"मौन ही परमात्मा की भाषा है"
"Silence is the Language of God"
"माँ आदि शक्ति" की अभिव्यक्ति यूँ तो इस रचना के कण-कण में विद्यमान है, उनकी हर 'कृति', अणुओं के समूह के रुप में प्रगट होती है और उनके भीतर होने वाली गति 'माँ आदि' की उपस्थिति को व्यक्त करती है। और ये गति हम मानवों के अन्दर भी परिलक्षित होती है।
हमारे धड़कने वाले हृदय, हमारी फड़कने वाली नब्ज, हमारे फूलते-पिचकते फेफड़े, हमारे हृदय में लहरों की तरह निरंतर उठने वाले भाव, लगातार कहीं न कहीं घूमते रहने वाला 'घुमक्कड़' चित्त और इसी के सुर में सुर मिलाते हुए आते- जाते विभिन्न प्रकार के विचार 'माँ' की उपस्थिति की ही तो कहानी कह रहे है। जो हमारे साधारण त्रि-आयामी जीवंत जीवन के कुछ प्रमाणित पहलू हैं।
पर वास्तव में 'श्री माँ' व अनेको ज्ञानियों के मुताबिक 'उनकी' वास्तविक अनुभूति हमें तब ही हो पाती है जब 'वे' स्वम इस 'ब्रहम्मांड' के परे से उतर कर हम मानवों के 'सहस्त्रारो' पर 'विराजतीं' हैं और परिणाम स्वरुप सहस्त्रार की ख़ुशी विभिन्न प्रकार की हल-चलों के रुप में प्रगट होती है जिसका जिक्र पिछले अनुभव 'चेतना का नवम' आयाम' में कर दिया गया है।
इसके उपरान्त 'वे' हमारे सूक्ष्म यंत्र (सूक्ष्म शरीर) को संचालित करने वाले अनेको ऊर्जा केन्द्रों(चक्रों) को छूती हैं व उनको जागृत करती हैं तो इस प्रक्रिया के दौरान इन केन्द्रों पर विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएं होती है। और ये भिन्न-भिन्न प्रकार की अनुभूतियाँ ही उनकी 'मौन-भाषा' है। यदि साधक इन सूक्ष्म संकेतों को समझने लगे तो उसे सत्य क़ा पूर्ण आभास होने लगेगा और उसका तादातम्य परमेश्वरी के साथ जुड़ जायेगा।
तो आज का विषय 'श्री माँ' की मौन अभियक्ति को अपने भीतर में समझना ही है। इन अनुभवों से आप सभी को गुजारने से पूर्व ही मैं छमा चाहूँगा क्योंकी यदि ये सब आपके अनुभव पर खरे न भी उतरें तो 'नाराज' न होईयेगा क्योंकी ये केवल अपने अनुभवों को बताने का एक प्रयास मात्र है, यदि इस प्रयास से किसी साधक का लाभ हो जाए तो ठीक वर्ना छोड़ दीजियेगा। मैं कोई शिक्षक नहीं हूँ वरन एक यात्री हूँ, ये केवल यात्रा के संस्मरण मात्र हैं।
हम इन सूक्ष्म प्रतिक्रियाओं को "श्री माँ" के मुताबिक अपने भीतर मुख्य चार स्थानों पर महसूस कर सकतें है।
१) सर्व प्रथम हथेली व उँगलियों के पोरवों पर:-- जब 'श्री माँ' हमारे सहस्त्रार को अपने 'प्रेम' का स्पर्श देतीं और हमारा चित्त भी उनकी अनुभूति पर होता है तो हथेली के मध्य भाग में गोल-गोल ऊर्जा के घूमने की अनुभूति होती है। इसका मतलब है कि हमारी 'माँ कुण्डलिनी" सहस्त्रार पर आ गई हैं और 'उन्होंने' 'माँ अदि शक्ति' को सहस्त्रार पर आने के लिए निमंत्रण भेजा व 'माँ आदि' शक्ति का आगमन हुआ। और यदि यह घुमाव दोनों हथेलियों में बराबर का हो तो इसका मतलब 'पूर्ण संतुलन' की स्थिति है।
और यदि केवल एक ही हाथ में हो तो दूसरे हाथ से जुड़ी नाडी व आग्न्या चक्र का क्लियर न होना है। ऐसी अवस्था में अपना चित्त 'बाधित' आग्न्या चक्र व नाडी को प्रगट करने वाली दूसरी हथेली के मध्य भाग पर कुछ देर के लिए रखेंगे तो वह भी क्लियर हो जायेगें।
चक्रों की 'पकड़'(catch) का मुख्य कारण हमारे सूक्ष्म शक्ति केन्द्रों से 'माँ अदि शक्ति' की शक्ति के प्रवाह का पूरी तरह से न गुजर पाना है। जब यह प्रवाह अवरुद्द होता या कम होता है तो मुख्य रुप से चार प्रकार से चक्रों में पकड़ महसूस होती है।:--
