"नवम आयाम"
(Ninth Dimension)
ये बड़ा ही विलक्षण आयाम होता है, इस अवस्था में साधक "अपनी जाग्रति को सभी के भीतर और अपने भीतर सभी की जाग्रति को पाता है।" यानि पूर्ण 'समग्रता' की स्थिति, यही वास्तव में 'सामूहिक चेतना' की स्थिति है। हम सभी चेतना के चौथे व पांचवे आयाम के दौरान भी 'सामूहिक चेतना' का यदा-कदा स्वाद चखते हैं पर 'साक्षी' नहीं रह पाते इसी में लिप्त हो जाते हैं।
समग्रता का वास्तविक मायने सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति जो भी अभी तक हुई है, जो स्वरुप परिवर्तित हो जाने के वाबजूद भी 'सूक्ष्म' अणुओं के कणों के रूप में 'अद्रश्य जगत' के भीतर विद्दमान है, को अपने अस्तित्व में महसूस करना व उसको धारण करना।
इस रचना में जो भी रचना होती है वो कभी नहीं मिटती केवल उसका स्वरुप ही परिवर्तित होता है,और उस रचना के अंश सदा इस ब्रहम्मांड में उपस्थित होते है। "केवल स्थूलता का सूक्ष्मता में परिवर्तन होता है व सूक्ष्मता का स्थूलता में। जैसे 'साकार से निराकार व निराकार से साकार'।"
इस रचना की हर चीज में चेतना व्याप्त है यानी कण-कण में 'आदि शक्ति' उपस्थित हैं, और 'आदि शक्ति' के होने से ही हर कण जीवंत है। विज्ञान के अनुसार सभी दृष्टी-गत या सूक्ष्म-गत संसार में हर चीज अणुओं से बनी है और हर अणु गति शील है। तो अणुओं में गति शीलता का मतलब केवल और केवल 'आदि शक्ति' के अनुपात का अणुओं में निहित होना ही है।
विज्ञान कहता है कि मानव शरीर 33 करोड़ अणुओं (कोशिकाओं) से बना है और सारे अणु एक दूसरे से जुड़े है और यदि इन अणुओं को विभक्त कर दिया जाए तो ये प्रकाश में परिवर्तित हो जाते हैं यानी सूक्ष्म हो जाते हैं और प्रकाश की गति 1,86,००० मील प्रति सेकेण्ड की गति से यात्रा कर सकते हैं।
इसका मतलब इतनी उच्च गति व आवृति को हम अपनी खुली आँखों से पकड़ नहीं सकते।यानि हम प्रकाश तो देख सकते है पर उसकी गति नहीं देख सकते। तो इसका मतलब प्रकाश एक प्रकार से 'साकार' रूप में प्रगट होता है किन्तु उसकी गति 'निराकार' रूप में ही रहती है।
लेकिन आजकल अति उच्च गति को पकड़ने वाले कैमरे बाजार में आ गए हैं अत: बहुत सी तीव्र आवृतियों की चीजो को वो कैच कर लेते हैं जिनको सदा चमत्कार की संज्ञा दी जाती ।
कुछ अरसा पहले मैंने 'दैनिक जागरण' अखबार में एक रूसी महिला जिसका नाम मैडम ब्लेवेत्स्की है, का एक लेख पढ़ा था। उसमे उन्होंने अपने 'शोध' के द्वारा 'कुण्डलिनी' की गति निकाली थी, वे लिखती हैं ---
"कुण्डलिनी विश्व व्यापी सूक्ष्म विधुत शक्ति है जो स्थूल बिजली की अपेक्षा कहीं अधिक शक्तिशाली है इसकी चाल सर्प की चाल की तरह टेड़ी है, इसको सर्पाकार कहते हैं, जो की 3,45,000
मील प्रति सेकेण्ड की रफ्फ्तार से चलती है ।"
