।"उनके" "श्री चरणों" में बैठ कर ही ये सब "श्री माँ" के द्वारा लिखवाया जा रहा है।
कुछ दिनों के बाद जब मैं पुनः सूफी जी से मिलने गया तो पता लगा कि वो मेरे मिलने के दो तीन दिन बाद तक स्वस्थ रहे थे और स्वस्थ अवस्था में ही गुजर गए थे।
मेरी चेतना जान गई थी कि "श्री माता जी" ने उनकी समस्त चिंताओं व पीड़ाओं को हर कर उन्हें अपने "श्री चरणों" में स्थान दे दिया था।
आज भी कहीं वो मानव देह में अवश्य मौजूद होंगे और "श्री माँ" के प्रेम का प्रसारण कहीं न कहीं जरूर कर रहे होंगे।
चतुर्थ अनुभव:-सन 2004, माह जुलाई में एक बहुत ही अदभुत अनुभव "श्री माँ" ने करवाया जो एक प्रकार से मृत्युपरांत ही होता होगा।
उन दिनों सावन के दिन चल रहे थे और कांवड़ यात्रा जारी थी जगह जगह बैरियर व बैरिकेडिंग लगे हुए थे में लगभग सांय 7 बजे के करीब मोटर साइकिल से घर जा रहा था।
अचानक सामने से आते किसी वाहन तीव्र रौशनी मेरी आँखों पर पड़ी और मेरी आँखें चुनध्या गईं जिसके कारण कुछ सैकिंड के लिए कुछ भी दिखा नहीं।
जब आंखे नार्मल हुईं तो मेरे सामने लोहे का बैरियर आ गया और मेरा दांया घुटना रोड बैरियर से जोर से टकरा गया और उसका वैल्डिंग भी टूट गया।
टक्कर काफी जोर से हुई थी क्योंकि मेरी बाइक की रफ्तार 70 की रही होगी।असहनीय पीड़ा ने मेरे पूरे शरीर को झकझोर दिया था।
जैसे तैसे मैं घर वापस आया और अपने घुटने को पानी की धार के नीचे 10-15 मिनट तक रखा,क्योंकि मुझे लगा कि गुम चोट लग गई है।फिर आकर अपने बैड पर लेट गया।
अब दर्द बढ़ने लगा था तो मैंने थोड़ा हल्दी वाला दूध पिया व इसके बाद अपने फोन डॉ का नम्बर तलाशने के लिए उठाया।
तभी यकायक मेरे हृदय में एक विचार आया कि चलो आज देखते हैं कि इस देह में कितना दर्द हो सकता है और मैं कितना सह सकता हूँ।
तो फिर क्या था मैंने फोन रख दिया और अपने चित्त को अपने सहस्त्रार व मध्य हृदय पर रखकर पुनः लेट गया।
जैसे जैसे समय बीतता गया वैसे वैसे दर्द बढ़ता ही गया और एक स्थिति ये आ गई कि मेरे मुख से कराहट निकालनी प्रारम्भ हो गई।
मैंने अपने घुटने की ओर देखा तो वो डबल हो चुका था और चारो ओर लाली नजर आ रही थी, उसकी स्थिति देख कर अब मुझे एहसास हुआ कि चोट काफी अच्छी खासी लगी है।
खैर मुझे को दर्द का भरपूर अनुभव करना था सो इस बात पर ज्यादा गौर नहीं किया बल्कि और उल्टा ही सोच रहा था कि दर्द थोड़ा और बड़े तो देखूंगा कि कैसा लगता है।
असहनीय दर्द का सिलसिला
"श्री माँ" के निरंतर स्मरण के साथ सुबह 4 बजे तक चलता रहा और फिर कम हो गया और एक समय आया कि दर्द होना बंद हो गया और मुझे नींद आ गई।
सुबह आंख खुली तो देखा घुटने की सूजन में और भी इजाफा हो गया था।अतः 9 बजे के करीब मैंने एम्बुलेंस मंगवाई और हड्डी की डॉ के पास पहुंच गया।
एक्सरे हुआ तो पता लगा कि घुटने की प्याली के 6 टुकड़े हो गए थे और प्याली का कन्टूर पूरी तरह बिगड़ गया था।
तब डॉ ने मेरा पर्चा बनाने के लिए पैन उठाया और मुझसे पूछा कि रात मे कौनसी पेनकिलर ली थी, तो मैंने मना कर दिया, तब उसने कहा तो इंजेक्शन लगवाया होगा, उसका नाम बता दो, मैंने उसको इस पर भी मना कर दिया।
तब उसने पैन नीचे रख दिया और हैरानी से बोला कि 14 घंटे इस हालत में कैसे बिताए, 'या तो तुम देवता हो या फिर शैतान हो', इतना दर्द कोई इंसान कैसे सह सकता है।'