i)उंगली के पोर्वे पर सुई चुभने जैसी तीखी चुभन:- यदि किसी भी चक्र में इस प्रकार की अनुभूति हो तो ये समझ लेना चाहिए कि उस चक्र से सम्बंधित मुख्य अंग में कोई गंभीर रोग है और वो बड़ी ही 'क्रिटिकल' स्टेज पर है। तो ऐसी स्थिति में अपने चित्त को उसी बाधित उंगली के चक्र पर रख कर अपने सहस्त्रार से ऊर्जा को लेकर उस उंगली पर डालें या उंगली को अपने उस हाथ के अंगूठे से गोल-गोल घुमाएंगे तो थोडा बहुत आराम पड़ जाएगा परन्तु किसी डाक्टर को अवश्य दिखाएँ क्योंकी ये संकेत किसी रोग के स्थित हो जाने के हैं।
जब ये नकारात्मक अनुभूति हो तो ये जरूर देख लें कि उस समय आपका 'चित्त' कहाँ पर है। हो सकता है ये संकेत आपके न होकर उसके हों जिसके बारे मैं आप सोच रहे हों। यदि हमारा चित्त हमारे पर होता है तो ये परेशानी हमारी होती है और यदि हमारा चित्त किसी और पर है तो ये दिक्कत किसी दूसरे की हो सकती है।
यह बहुत महत्वपूर्ण है कि अपने चित्त को समझना वर्ना गलत तथ्य पर पहुँच जायेंगे और गलत नतीजा निकालेंगे। अमूमन 95% सहजी चित्त की ओर न ध्यान देने के कारण गलत निर्णयों पर ही पहुँचते हैं और कभी अपने को तो कभी दूसरों को दोष दे देते है। एक और अनुभव है जिससे हम जान सकते है कि हमारा निर्णय गलत है या सही है और वो है "ये देखना कि यदि मैं अमुक निर्णय ले रहा हूँ और उसे मैं सही समझता हूँ तो क्या ऐसा सोचते हुए मुझे हाथों में ठंडा लग रहा है या गरम।" इससे भी आपके निर्णय लेने में मदद मिल जायगी।
ii) उंगली के पोर्वे पर जलन जैसी महसूस होना:- इस प्रकार का संकेत हमारे स्वभाव(tendency) को प्रगट करता है। यानी कि हम जाने-अनजाने में उस चक्र के देवता को रुष्ट कर रहे होते है। हमारे अमुक बात सोचने या अमुक कार्य करने से 'वह' देवता नाराज हो रहे है और अपनी प्रतिक्रिया स्वरुप हमें जलन देकर चेतावनी दे रहे हैं, मानो कह रहे हों कि "मान जाओ सत्य के रास्ते पर आ जाओ वर्ना इस चक्र से जुड़े तुम्हारे अंगों को खराब कर दूंगा।" जैसे कोई भी मशीन ख़राब होने से पहले अपनी खराबी को किसी न किसी आवाज या असंतुलन को प्रगट करके हमें पहले ही बता देती है कि मुझे ठीक करवा दो अब मैं रुकने वाली हूँ।
iii) उंगली के पोर्वे पर दवाब जैसा महसूस होना:- ये एक प्रकार की अस्थाई पकड़ है, हमारे मन में अक्सर कई प्रकार के भाव आ जा रहे होते हैं, हमारा मन 24 घंटे में तीनो ही प्रकार के मनोभावों यानी राजसिक, तामसिक व सात्विक इत्यादि, से जरूर गुजरता है और इसी बीच ना-ना प्रकार की स्मृतियों से भी गुजरता है व हमारे मन में अक्सर कहीं न कहीं लिप्तता आ जाती है और यदि वह चिपक, जाने-अनजाने में प्रकृति या परमात्मा के खिलाफ होती है तो अक्सर इसी प्रकार के दवाब या उंगली के पकड़ने जैसी अनुभूति होती है। इससे कोई खास परेशानी नहीं होती। ये हल्का सा दवाब हमें बता रहा होता है कि कब-कब हम परमात्मा के सहयोगी हैं और कब-कब उनके अनजाने में विरोधी हो जाते है।
जब-जब भी हमारा मन या हम किसी भी भौतिक स्थिति या वस्तु में लिप्त हो जाते हैं तो ऊर्जा के प्रवाह में हल्की सी कमी आ जाती है। यदि मध्य हृदय व सहस्त्रार चक्र ठीक हों और बाकी के पांच चक्रों में पकड़ हो तो भी चिंता की कोई खास बात नहीं है ये स्वत: ही ठीक हो जायेंगे। क्योंकी मन के अनेकों परिस्थितियों से गुजरने के कारण ही ये पांचो चक्र प्रभावित हो रहे हैं। ये दो मुख्य चक्र यानी सहस्त्रार व मध्य हृदय ठीक होने आवश्यक हैं।
क्योंकी इस 'विषाणु' के एक्टिवेट होने का मतलब 'खून के दौरे' का पूर्णत: अवरुद्द हो जाना ही है। यह blood circulation के रुकने के बाद ही दिखाई देता है। ज्यादातर यह अत्यधिक 'बर्फीले' व ठन्डे स्थानों पर रहने वालेलोगों के बीच असर करता है। इसका एक और कारण है, यदि हमारा 'दिल' खून के थक्के(blood clot) बनाना शुरू कर दे तो भी ये समस्या आ सकती है, और खून के थक्के भी खून के दौरे को रोक देते है।