अब जरा सोचिये यदि उनका 'कुण्डलिनी' की गति के बारे में तथ्य ठीक है तो कुण्डलिनी शरीर से बाहर होकर कहाँ-कहाँ नहीं जा सकती और 'कुण्डलिनी' 'आदि शक्ति' की शक्तियों को क्षण मात्र में कहाँ-कहाँ नहीं पहुंचा सकती।
वो लेख मैंने लैमिनेट करा कर रखा था व अनेको लोगों को दिखाया भी था न जाने अब वो कहाँ हैं यदि मिला तो अपने ब्लॉग में उसे अवश्य डालूँगा।यह सभी बाते बहुत ही सुन्दर शोध का विषय हैं।
"ध्यान का मार्ग तो वास्तव में ऐसे 'शौक़ीन' लोगों के लिए ही है जो इस अलौकिक 'अंतर-जगत' की यात्रा पर जाना चाहते हैं और इस यात्रा के अनुभवों को इन्ही शौक़ीन लोगों के बीच बाँटना चाहतें है, व इसके सुन्दरतम अनुभवों से पूरे संसार को लाभान्वित करना चाहते हैं।"
वास्तव में "जब कुण्डलिनी सहस्त्रार से बाहर रहती है तो 'वह' 'आदि शक्ति' की शक्तियों को धारण करने वाला यंत्र बन जाती है और 'चित्त' के साथ कार्य करती है।और चित्त की गति के बारे में अभी तक कोई भी तथ्य मेरे पास लिखित में नहीं हैं।
पुराने ज़माने में कहा जाता था कि योगी 'मन' की गति से एक-स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँच जाते थे। ये बात सुश्री लिंडा गुडमैन, जो कि एक ज्योतिष शास्त्री हैं अपनी पुस्तक "स्टार साइन" में कही है कि, "उनसे मिलने के लिए तिब्बत के 'लामा' आया करते थे जो 'त्रि-आयामी सूक्ष्म शरीर'(Astral Body) में होते थे और उनके शरीर के आर-पार देखा जा सकता था।" उन्होंने अपनी इस पुस्तक में भूत,
प्रेत,आत्मा व सूक्ष्म शरीर का जिक्र किया हुआ है।
इससे मिलता जुलता वर्णन 'पंडित श्री राम आचार्य जी शांति कुञ्ज हरिद्वार वालों' ने अपनी एक पुस्तक "मरने के बाद क्या होता है" में भी किया है। पर वो सब उनके अनुभव हैं मैंने तो केवल अपने अनुभवों को प्रमाणित करने के लिए ही इन लोगों का जिक्र किया है।
वास्तव में शास्त्रों व पुस्तकों से "गुरु" प्रमाणित होते हैं और 'गुरुओं" से पुस्तकें व शास्त्र,"
पुस्तकें तो मात्र नक़्शे की तरह ही होती हैं जिन पर चल कर देखा जा सकता है, लेकिन ज्ञान तो केवल अनुभव से ही प्राप्त होता है।
ये जो मेरे द्वारा लिखवाया जा रहा है उसका आधार केवल और केवल विशुद्ध अनुभव व अनुभूति ही है। जिसका मुझे अहसास नहीं है वो न तो मैं बोलता हूँ और न ही लिखता ही हूँ।
हकीकत में साधक का चित्त ही कुण्डलिनी को 'दिशा' देता है और कुण्डलिनी वहां पहुँच कर 'आदि शक्ति' की शक्तियों से उस स्थान को या उस व्यक्ति को लाभान्वित कर देती है।
"ये प्रयोग तो हम अक्सर करते ही रहे हैं और वो कारगर भी होते है। ये बात तो हमारे अनुभव के आधार पर हमें भी प्रमाणित है और इस प्रकार से कार्य करने वालों के सामने भी प्रमाणित है।"
हम सभी सहजी 'परम चैतन्य' की बातें अक्सर करते रहते है, जब 'ये' हमारे सहस्त्रार पर अपना स्पर्श देते हैं तो कोई न कोई प्रतिक्रिया अक्सर घटित होती है, जिसके परिणाम स्वरूप हमें :--