पर मैं उसे अपना अनुभव कैसे समझता, इसीलिए मैंने कहा' हाँ, मुझपर एक "देवी माँ" की कृपा है।
फिर उसने मुझसे कहा कि चलो अब आपको ऑपरेशन कराना होगा क्योंकि आपके घुटने की प्याली बिल्कुल टूट गई है तो इसमें स्टील की प्याली डालनी होगी।
यह सुनकर मैंने डॉ से निवेदन किया कि आप इसमें स्टील न डालें और ऐसे ही प्लास्टर चढ़ा दें।यह सुनकर वो नाराज हो गया और बोला डॉ मैं हूँ या आप।
खैर जैसे तैसे अनु विनय करके मैंने उन्हें मना लिया तो वो बोले ठीक है मैँ तीन दिन के लिए कच्चा प्लास्टर चढ़ा देता हूँ ।
यदि इसमें कुछ सुधार नहीं हुआ तो मैं तीन दिन के बाद स्टील की प्याली डाल दूंगा।किन्तु आपको एक मिनट के लिए भी इसे हिलने नहीं देना है।
मैंने मन में सोचा चलो तीन दिन तक तो जान छूटी, इसके उपरांत मैं एम्बुलेंस से घर वापस आ गया।
दूसरे दिन घुटने में अत्याधिक दर्द हो रहा था और मैं गहन ध्यान में ध्यानस्थ था, सारे शरीर में ऊर्जा दौड़ रही थी बड़ा ही आनंद आ रहा था।
अचानक मुझे महसूस हुआ कि कोई एक इंच मोटी गांठ मेरी दाईं विशुद्धि से निकल कर मेरी पिंगला नाड़ी से गुजरती हुई मेरी टांग पर होती हुई घुटने के पास आकर रुक गई। जैसे एक छोटी से चुहिया चादर के नीचे दौड़ती है।
और लगभग 45 सैकिंड तक मेरी चोट वाली जगह को बहुत जोर जोर से वाइब्रेट करती रही और फिर गायब हो गई।
तब मैंने महसूस किया कि मेरे घुटने का दर्द बिल्कुल गायब हो गया था।विशुद्धि की "दिव्य ऊर्जा" ने मेरे दर्द को हर लिया था। ये वृतांत इसलिए जोड़ा गया है क्योंकि ये भी एक कड़ी है मेरे अगले अनुभव की।
अगले दिन 12-1 बजे दिन में मैँ बिस्तर मैं लेटा हुआ खुली आँखों से कुछ अपने कार्य से सम्बंधित विचार कर रहा था कि अचानक मैंने देखा कि मेरा शरीर मेरे स्थूल शरीर से बाहर निकल गया और बिस्तर के ऊपर से तैरता हुआ जमीन पर जाकर आगे को सरकने लगा।
यह देखकर एकदम से कुछ नहीं सूझा और मैंने जोर से घर के लोगों को आवाज देनी चाही किन्तु आवाज गले से निकली नहीं पाई।
बड़ा अजीब सा लग रहा था मैं स्वम् को अपने शरीर से बाहर देख पा रहा था। कुछ ही सैकिंड में मैँ पुनः अपने शरीर मैं वापस आ गया था।
शायद मैंने स्वयम की जीवात्मा को छाया शरीर के रूप में अपने स्थूल शरीर से बाहर निकल कर इस अवर्णीय अनुभव को महसूस किया था।जो अनुभव शायद शरीर की मृत्यु के समय का होता होगा।
इसके अगले दिन मैँ डॉ के पास गया तो पुनः एक्सरे होने पर पता चला कि लेशमात्र भी सुधार नहीं हुआ है।
डॉ ने फिर से स्टील डालने की बात कही किन्तु मैंने फिर मना करते हुए कहा कि मैं अपने रिस्क पर स्टील नहीं डलवा रहा हूँ यदि आप चाहें तो मैं लिखकर दे सकता हूँ।
जैसे तैसे डॉ साहेब मान गए और उन्होंने ये कहते हुए पक्का प्लास्टर चढ़ाया की तुम मुझे फिर से 45 दिन बाद तंग करोगे।
45 दिन के बाद जब प्लास्टर कटा तो टांग देखकर डॉ साहेब भौंचक्के रह गए, बोले इसकी हालात देखकर तो ये लग ही नहीं रहा है कि इस टांग में 45 दिन तक पंजे से लेकर जंघा तक प्लास्टर भी चढ़ा होगा।ये तो एक दम फ्रेश दिखाई दे रही है।
उनकी बात सुनकर मैं मुस्कुराया और फिर मैंने उनको "श्री माता जी" के व सहज योग के बारे में बताया।उसके बाद उन्होंने अपने क्लीनिक पर ही आत्म साक्षात्कार प्राप्त किया।
