"उषाकाल ध्यान-संशय निवारण"
हममें से बहुत से सहजी सूर्योदय से पूर्व ध्यान में बैठते हैं किन्तु अक्सर यह महसूस करते हैं कि सुबह के ध्यान में बहुत अच्छे वायब्रेशन अनुभव नहीं हो रहे। और न ही उतना आनंद ही आ रहा होता है जितना आनंद दिन में अथवा रात्रि में आता है।
इस कारण से हम कभी कभी चिंता भी करने लगते हैं कि आखिर क्या कारण है ?
उषाकाल के ध्यान में ऐसा क्यों होता है कि ध्यान की बहुत अच्छी स्थिति का अभाव क्यों रहता है ?
मेरी चेतना के अनुसार प्रातःकाल के ध्यान में यदि हम अच्छे से आनंद उठाना चाहते है। तो हमें अपना ध्यान का तरीका व इसके प्रति थोड़ा सा नजरिया बदलना पड़ेगा जो दिन व रात्रि के ध्यान के अभ्यास से थोड़ा भिन्न होगा।
हममें से अधिकतर सहजी "श्री माँ" के 'साकार स्वरूप' व "श्री चरणों" की ओर अपना चित्त केंद्रित करके ही ध्यान में उतरते हैं।
और "उन" पर जाने वाले चित्त की प्रतिक्रिया के परिणाम स्वरूप "उनसे" आने वाली ऊर्जा को अपने हाथों व हाथों की उंगलियों में अथवा सहस्त्रार में अनुभव करने के हम आदि होते हैं।
इस अभ्यास के कारण हममें व "श्री माँ" द्वैत भाव बना रहता है जो "उनसे" सदा दूरी को ही प्रदर्शित करता है। जिसके कारण हम "उनसे" प्रवाहित होने वाले वायब्रेशन को आसानी से महसूस कर पाते हैं।
यानि कोई चीज यदि दूर से आएगी तो हम उसे आसानी से अनुभव कर अपने संज्ञान में ले सकते हैं।
जैसे कि यदि शीतल बयार अचानक से बहनी प्रारम्भ हो जाये तो जब वह हमारे सम्पर्क में प्रथम बार आकर टकराती है तब हम उसे आसानी से अनुभव कर पाते हैं।
और इसके अगले चरण में जब यह हमारे अस्तित्व गुजर रही होती है तो हमारे अनुभव कुछ बदल जाते हैं। यानि इस दूसरी स्थिति में हम भी उसी बयार का हिस्सा बन जाते है।
तब हमें बयार का प्रवाह स्पष्ट तौर से तो अनुभव नहीं होता किन्तु इसके मंदम मंदम बहाव से हमारा बाह्य अस्तित्व अवश्य आडोलित हो रहा होता है।
ठीक इसी तरह जब हम सुबह के ध्यान में बैठते हैं तो स्वाभिक रूप से हम जाने अनजाने में "परमेश्वरी" के निराकार के साथ एकाकार हो जाते हैं।क्योंकि उस 'अमृत बेला' में हमारे विचार न के बराबर होते हैं।
जिनके कारण आम हालातों में हम "माँ आदि शक्ति" की ऊर्जा रूपी "शक्ति" के साथ पूर्ण एकाकारिता स्थापित नहीं कर पाते हैं और "उनसे" सदा दूरी बनी ही रहती है।
और इसी दूरी के कारण जब हम "उन" पर अथवा "उनके" "श्री चरणों" पर चित्त डालते हैं तो हमारा यंत्र विभिन्न स्थानों पर प्रतिक्रिया को प्रगट करता है जो वायब्रेशन के रूप में आभासित होती है।
वास्तव में उषाकाल में विचारों की नगण्यता होने के कारण हम स्वतः ही "माँ आदि शक्ति" के 'निराकार' अस्तित्व से तत्क्षण एकरूप हो जाते हैं और "वह" हमें अपने 'निराकार' अस्तित्व में कुछ देर के लिए समा लेती हैं।
जिसके कारण यकायक उत्पन्न हुई नई परिस्थिति के परिणाम स्वरूप हमें हाथों व उंगलियों के पौरवों में वायब्रेशन की कमी अनुभव होती है।
किंतु यदि हम गौर करें तो हम पाएंगे कि ऐसी सुंदर अवस्था में हमारे सम्पूर्ण यंत्र के भीतर धीमी गति से प्रवाहित होने वाला एक करंट सा अनुभव हो रहा होता है।
यानि इस स्थिति में "वो" हमारे यंत्र के समस्त रोम छिद्रों के द्वारा एक स्फूर्ति व आनंदाई बयार के मानिद गुजर रही होती हैं।
अतः ऐसी विलक्षण स्थिति में हमें "उनसे" आने वाली वायब्रेशन महसूस करने के स्थान पर "उनको" अपने सूक्ष्म अस्तित्व में प्रवाहित होते हुए ही महसूस करना चाहिए।
तब जाकर ही बिना किसी शंका व चेकिंग के हम गहन ध्यान का लुत्फ उठा सकेंगे। यदि यह तरीका पसंद आये तो आप भी इसी प्रकार से व इसी भाव में सदा ध्यान का लाभ व आनंद उठा सकते हैं।
इस विधि से गहनता में इजाफा ही नहीं होता वरन, "उनसे" एकाकारिता व नजदीकी भी अनुभव होती है।"
---------------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"
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