1) शीतलता की अनुभूति:- जो कि 'उनके' स्पर्श से उत्पन्न होती है, जब 'माँ आदि शक्ति' कुण्डलिनी के सहस्त्रार पर आने पर हमारे सहस्त्रार को छूती हैं।
2) चीटियों के रेंगने की अनुभूति:- जो 'श्री माँ' के सहस्त्रार पर होने के कारण ब्रह्मं रंध्रों के धीरे-धीरे खुलने की प्रक्रिया के रूप में घटित होती है।
3) सहस्त्रार से बह कर सर की खाल के अन्दर से नीचे की ओर कुछ द्रव्य के बहने की अनुभूति:- 'चैतन्य' के हमारे कपाल में प्रवेश करने के उपरांत इसकी सूक्ष्म नसों व शिराओं के भीतर बहने के कारण उत्पन्न होती है।
4) सहस्त्रार पर तनाव की स्थिति:- जो 'आदि शक्ति' के द्वारा कुछ सहस्त्रार के छिद्रों के खुलने के उपरांत हृदय चक्र चलने के कारण उससे उत्पन्न होने वाली ऊर्जा जब हमारे सूक्ष्म तंत्र में घूम कर जब पुन: सहस्त्रार से बाहर निकलना चाहती है तो इस हृदय चक्र से उत्पन्न हुई ऊर्जा में बाकी समस्त चक्रों के चलने के कारण उनसे भी उत्सर्जित होने वाली ऊर्जा भी मिल जाती है और अक्सर ऊर्जा के अधिक मात्र में होने व ब्रह्मं रंध्रो के कम खुले होने के कारण दवाब या तनाव की स्थिति परिलक्षित होती है।
5) सहस्त्रार पर दर्द का होना:-जब हमारी वैचारिक जढ़ता जो कि कर्म-कांडो व कंडिशनिंग के कारण जरुरत ज्यादा होती है और उसके कारण सहस्त्रार बिलकुल भी नहीं खुला होता और हमारा चित्त कुछ ही सेकिंड के लिए "श्री माँ' से अचानक जुड़ जाता है तो एक झटके से कुण्डलिनी माँ जब सहस्त्रार से टकरातीं हैं तो दर्द की अनुभूति होती है।
6) सहस्त्रार पर खिंचाव का होना:- ये स्थिति बहुत ही अच्छी स्थिति है इस प्रक्रार का खिंचाव आपकी 'नासिका' के बिलकुल अन्दर यानि 'हमसा चक्र' की तरफ से होता हुआ सहस्त्रार के ऊपर की ओर जाता प्रतीत होता है।
जब आपके ब्रह्मं रंध्र ढीक प्रकार से खुल जातें हैं और तेजी से ऊर्जा पूरे शरीर में से बहती हुई सहस्त्रार से बाहर जाने लगती है तो इस तरह का आनंद दाई खिंचाव उत्पन्न होता है।
और यदि आपका चित्त केवल अपने ही ऊपर हो तो ये खिंचाव और बढ़ता जाता है और काफी 'चिलिंग' की अनुभूति होती है जैसे एल पी जी गैस के तेजी से बहने पर गैस सिलिंडर पर चिलिंग होती है।
यदि एसी अवस्था में आपका चित्त किसी और पर चला जाता है तो आपको खिंचाव के रहते गर्मी भी आ सकती है जो कि दूसरे के सहस्त्रार के पूरी तरह न खुलने की कहानी बताती है।
'परम चैतन्य' एक प्रवाह के रूप में हमारे सहस्त्रार पर आते हैं, और ये प्रवाह है ब्रहम्मांड में स्वतंत्र विचरण करने वाली 'मुक्त चेतनाओं' का जो सूक्ष्म कणों के रूप में, चाहे वो स्वम देवताओं की हों, सद-गुरुओं की हों, संतों की हों, शक्तियों की हों या फिर सद-मानवों की हों।
जो कि साधना की चरम सीमा को पार कर शरीर से जीवित रहते हुए भी शरीर से बाहर की यात्रा कर सकते हैं और अपने चित्त के माध्यम से कहीं भी जा-आ सकते है और दूसरों को लाभान्वित करते रहते है।
