"श्री"-'साधक'
अब से लगभग 19 वर्ष पूर्व "श्री माँ" ने एक 'नास्तिक' मानव को अपने "श्री चरणों" में स्थान दिया,
जिसके भीतर न तो देवी-देवताओं के प्रति कोई आस्था थी और न ही वह किसी तथा कथित गुरु का अनुयायी ही था,
न वह "ईश्वर" को मानता था और न ही "उसे" नकारता था,
बस केवल इतना ही जानता था कि कोई शक्ति है, जो इस रचना को बिना गैस, पेट्रोल के चला रही है,
न उसे जीवित रहने के प्रति कोई ललक थी और न ही उसे अपनी मृत्य की इच्छा ही थी,
न किसी व्यक्ति व वस्तु से अत्यधिक लगाव था, और न ही उनको खोने का ही कोई सवाल था,
न किसी से कोई अपेक्षा थी और न ही किसी से कोई याचना थी,
न किसी जात-पात का विचार, और न ही किसी ऊंच नीच का आभास था,
किन्तु "उसकी" बनाई इस रचना से उसे अत्यंत प्यार था,
प्रकृति के सौंदर्य को घंटो निहारता था, पक्षी, परिंदो के कलरव में यूँ ही अपनी जिंदगी गुजरता था,
"उनकी" सर्वोत्तम रचना मानव के प्रेम को वह हरदम अपने हृदय में महसूस करता था,
किन्तु अज्ञानता के तिमिर में कैद मानव के द्वारा अहंकार दिखाने, ईर्ष्या करने, घृणा फैलाने, झूठ बोलने, अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा करने, दमन
की कामना पालने,अंकुश रखने की आकांक्षा रखने,अन्यों पर नियंत्रित करने की इच्छा करने , चेतना पर शासन करने की सोच रखने, कुटिलता पूर्ण
व्यवहार करने, दुहरा व्यक्तिव दिखाने, लोभ का आचरण करने, अन्यों की वस्तुएं, धन, म्हत्वाकांशा की दल दल में फंसे, पद हड़पने की प्रवृति रखने
वाले लोगों से सदा दूरी रखता था,
यदि जाने अनजाने में ऐसे किसी व्यक्तित्व का सामना हो जाता था तो पहले तो ऐसे मानव की साइड से निकल जाने का प्रयास करता था,
और यदि वह मानव जबरदस्ती भिड़ना चाहता था तो फिर संघर्ष भी सुनिश्चित तौर पे अच्छे से होता था,
ऐसे मानव को जब "श्री चरणों" में स्वर्ग की अनुभूति हुई,
और उसको अंतःकरण में यह एहसास हो गया,
कि "श्री माँ" कोई और नहीं वही "दिव्य शक्ति" हैं जो सारे ब्रह्मांड को चलाती हैं,
बस फिर क्या था उसका सर " श्री चरणों" में ही रह गया, और फिर "श्री माँ" की अनुभूति में वह हमेशा के लिए खो गया,
"श्री माँ" को सदा के लिए अंतःकरण में स्थापित कर वह सदा के लिए "उनका" हो गया,
जो "श्री माँ" शब्दों व हृदय में प्रेरणा देती चली गईं वह उन पर निरंतर चलता ही चला गया,
शुरू शुरू में जब "श्री चरणों" में स्थित "उनके" प्रेममयी बच्चों से मिलना हुआ तो हृदय गद गद हो गया,
तब लगा कि यह संसार कितना सुंदर है व आनंदमयी है,
इस प्रकार से उसका जीवन बड़े ही मजे में व्यतीत होने लगा,
किन्तु "श्री माँ" उसे आज के इस मानवीय जीवन के यथार्थ से परिचय करा अपनी व्यथा का अनुभव कराना चाहती थीं,
जागृति की प्रक्रिया में संलग्न मानव के मन के भीतर छुपे हुए शैतानो व राक्षसों से रूबरू कराना चाहती थीं,
जैसे जैसे उसके माध्यम से "श्री माँ" अपना कार्य सम्पन्न कराती गईं,
वैसे वैसे 'जागृति का लबादा ओढ़े' अतृप्त व अव्यवहारिक इच्छाओं से आच्छादित मानवों से उसका सामना होता गया,
कभी कभी टकराव तो कभी क्षमा चलती रही, किन्तु इस अवस्था में भी चैतन्य-साधना व चेतन की सेवा निरंतर बनी रही,