यदि यह पेट में जाग जाये तो 'आँतों' को गलाना शुरू कर देता है। शरीर के जिस भाग में भी यह जागरूक होगा उसी को गला डालेगा। इसे 'सेप्टिसीमिया' भी कहते है। मेरे सामने एक सहजी का केस ऐसा भी आ चुका है और उनकी इसी के कारण मृत्यु भी हो गई थी। कहने के वाबजूद भी उनके पतिदेव ने उसे गंभीरता से नहीं लिया था, तुरंत आपरेशन कराने की जरुरत के वाबजूद भी उन्होंने अपनी चलाई जिसके परिणाम स्वरुप उनकी पत्नी की जान चली गई।
यदि 'वे' इस बीमारी के लक्षणों को हाथों की उँगलियों पर समझ पाती तो शायद समय रहते वो बच सकतीं थीं। हमें भी उँगलियों के पोर्वों पर उभरने वाले इन लक्षणों के समझने का ठीक ढंग से अभ्यास करना चाहिए जिससे हम स्वम भी बच सकते है और औरों को भी बचा सकते है। "श्री माता जी" ने हम सबको ये अदभुत ज्ञान दिया है। "ध्यान कोई चमत्कार नहीं है केवल और केवल अभ्यास है।"
और अब हम चर्चा करेंगे उँगलियों के पोर्वों पर उत्पन्न होने वाले अच्छे संकेतों के बारे में जो कि एक तरह से सूक्ष्मयंत्र पर स्थित देवी-देवताओं की प्रसन्नता को प्रगट करते है। जिसके परिणाम स्वरुप हमारे शरीर के अंगरोग-रहित अवस्था को दर्शाते हैं। यानी उपरोक्त नाकारात्मक चिन्ह प्रगट हो तो समझ लेना चाहिए कि हमारेगण-देवता नाराज है। देवताओं की ख़ुशी निम्न प्रकार के संकेतों से जाहिर होती है:--
i) उँगलियों के पोर्वों पर ठंडा-ठंडा लगना:- ये वो स्थिति होती है जब परमात्मा की शक्ति हमारे चक्रों को छूती है और चक्र पहले से ही ठीक होते हैं परन्तु सोये होते हैं और वे जाग जाते है। यानी उस चक्र के देवता 'माँ आदि' को पाकर खुश होते हैं और अपनी ख़ुशी का इजहार ठंडक देकर कर रहे होते हैं। यानी उस चक्र से सम्बंधित अंग भी ठीक होते हैं। ये परम शक्ति की चक्रों से पहली मुलाकात की अनुभूति होती है।
......................................to be continued
"माँ आदि शक्ति" की अभिव्यक्ति यूँ तो इस रचना के कण-कण में विद्यमान है, उनकी हर 'कृति', अणुओं के समूह के रुप में प्रगट होती है और उनके भीतर होने वाली गति 'माँ आदि' की उपस्थिति को व्यक्त करती है। और ये गति हम मानवों के अन्दर भी परिलक्षित होती है।
हमारे धड़कने वाले हृदय, हमारी फड़कने वाली नब्ज, हमारे फूलते-पिचकते फेफड़े, हमारे हृदय में लहरों की तरह निरंतर उठने वाले भाव, लगातार कहीं न कहीं घूमते रहने वाला 'घुमक्कड़' चित्त और इसी के सुर में सुर मिलाते हुए आते- जाते विभिन्न प्रकार के विचार 'माँ' की उपस्थिति की ही तो कहानी कह रहे है। जो हमारे साधारण त्रि-आयामी जीवंत जीवन के कुछ प्रमाणित पहलू हैं।
पर वास्तव में 'श्री माँ' व अनेको ज्ञानियों के मुताबिक 'उनकी' वास्तविक अनुभूति हमें तब ही हो पाती है जब 'वे' स्वम इस 'ब्रहम्मांड' के परे से उतर कर हम मानवों के 'सहस्त्रारो' पर 'विराजतीं' हैं और परिणाम स्वरुप सहस्त्रार की ख़ुशी विभिन्न प्रकार की हल-चलों के रुप में प्रगट होती है जिसका जिक्र पिछले अनुभव 'चेतना का नवम' आयाम' में कर दिया गया है।
इसके उपरान्त 'वे' हमारे सूक्ष्म यंत्र (सूक्ष्म शरीर) को संचालित करने वाले अनेको ऊर्जा केन्द्रों(चक्रों) को छूती हैं व उनको जागृत करती हैं तो इस प्रक्रिया के दौरान इन केन्द्रों पर विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएं होती है। और ये भिन्न-भिन्न प्रकार की अनुभूतियाँ ही उनकी 'मौन-भाषा' है। यदि साधक इन सूक्ष्म संकेतों को समझने लगे तो उसे सत्य क़ा पूर्ण आभास होने लगेगा और उसका तादातम्य परमेश्वरी के साथ जुड़ जायेगा।