ऐसी ही असंख्य चेतनाओ से युक्त ये प्रवाह जब किसी के भी भीतर प्रवेश करता है और 'मध्य हृदय' तक जाता है तो ऐसे साधकों की चेतना में सद-ज्ञान व शक्ति का संचार होता है और वह अनेको प्रकार के ज्ञान से लाभान्वित होता है।
और इसी प्रवाह से हमारे भीतर में रहने वाले समस्त देवी-देवता, सदगुरू जागृत हो जाते है और वो सभी हमारे शरीर की कैद से मुक्त होकर हमें आशीर्वादित करतें हैं और हम स्वत: ही विकसित होते चले जाते ही है।
ऐसी अवस्था में हमारी चेतना ज्ञान की ऊँचाइयों को छूती है और हम 'आत्म-ज्ञानी' बन शरीर रहते हुए भी पूर्ण मुक्त होते है।और फिर जब हमारी इच्छा होती तो शरीर का कार्य काल अपनी मर्जी से पूरा करते है।
इस 'नवम आयाम' का आनंद उठाने वाला साधक अपने भीतर में प्रवाहित होने वाली समस्त शक्तियों व ज्ञान को किसी अन्य साधक, जो 'जढ़' नहीं है और न ही वो भगवान् के प्रति अविश्वासी हो, के मध्य हृदय में सहस्त्रार के माध्यम से ट्रांसफर (प्रक्षेपित) कर सकतें हैं।
और उसकी कुण्डलिनी माँ ही नहीं बल्कि ज्ञान को भी जगा सकतें है। जैसा गुरु 'वशिष्ठ' ने लव-कुश की कुण्डलिनी जागृत करने के बाद अपने अन्दर निहित ज्ञान को बिना किसी शब्दों के उन दोनों के अन्दर उतार दिया था। उन्होंने अपने मन(चित्त) की सहायता से ये कार्य किया था। और ये प्रयोग भी हम काफी अरसे से करते आ रहे है जो 99% सफल रहे है।
यदि किसी को लाभ लेना है तो उसको निरंतर सहस्त्रार व् मध्य हृदए में बने रहने का अभ्यास करना होगा और अपने वास्तविक आंतरिक अनुभवों के आधार पर ही अपनी बात को आगे बांटना होगा। चित्त के माध्यम से अनेको सद-कार्य करने का निरंतर अभ्यास करते रहना होगा, तब ही जाकर हमारे चित्त में वो क्षमता विकसित हो पाएगी जिसके जरिये किसी के भीतर अपने वास्तविक ज्ञान को प्रक्षेपित किया जा सकता है।
जैसे बिना किसी को बताये उसके कम्पूटर में wi-fi सिस्टम के द्वारा बिना तार लगाये 'डेटा' ट्रांसफर किया जा सकता है। तो ऐसे ही ध्यान की अवस्था में किसी भी साधक के भीतर बिना उसे बताये ज्ञान को ट्रांसफर किया जा सकता है। और किसी के भीतर का जाना भी जा सकता है, ये भी हम सफल प्रयोग कर चुके है।
जैसे-जैसे वो ध्यान में उतरता जाएगा और उसका यंत्र विकसित होता जाएगा वैसे-वैसे वह अपने भीतर में प्रक्षेपित किये गए ज्ञान का लाभ उठाता जाएगा। यही कार्य 'श्री माता जी' ने हमारे भीतर भी किया है और हम भी यदि चाहें तो उसी प्रकार से विकसित होकर दूसरों को विकसित कर भी सकतें है और विकसित होना भी सिखा सकतें है।
या यूँ भी कह सकतें हैं कि , "आत्मा नाम के 'चिप' में सारी सृष्टि की रचना व इसके रचनाकार का ज्ञान निहित है,"। जैसे-जैसे हम रचना कार की शक्ति धाराओं, यानि 'आदि शक्ति' को अपने सहस्त्रार से ग्रहण कर मध्य हृदय को देते जाते हैं और 'आदि शक्ति' की शक्ति से हमारे हृदय में 'सुप्त अवस्था' में बैठे हुए हमारे 'इष्ट' जागृत हो जाते है।