मेरा एक और अनुभव अभी अभी मुझे याद आ गया है जिसको मैँ इस लेख में जोड़ने जा रहा हूँ।
पांचवा अनुभव:-ये भी (2005)अपने आप में बहुत ही अनोखा अनुभव था, मेरे मित्रों में से एक परिवार सिख धर्म को मानने वाला रहा है और उस मित्र की माता के साथ मेरी सदा आध्यात्मिक विषयो पर बाते होती रहती थीं।
क्योंकि वो आंतरिक रूप से काफी जागरूक थीं, एक दिन उन्होंने मुझसे कहा कि चलो प्रथम मंजिल पर चलते हैं वहां अपने एक कमरा बनवाया हुआ है जहाँ 'प्रकाश' किया हुआ है।
सिख मत में प्रकाश करने का मतलब "श्री गुरु ग्रंथ" साहिब की उपस्थिति व स्थापना होती हैं जंहा पर नित्य परिवार में से कोई न कोई गुरुबानी का उच्चारण व सुमिरन ध्यान करता है।
अतः हम तीन चार लोग उस कमरे में पहुंच गए और वहां बैठ गए, वहां के वातावरण को महसूस कर मेरा हृदय ध्यान में उतरने का करने लगा।
तब मैने आंटी जी से अपने हृदय की बात बताई तो वो भी खुश हो गईं, तब हम सभी ने आंखे बंद कर लीं और ध्यान में उतरने लगे।
जैसे ही ध्यान प्रारम्भ हुआ बहुत ही आनन्द दाई ऊर्जा ने मेरे सम्पूर्ण अस्तित्व को अपने आगोश में ले लिया और सूक्ष्म यंत्र के विभिन्न स्थानों पर विभिन्न प्रकार की ऊर्जामयी हल्चलें मेरे सम्पूर्ण यंत्र को तरंगित करने लगीं और मेरा अन्तर्मन भी एक सुखद अलौकिक एहसास में डूबने लगा।
सभी प्रकार के विचार धीरे धीरे इस निरानंद की समाधी में समाने लगे और निर्विचारिता की कोपलें मेरी चेतना व जागृति को आडोलित करने लगी और मेरा बाह्य अस्तित्व पूर्णतया मिटता हुआ प्रतीत होने लगा।
न जाने कितना समय इस अलौकिक आंतरिक आनंद में गुजर गया और धीरे से मैंने आंख खोली तो अपने बाईं साइड में एक सफेद वस्त्रों में एक आकृति को बैठे हए आभासित किया जिसकी सफेद टोपी व सफेद दाढ़ी भी परिलक्षित हो रही थी।
यह दृश्य देखते ही एक तेज चैतन्य का स्फूर्ति दायक झोंका मेरे सम्पूर्ण बाह्य अस्तित्व को सराबोर कर गया और मेरे समस्त रोम छिद्र खड़े हो गए और मेरा मध्य हृदय तेजी से धड़कने लगा।
साथ ही मेरे सूक्ष्म यंत्र में एक तीव्र ऊर्जा की धारा दौड़ गई और नाभी में कुछ ठंडा ठंडा गोल गोल घूमने लगा।
ये स्थिति कुछ ही सैकिंड तक रही और उसके बाद वह आकृति ओझल हो गई।किन्तु मेरा हृदय न जाने अपने ही आप आंतरिक प्रसन्नता से गदगद होने लगा।
कुछ ही देर बाद बाकी लोगों ने भी अपनी आंखें खोल दीं और उन सभी ने बताया कि आज उन्हें बहुत ही अच्छा लगा जो कभी भी महसूस नहीं हुआ।
तब मैंने उनको अपना साक्षात दृष्टांत का वर्णन किया तो वे सभी बहुत प्रसन्न हो गए और बोले लगता है आपको साक्षात "बाबा जी"(श्री नानक देव जी) ने दर्शन दिए हैं।
उनके इन उद्गारों से मेरा हृदय और भी प्रसन्न हो उठा, जब भी कभी इन अलौकिक घटनाओं की स्मृति सजीव हो उठती है तो आज भी हृदय मयूर की तरह नृत्य करने लगता है।
तो ये थे इस चेतना के कुछ जीवंत अनुभव जो मानवीय चेतना के दशम आयाम के अनुभवों को चित्रित कर रहे हैं आशा है आप सब इस लंबे वृतान्त से ऊबे नहीं होंगे।"
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"Jai Shree Mata Ji"
Hridya ko anandit karne Wala Anubhav💖💖💐🌹💐🌹😊😊🙏💗💗
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