तो आज का विषय 'श्री माँ' की मौन अभियक्ति को अपने भीतर में समझना ही है। इन अनुभवों से आप सभी को गुजारने से पूर्व ही मैं छमा चाहूँगा क्योंकी यदि ये सब आपके अनुभव पर खरे न भी उतरें तो 'नाराज' न होईयेगा क्योंकी ये केवल अपने अनुभवों को बताने का एक प्रयास मात्र है, यदि इस प्रयास से किसी साधक का लाभ हो जाए तो ठीक वर्ना छोड़ दीजियेगा। मैं कोई शिक्षक नहीं हूँ वरन एक यात्री हूँ, ये केवल यात्रा के संस्मरण मात्र हैं।
हम इन सूक्ष्म प्रतिक्रियाओं को "श्री माँ" के मुताबिक अपने भीतर मुख्य चार स्थानों पर महसूस कर सकतें है।
१) सर्व प्रथम हथेली व उँगलियों के पोरवों पर:-- जब 'श्री माँ' हमारे सहस्त्रार को अपने 'प्रेम' का स्पर्श देतीं और हमारा चित्त भी उनकी अनुभूति पर होता है तो हथेली के मध्य भाग में गोल-गोल ऊर्जा के घूमने की अनुभूति होती है। इसका मतलब है कि हमारी 'माँ कुण्डलिनी" सहस्त्रार पर आ गई हैं और 'उन्होंने' 'माँ अदि शक्ति' को सहस्त्रार पर आने के लिए निमंत्रण भेजा व 'माँ आदि' शक्ति का आगमन हुआ। और यदि यह घुमाव दोनों हथेलियों में बराबर का हो तो इसका मतलब 'पूर्ण संतुलन' की स्थिति है।
और यदि केवल एक ही हाथ में हो तो दूसरे हाथ से जुड़ी नाडी व आग्न्या चक्र का क्लियर न होना है। ऐसी अवस्था में अपना चित्त 'बाधित' आग्न्या चक्र व नाडी को प्रगट करने वाली दूसरी हथेली के मध्य भाग पर कुछ देर के लिए रखेंगे तो वह भी क्लियर हो जायेगें।
चक्रों की 'पकड़'(catch) का मुख्य कारण हमारे सूक्ष्म शक्ति केन्द्रों से 'माँ अदि शक्ति' की शक्ति के प्रवाह का पूरी तरह से न गुजर पाना है। जब यह प्रवाह अवरुद्द होता या कम होता है तो मुख्य रुप से चार प्रकार से चक्रों में पकड़ महसूस होती है।:--
i)उंगली के पोर्वे पर सुई चुभने जैसी तीखी चुभन:- यदि किसी भी चक्र में इस प्रकार की अनुभूति हो तो ये समझ लेना चाहिए कि उस चक्र से सम्बंधित मुख्य अंग में कोई गंभीर रोग है और वो बड़ी ही 'क्रिटिकल' स्टेज पर है। तो ऐसी स्थिति में अपने चित्त को उसी बाधित उंगली के चक्र पर रख कर अपने सहस्त्रार से ऊर्जा को लेकर उस उंगली पर डालें या उंगली को अपने उस हाथ के अंगूठे से गोल-गोल घुमाएंगे तो थोडा बहुत आराम पड़ जाएगा परन्तु किसी डाक्टर को अवश्य दिखाएँ क्योंकी ये संकेत किसी रोग के स्थित हो जाने के हैं।
जब ये नकारात्मक अनुभूति हो तो ये जरूर देख लें कि उस समय आपका 'चित्त' कहाँ पर है। हो सकता है ये संकेत आपके न होकर उसके हों जिसके बारे मैं आप सोच रहे हों। यदि हमारा चित्त हमारे पर होता है तो ये परेशानी हमारी होती है और यदि हमारा चित्त किसी और पर है तो ये दिक्कत किसी दूसरे की हो सकती है।
यह बहुत महत्वपूर्ण है कि अपने चित्त को समझना वर्ना गलत तथ्य पर पहुँच जायेंगे और गलत नतीजा निकालेंगे। अमूमन 95% सहजी चित्त की ओर न ध्यान देने के कारण गलत निर्णयों पर ही पहुँचते हैं और कभी अपने को तो कभी दूसरों को दोष दे देते है। एक और अनुभव है जिससे हम जान सकते है कि हमारा निर्णय गलत है या सही है और वो है "ये देखना कि यदि मैं अमुक निर्णय ले रहा हूँ और उसे मैं सही समझता हूँ तो क्या ऐसा सोचते हुए मुझे हाथों में ठंडा लग रहा है या गरम।" इससे भी आपके निर्णय लेने में मदद मिल जायगी।
ii) उंगली के पोर्वे पर जलन जैसी महसूस होना:- इस प्रकार का संकेत हमारे स्वभाव(tendency) को प्रगट करता है। यानी कि हम जाने-अनजाने में उस चक्र के देवता को रुष्ट कर रहे होते है। हमारे अमुक बात सोचने या अमुक कार्य करने से 'वह' देवता नाराज हो रहे है और अपनी प्रतिक्रिया स्वरुप हमें जलन देकर चेतावनी दे रहे हैं, मानो कह रहे हों कि "मान जाओ सत्य के रास्ते पर आ जाओ वर्ना इस चक्र से जुड़े तुम्हारे अंगों को खराब कर दूंगा।" जैसे कोई भी मशीन ख़राब होने से पहले अपनी खराबी को किसी न किसी आवाज या असंतुलन को प्रगट करके हमें पहले ही बता देती है कि मुझे ठीक करवा दो अब मैं रुकने वाली हूँ।