तो वे हमारी 'आत्मा' को धीरे-धीरे जगाना प्रारंभ कर देते हैं और हमारी 'आत्मा' जागृत होकर अपने भीतर में व्याप्त अनंत ज्ञान को हमारे सामने लाकर हमारी 'निम्न चेतना' को 'उच्च' चेतना में परिवर्तित कर देती है और हमें ज्ञान हो जाता है और हम 'छूट' जाते है। और ऐसे लोगों से अक्सर लोग बहुत प्रेम करते हैं और उनके साथ सदा जुड़े रहना ही पसंद करते है।
ये 'प्रेम मई' जुडाव इसलिए घटित होता है क्योंकी हमारे मध्य हृदय से शुद्ध प्रेम का प्रसार होने लगता है और प्रेम को तो 'हिंसक जानवर' भी समझते हैं।वो इसे अपने-अपने हृदय की संवेदनाओ के द्वारा समझते है। केवल मानव ही ऐसा प्राणी है जो सर्व-श्रेष्ठ होते हुए भी अपने मन की जड़ताओं के कारण सच्चे प्रेम को नहीं समझ पाता।
'मेरी चेतना का ऐसा मानना है कि मानो हम सबके हृदयों में 'मिश्री' है और सहस्त्रार से 'चैतन्य जल' आता है जिसमें यह 'मिश्री' घुलती जाती है, तब ही'मिठास'(प्रेम) फूटती है।'
इसीलिए जो भी सहजी केवल अपने सहस्त्रार पर ही ध्यान लगाता है उसे सहस्त्रार पर चैतन्य तो महसूस हो सकता है पर प्रेम की कमी अक्सर रहती है।वो अक्सर काफी 'शुष्क' व सख्त होता है। ये हमारा बहुत गहन चिंतन व गहन अध्यन के बाद का ही वर्णन है।
"हृदय प्रेम का सागर है और सहस्त्रार इस सागर को भरने वाली 'अमृत धारा।"
"(Central Heart is the Ocean
of love while Sahastrar is the feeder of this Ocean).
और अब जरा ध्यान दीजिये 'श्री माता जी' के धरती की गोद में समाने पर, जिसने भी यदि वो दृश्य या वीडियो देखि है, जरा याद कीजिये वो घटना।
जब "उनकी" 'समाधी स्थल' पर बहुत सारे सहजी खड़े हुए थे और 'वो' 'श्री माता ही' के 'कौफीन को हाथो में उठाते हुए धीरे-धीरे नीचे उतार रहे थे तो ऐसा लग रहा था मानो 'श्री माँ' सहस्त्रार से धीरे-धीरे हृदय में समातीं जा रहीं हो।
और 'आदि शक्ति' भी ठीक इसी प्रकार से हम सबके हृदयों में ध्यान के माध्यम से समा जातीं हैं और यदि हम अपना चित्त अपने मध्य हृदय पर रखें तो हमें उनका ढेर सारा प्रेम आसानी से मिल जाता है, और हम उनके ज्ञान व शक्तियों से लाभान्वित होते हैं। और अब 'श्री माँ' हम सबके हृदयों में समाधिस्थ हैं।
समाधी शब्द तीन अक्षरों व ई की मात्रा से मिल कर बना है:-
"स = सहस्त्रार, माँ = 'श्री माँ ', ध = धारण करना , ई = शक्ति"
यानी सहस्त्रार से आने वाली 'माँ' की शक्ति को धारण करना ही समाधी कहलाता है।"
---------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata JI"
............................to be continued(yet to be written),
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