बड़े, बड़े सुप्रसिद्ध, प्रतिष्ठित, महान साधक/साधिकाओं से अक्सर मिलना होता रहा,
साथ ही प्रेम से पगे, सीधे साधे, भोले भाले बच्चों से मिलकर हृदय कुलांचे भी भरता रहा,
सहज कार्य के शैशव काल से ही कुछ भ्रमित लीडर, ट्रस्टी, कॉर्डिनेटर अपना प्रभाव दिखाने लगे,
स्थान स्थान पर सहज कार्य में बाधा बनकर अपने पद की अकड़ दिखाने लगे,
विनम्रता से बारम्बार निवेदन कर उनसे "श्री माँ" का मकसद बताना पड़ा,
फिर भी न मानने पर उनको ट्रस्ट का विस्मृत उद्देश्य बताना पड़ा,
ट्रस्ट एक मात्र आफिस है, जो मदद करता है केवल सहज कार्यों के आयोजन में,
नहीं है इसका कोई भी रोल "श्री माँ" के बच्चों के कार्यों के निर्धारण में,
ट्रस्टी, लीडर, कॉर्डिनेटर, वालंटियर व आम सहजी सब हैं एक समान, "श्री माँ" के बालक की नजरों में,
नहीं है इन सभी का कोई भी अधिकार, "श्री माँ" के किसी भी बच्चे की चेतना पर शासन करने में,
बनते हैं सब लीडर, ट्रस्टी, कार्डिनेटर, वालंटियर, सहजी अपनी अपनी गर्ज व रुचि से,
फिर क्यों लादना चाहते हैं वो अपनी मर्जी अन्यों पर, प्रभावित हो किसी निकृष्ट भावना से,
समझना होगा सभी को यह तथ्य, आत्मसात करना होगा यह सत्य,
कि जो बालक "श्री माँ" की इच्छा व प्रेरणा से संचालित है,
वह किसी भी ट्रस्ट के आदेशों के पालन से बंधा नहीं है,
और न ही कोई ट्रस्ट उसको चलाने की हैसियत रखता है,
और न ही कोई संस्थाधिकारी उसको रोकने की कैफियत ही रखता है,
वह चलता है हॄदय की प्रेरणा से,
वह तनिक ठहरता है केवल प्रेम और करुणा से,
जो भी हॄदय से चेतन-कार्य के लिए पुकारे,
'नत मस्तक' हो "श्री माँ" की अँखियों को निहारे,
पाकर इशारा "उनसे" हृदय में विवेकशीलता से विचारे,
किस प्रकार से मिले सबको निरा-आनंद, बिना किसी विशेष प्रयत्न के,
अपनी चेतना में विकसित हो हर सहजी बिना किसी अड़चन के,
सुबहो से शाम, शाम से सुबह, केवल यही चिंतन चलता है,
इन्ही अनुभवों व अनुभूतियों में रोज सारा दिन निकलता है,
यदि प्रतिदिन कुछ सार्थक न हो पाए तो हर पल हृदय में खलता है,
अब तो बस जीवन का उद्देश्य यही है इस चेतना का,
पल पल में पता लगता रहे सच्चे सहजियों की हृदय-वेदना का,
किस चीज में अटके हैं, किस सोच में लटके है,
किन व्यर्थ की उलझनों में खाते बिन बात के झटके हैं,
जो अनुभव वह पाता है केवल उतना ही बतलाता है,
यदि कोई अनुभूति न हो तो यह मुख कभी खोल नहीं पाता है,
नित्य उतर कर हृदय सागर में, गहरे गोते लगाता है,
जो भी मिले हीरे, मोती, रत्न, पन्ने आत्म ज्ञान के,
दोनों हाथों से, सत-राहियों पर, दिल से खूब लुटाता है,
यही प्रेम है, यही पूजा है, यदि ध्यान है, यही धारणा है,
यही भक्ति है, यही शक्ति है, यही निष्ठा है, यही साधना है,
डूब कर दर्प में फिर भी कोई अड़ेगा,
अपने ही जाल में खुद ही फंसेगा,
फिर अपनी इस गलती को वो आजीवन कोसेगा,
न यह कभी रुका है,और न ही कभी रुकेगा, किसी भी विपत्ति से यह कभी नहीं डरेगा,
बेकार में इसका मार्ग रोक कर क्यों अपनी आफत बुलाते हो,
क्या गण, देवताओं, रुद्रों से तुम खौफ नहीं खाते हो,
ये केवल बाते नहीं है जो डराने के काम आती हैं,