iii) उंगली के पोर्वे पर दवाब जैसा महसूस होना:- ये एक प्रकार की अस्थाई पकड़ है, हमारे मन में अक्सर कई प्रकार के भाव आ जा रहे होते हैं, हमारा मन 24 घंटे में तीनो ही प्रकार के मनोभावों यानी राजसिक, तामसिक व सात्विक इत्यादि, से जरूर गुजरता है और इसी बीच ना-ना प्रकार की स्मृतियों से भी गुजरता है व हमारे मन में अक्सर कहीं न कहीं लिप्तता आ जाती है और यदि वह चिपक, जाने-अनजाने में प्रकृति या परमात्मा के खिलाफ होती है तो अक्सर इसी प्रकार के दवाब या उंगली के पकड़ने जैसी अनुभूति होती है। इससे कोई खास परेशानी नहीं होती। ये हल्का सा दवाब हमें बता रहा होता है कि कब-कब हम परमात्मा के सहयोगी हैं और कब-कब उनके अनजाने में विरोधी हो जाते है।
जब-जब भी हमारा मन या हम किसी भी भौतिक स्थिति या वस्तु में लिप्त हो जाते हैं तो ऊर्जा के प्रवाह में हल्की सी कमी आ जाती है। यदि मध्य हृदय व सहस्त्रार चक्र ठीक हों और बाकी के पांच चक्रों में पकड़ हो तो भी चिंता की कोई खास बात नहीं है ये स्वत: ही ठीक हो जायेंगे। क्योंकी मन के अनेकों परिस्थितियों से गुजरने के कारण ही ये पांचो चक्र प्रभावित हो रहे हैं। ये दो मुख्य चक्र यानी सहस्त्रार व मध्य हृदय ठीक होने आवश्यक हैं।
iv) उँगलियों का या उँगलियों के पोर्वों का सुन्न हो जाना:- ये स्थिति अच्छी नहीं है, इसका एकमात्र मतलब है कि उस चक्र से सम्बंधित अंग में उसकी जीवन दायनी शक्ति का न पहुँच पाना, यानि उस अंग या चक्र को पोषण मिलना बिलकुल ही बंद हो गया है। यानी वो स्थान ऊर्जा की मुख्य धारा से अलग हो गया है। ये काफी गंभीर बात है। ऐसा यदि काफी लम्बे समय से हो रहा है तो इसका मतलब उस शरीर के भाग में "गैंगरीन" नाम का 'विषाणु' जागृत' हो गया है और या हमारी मुख्य नर्व(Nerv) का सम्बन्ध मस्तिष्क से समाप्त हो गया है। यानी 'ब्रेन स्ट्रोक'का खतरा भी हो सकता है। और यदि ऐसी स्थिति प्रगट हो तो तुरंत 'आपरेशन' कराना जरूरी हो जाता है।
क्योंकी इस 'विषाणु' के एक्टिवेट होने का मतलब 'खून के दौरे' का पूर्णत: अवरुद्द हो जाना ही है। यह blood circulation के रुकने के बाद ही दिखाई देता है। ज्यादातर यह अत्यधिक 'बर्फीले' व ठन्डे स्थानों पर रहने वालेलोगों के बीच असर करता है। इसका एक और कारण है, यदि हमारा 'दिल' खून के थक्के(blood clot) बनाना शुरू कर दे तो भी ये समस्या आ सकती है, और खून के थक्के भी खून के दौरे को रोक देते है।
यदि यह पेट में जाग जाये तो 'आँतों' को गलाना शुरू कर देता है। शरीर के जिस भाग में भी यह जागरूक होगा उसी को गला डालेगा। इसे 'सेप्टिसीमिया' भी कहते है। मेरे सामने एक सहजी का केस ऐसा भी आ चुका है और उनकी इसी के कारण मृत्यु भी हो गई थी। कहने के वाबजूद भी उनके पतिदेव ने उसे गंभीरता से नहीं लिया था, तुरंत आपरेशन कराने की जरुरत के वाबजूद भी उन्होंने अपनी चलाई जिसके परिणाम स्वरुप उनकी पत्नी की जान चली गई।
यदि 'वे' इस बीमारी के लक्षणों को हाथों की उँगलियों पर समझ पाती तो शायद समय रहते वो बच सकतीं थीं। हमें भी उँगलियों के पोर्वों पर उभरने वाले इन लक्षणों के समझने का ठीक ढंग से अभ्यास करना चाहिए जिससे हम स्वम भी बच सकते है और औरों को भी बचा सकते है। "श्री माता जी" ने हम सबको ये अदभुत ज्ञान दिया है। "ध्यान कोई चमत्कार नहीं है केवल और केवल अभ्यास है।"
और अब हम चर्चा करेंगे उँगलियों के पोर्वों पर उत्पन्न होने वाले अच्छे संकेतों के बारे में जो कि एक तरह से सूक्ष्मयंत्र पर स्थित देवी-देवताओं की प्रसन्नता को प्रगट करते है। जिसके परिणाम स्वरुप हमारे शरीर के अंगरोग-रहित अवस्था को दर्शाते हैं। यानी उपरोक्त नाकारात्मक चिन्ह प्रगट हो तो समझ लेना चाहिए कि हमारेगण-देवता नाराज है। देवताओं की ख़ुशी निम्न प्रकार के संकेतों से जाहिर होती है:--
i) उँगलियों के पोर्वों पर ठंडा-ठंडा लगना:- ये वो स्थिति होती है जब परमात्मा की शक्ति हमारे चक्रों को छूती है और चक्र पहले से ही ठीक होते हैं परन्तु सोये होते हैं और वे जाग जाते है। यानी उस चक्र के देवता 'माँ आदि' को पाकर खुश होते हैं और अपनी ख़ुशी का इजहार ठंडक देकर कर रहे होते हैं। यानी उस चक्र से सम्बंधित अंग भी ठीक होते हैं। ये परम शक्ति की चक्रों से पहली मुलाकात की अनुभूति होती है।
ii) उँगलियों के पोर्वों पर स्पंदन के साथ ठंडक का अनुभव होना:- ये हालात चक्रों की बहुत ही अच्छी दशा का वर्णन कर रहे होते हैं। ऐसी दशा में चक्र 'आदि शक्ति' को पाकर अच्छे से चल रहे होते हैं और चलते हुए अपनी-अपनी शक्तियों को भी 'आदि शक्ति' के प्रवाह में उड़ेल रहे होते है।
और ये मिश्रित शक्ति सारे सूक्ष्म यंत्र में घूम कर हाथो की उँगलियों के पोर्वों के माध्यम से पुन: प्रवाहित हो रही होती है जिसके कारण उँगलियों के पोर्वों में स्पंदन के साथ शीतलता (chilling) की स्थिति बनती है। यानी की शरीर के उस चक्रों से सम्बंधित अंग बहुतअच्छी दशा में हैं और वे और भी पुष्ट हो रहे है। यानी उन चक्रों के देवी-देवता बहुत ही खुश हैं और खुश होकर उन स्थानों को या हमें आशीर्वादित कर रहे होते हैं।
यदि हमारी दोनों हथेलियों व उँगलियों के पोर्वों पर हमें बहुत तेज चैतन्य लहरियां (vibrations) महसूस हो रहींहों तो ये समझना चाहिए कि हमारे दोनों विशुद्धि चक्र ठीक काम कर रहे हैं। क्योंकी यदि हम दोनों हाथों के जरियेचैतन्य को चैक करते हैं तो वो केवल अपने विशुधि चक्र की मदद से ही चैक कर रहे होते हैं।
कभी- कभी ये ऊर्जाहमारे दोनों बजुयों व गले में प्रवाहित होती महसूस होती है तो इसका मतलब हमारी 'विराट' की नाड़ियों को पुष्टकरना ही है, ये स्थिति हमारे लिए काफी अच्छी होती है। हमारे दोनों हाथ, बाजू, कंधे व उँगलियाँ हमारे विशुद्धि चक्र को ही परिलक्षित करते हैं। हाथों का इस्तेमाल चैतन्य को महसूस करने के लिए हमारा प्रारंभिक अध्याय है।
२) दूसरे पावों के तालू व पांवो की उँगलियों पर होने वाली अनुभूति:-
"विशुद्धि चक्र के माध्यम से यदि हम चैतन्य को महसूस करते है तो ये चैतन्य हमारी अध्यात्मिक स्थिति को प्रगट करता है और बताता है कि हमारे हृदय में परमात्मा व उसकी शक्ति के लिए विश्वास व स्थान है।" और यदि यही चैतन्य हमारे पांवों व पांवो की उँगलियों पर महसूस होता है तो यह हमारी भौतिक जगत व सांसारिक जगतकी गति विधियों में पूर्णतया 'लिप्त चित्त' को ही प्रगट करता है।
यानी कि आत्मसाक्षात्कार लेने के वाबजूद हमारा चित्त केवल अपने सांसारिक जीवन पर ही केन्द्रित है। तो ऐसी दशा में हमारे पावों की उँगलियों पर पकड़ आती है। कभी हमारे घुटने दर्द करते हैं तो कभी हमारे टखने दर्द कर रहे होते हैं और कभी-कभी तो हमारी एड़ी(heel) में काफी दर्द होता है।
हमारे घुटने दो प्रकार के रोगों के कारण दर्द करते है। जिसे गठिया(Arthritics) और दूसरे को वात युक्त गठिया(Rheumatic Arthritics) कहा जाता है। पहले प्रकार की गठिया में साधक का चित्त पूरी तरह से भव-सागर में लिप्त होता है। वो अपने जीवन में भावनात्मक रुप से लिप्त होता है तो उसका बांया (left) घुटना दर्द करता है और यदि वो अपने बाहरी सुख-सुविधाओं के आभाव को महसूस कर रहा होता है तो उसका दायाँ(Right) घुटना दर्द करता है।