ये हकीकत में हिदायते हैं, हिफाजत के काम आती हैं,
समझ सकते हो तो समझ लो मेरे भाई,
अन्यथा तुमको सदा मिलेगी केवल और केवल रुसवाई,
एहसास करके हृदय कांप जाता है,
यह सोच सोच कर कलेजा मुंह को आता है,
क्या होगा ऐसे हमारे भाई बंधुओं का,
जब क्रोध से काँपेगा जर्रा जर्रा इस धरा का,
स्वपन "श्री माँ" के बिखर जाएंगे सारे,
नेसनाबूत हो जाएंगे "उनकी" मेहनत के दुलारे,
तब काम न आ पाएगी कोई भी प्रार्थना "श्री माँ" से हमारी,
फिर छलकेंगी हम सबकी अँखियाँ अश्रुओं की मारी,
कितना दुखद होगा देखना अपनो का ही विनाश,
नहीं रह जायेगी किसी ऐसे जीवन के बचने की आश,
फिर से करबद्ध निवेदन करते हैं आप सबसे पीड़ा में,
इन बातों को झूठ समझने की भूल न करना कभी किसी भ्रम में,
अवसर अंतिम न्याय का नजदीक आ रहा है,
न जाने क्यूं यह जागृत मानव अपना समय व्यर्थ गंवा रहा है,
नहीं जानता भ्रमित मानव, अवसर पुनः नहीं आएगा,
लाख चौरासी के चक्कर में उलझ कर चेतन-हृदय मिट जाएगा,
फिर होगा प्रारम्भ अनंत वेदना का नर्क में नर्क ही मिलता जाएगा,
इस जागृत चेतना का भी हॄदय अनंत पीड़ा से भर जाएगा,
चेतावनी है, उन सभी अज्ञानियों को जो चेतन-चेतनाओं को ठुकराते हैं,
अपने अहम वहम के चंगुल में फंसकर अपनी ही मुसीबत बुलाते हैं,
न दुखाओ दिल किसी प्रेममयी जागृत जीवात्मा का,
न तिरस्कार करो किसी साधक की अन्त:इच्छा का,
शांति के साथ अच्छा समन्वय बनालो,
अपने हृदय की कलुषित भावनाओं को तुम अब जला डालो,
नहीं हो तुम राजा किसी रियासत के,
छोड़ो ये प्रपंच निम्नतम सियासत के,
तुम्हारी मर्जी से कोई "श्री बालक" नहीं चलेगा,
तुम्हारे अनुसार वह कोई कार्य नहीं करेगा,
"श्री प्रेरणा" से संचालित पर तुम क्या अपनी जोर जबरदस्ती चलाओगे,
अपनी करनी पर बाद में बहुत ही पछताओगे,
फिर न कहना कि बताया नहीं था,
फिर न शिकायत करना कि समझाया नहीं था,
जिस क्षेत्र में रहते हो वह तुम्हारा नहीं है,
वह क्षेत्र तुम्हारा रजवाड़ा नहीं है,
जब जहां उसकी इच्छा होती है वह हर जगह पर जाता है,
अपना हर एक पल वह "श्री इच्छा" से ही बिताता है।
वह किसी संस्था व ट्रस्ट से बंधा नहीं है,
और किसी नियम व प्रोटोकॉल में फंसा नहीं है,
जो तुम्हारा दिल करे सैंकड़ो नियम बनाओ,
प्रोटोकॉल ओढ़ो और प्रोटोकॉल ही खाओ,
पर कभी भी किसी 'जागृत' पे अपना अधिकार न जमाओ।
इस चेतना से यदि कोई परेशानी है तो 'लिखित' में बताओ,
बिन ठोस आधार के इधर उधर झूठी-सच्ची बात न फैलाओ,
करना है यदि शास्त्रार्थ
"श्री माँ" के लेक्चर्स पर गम्भीरता से,
तो किसी बड़े सेमिनार में आमने सामने आओ,
इस चेतना के साथ बैठकर अपनी गलत फहमियां सुलझाओ,
यदि फिर भी न कुछ समझ पाओ तो,
इस चेतना को सभी ट्रस्ट्स से मुक्त करने के लिए एक पत्र लिखवाओ,
और प्रेषित कर पूरे भारत के सहजियों में इसका खूब प्रचार करवाओ,
फिर कभी तुम अड़चन न डाल पाओगे इस चेतना के कार्य में,
और न ही पीड़ित रहोगे तुम भी अपने पंच-राज न कर पाने की आकांशा से।"
-----------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"
'अनुभूति'-46 (23-06-19)
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