दूसरे प्रकार के घुटने के दर्द(Rheumatic) में साधक ध्यान करता है चैतन्य को महसूस करता है परन्तु अन्य लोगों को इसका लाभ नहीं देता। उसके जोड़ो में चैतन्य एकत्रित हो जाता है जो वात-रोग के रुप में प्रगट होता है। यदि कोई साधक निरंतर लोगो को जाग्रति देता जाए तो आसानी से उसे कोई भी परेशानी या शारीरिक रोग नहीं हो पायेगा।
हम कुछ रोगों व परेशानियों को अपने प्रारब्ध से भी कमाकर लाते हैं, वो भी समय-समय पर हमारे सामने आते रहते हैं और परिणाम स्वरुप कभी परेशानी व बीमारी के रुप में प्रगट होते है। इनसे कभी भी घबराना नहीं चाहिएऔर ना ही इनकी ज्यादा चिंता ही करनी चाहिए। ये अपने समय पर स्वत: ही चले जायेंगे।
कष्टों की दशा में अपनेआप को और भी ज्यादा जागृति के कार्य में संलग्न कर लेना चाहिए जिससे हमारा चित्त 'श्री माँ' पर ही केन्द्रित रहसके ताकि ज्यादा से ज्यादा चैतन्य की कमाई हो सके जिससे प्रारब्ध के कष्ट कम महसूस होंगे व हम जल्दी परेशानी से मुक्त व स्वस्थ हो जायेंगे। "वास्तव में रोग हमारे मन में लगता है और हमारे तन पर दिखाई देता है।"
इसीलिए कहा गया है कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। प्रभु के ध्यान से वास्तव में हमारा मन ही प्रसन्न होता है यानी हमारे केन्द्रों पर 'माँ आदि' की शक्ति पहुचने के कारण हमारे देवता खुश हो जाते हैं और वो हमारे मन को भीखुश कर देते है।
हमारी कमर से नीचे यानि पावों की उँगलियों में जो भी केंद्र हैं उनमें आने वाली पकड़ हमारी पूरी तरह संसारिकता में डूबने व उन सांसारिक कार्यों के न पूर्ण होने की ही कहानी कहती है। यदि हम जागरूक नहीं हैं तो हम सब के साथ अक्सर ऐसा होता रहता है। कभी हम चैतन्य के रुप में परमात्मा को महसूस कर रहे होते हैं तो कभी केवल और केवल पूरी तरह से संसार में या सांसारिक, शारीरिक या मानसिक गतिविधियों में ही लिप्त होते है। जिसके कारण हमें निचले(पावों) चक्रों के केन्द्रों पर नकारात्मक या सकारात्मक ऊर्जा महसूस होती है।
यदि परमात्मा ने हमारा कोई सांसारिक कार्य किसी देवता के माध्यम से बना दिया तो उस खास चक्र के देवता के द्वारा वो कार्य हुआ है तो उस खास चक्र की पावों की उंगली पर सकारात्मक ऊर्जा महसूस होगी और यदि काम नहीं बना है तो उसी खास चक्र पर पकड़ महसूस होगी। इसका मतलब वो विशिष्ट देवता हमसे या हमारे कार्यों से खुश या संतुष्ट नहीं है। यानी कि हम केवल अपने संसार को अच्छा बनाने के लिए ही परमपिता से जुड़े हैं और उनकी शक्तियों का इस्तेमाल केवल अपने भौतिक जीवन को तुष्ट करने के लिए ही कर रहे हैं। आज के लिए इतना ही, कल फिर इससेआगे की बात होगी, 'शुभ रात्री'।
और ये मिश्रित शक्ति सारे सूक्ष्म यंत्र में घूम कर हाथो की उँगलियों के पोर्वों के माध्यम से पुन: प्रवाहित हो रही होती है जिसके कारण उँगलियों के पोर्वों में स्पंदन के साथ शीतलता (chilling) की स्थिति बनती है। यानी की शरीर के उस चक्रों से सम्बंधित अंग बहुतअच्छी दशा में हैं और वे और भी पुष्ट हो रहे है। यानी उन चक्रों के देवी-देवता बहुत ही खुश हैं और खुश होकर उन स्थानों को या हमें आशीर्वादित कर रहे होते हैं।
यदि हमारी दोनों हथेलियों व उँगलियों के पोर्वों पर हमें बहुत तेज चैतन्य लहरियां (vibrations) महसूस हो रहींहों तो ये समझना चाहिए कि हमारे दोनों विशुद्धि चक्र ठीक काम कर रहे हैं। क्योंकी यदि हम दोनों हाथों के जरियेचैतन्य को चैक करते हैं तो वो केवल अपने विशुधि चक्र की मदद से ही चैक कर रहे होते हैं।
कभी- कभी ये ऊर्जाहमारे दोनों बजुयों व गले में प्रवाहित होती महसूस होती है तो इसका मतलब हमारी 'विराट' की नाड़ियों को पुष्टकरना ही है, ये स्थिति हमारे लिए काफी अच्छी होती है। हमारे दोनों हाथ, बाजू, कंधे व उँगलियाँ हमारे विशुद्धि चक्र को ही परिलक्षित करते हैं। हाथों का इस्तेमाल चैतन्य को महसूस करने के लिए हमारा प्रारंभिक अध्याय है।
२) दूसरे पावों के तालू व पांवो की उँगलियों पर होने वाली अनुभूति:-
"विशुद्धि चक्र के माध्यम से यदि हम चैतन्य को महसूस करते है तो ये चैतन्य हमारी अध्यात्मिक स्थिति को प्रगट करता है और बताता है कि हमारे हृदय में परमात्मा व उसकी शक्ति के लिए विश्वास व स्थान है।" और यदि यही चैतन्य हमारे पांवों व पांवो की उँगलियों पर महसूस होता है तो यह हमारी भौतिक जगत व सांसारिक जगतकी गति विधियों में पूर्णतया 'लिप्त चित्त' को ही प्रगट करता है।
यानी कि आत्मसाक्षात्कार लेने के वाबजूद हमारा चित्त केवल अपने सांसारिक जीवन पर ही केन्द्रित है। तो ऐसी दशा में हमारे पावों की उँगलियों पर पकड़ आती है। कभी हमारे घुटने दर्द करते हैं तो कभी हमारे टखने दर्द कर रहे होते हैं और कभी-कभी तो हमारी एड़ी(heel) में काफी दर्द होता है।
हमारे घुटने दो प्रकार के रोगों के कारण दर्द करते है। जिसे गठिया(Arthritics) और दूसरे को वात युक्त गठिया(Rheumatic Arthritics) कहा जाता है। पहले प्रकार की गठिया में साधक का चित्त पूरी तरह से भव-सागर में लिप्त होता है। वो अपने जीवन में भावनात्मक रुप से लिप्त होता है तो उसका बांया (left) घुटना दर्द करता है और यदि वो अपने बाहरी सुख-सुविधाओं के आभाव को महसूस कर रहा होता है तो उसका दायाँ(Right) घुटना दर्द करता है।
दूसरे प्रकार के घुटने के दर्द(Rheumatic) में साधक ध्यान करता है चैतन्य को महसूस करता है परन्तु अन्य लोगों को इसका लाभ नहीं देता। उसके जोड़ो में चैतन्य एकत्रित हो जाता है जो वात-रोग के रुप में प्रगट होता है। यदि कोई साधक निरंतर लोगो को जाग्रति देता जाए तो आसानी से उसे कोई भी परेशानी या शारीरिक रोग नहीं हो पायेगा।
हम कुछ रोगों व परेशानियों को अपने प्रारब्ध से भी कमाकर लाते हैं, वो भी समय-समय पर हमारे सामने आते रहते हैं और परिणाम स्वरुप कभी परेशानी व बीमारी के रुप में प्रगट होते है। इनसे कभी भी घबराना नहीं चाहिएऔर ना ही इनकी ज्यादा चिंता ही करनी चाहिए। ये अपने समय पर स्वत: ही चले जायेंगे।
कष्टों की दशा में अपनेआप को और भी ज्यादा जागृति के कार्य में संलग्न कर लेना चाहिए जिससे हमारा चित्त 'श्री माँ' पर ही केन्द्रित रहसके ताकि ज्यादा से ज्यादा चैतन्य की कमाई हो सके जिससे प्रारब्ध के कष्ट कम महसूस होंगे व हम जल्दी परेशानी से मुक्त व स्वस्थ हो जायेंगे। "वास्तव में रोग हमारे मन में लगता है और हमारे तन पर दिखाई देता है।"
इसीलिए कहा गया है कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। प्रभु के ध्यान से वास्तव में हमारा मन ही प्रसन्न होता है यानी हमारे केन्द्रों पर 'माँ आदि' की शक्ति पहुचने के कारण हमारे देवता खुश हो जाते हैं और वो हमारे मन को भीखुश कर देते है।
हमारी कमर से नीचे यानि पावों की उँगलियों में जो भी केंद्र हैं उनमें आने वाली पकड़ हमारी पूरी तरह संसारिकता में डूबने व उन सांसारिक कार्यों के न पूर्ण होने की ही कहानी कहती है। यदि हम जागरूक नहीं हैं तो हम सब के साथ अक्सर ऐसा होता रहता है। कभी हम चैतन्य के रुप में परमात्मा को महसूस कर रहे होते हैं तो कभी केवल और केवल पूरी तरह से संसार में या सांसारिक, शारीरिक या मानसिक गतिविधियों में ही लिप्त होते है। जिसके कारण हमें निचले(पावों) चक्रों के केन्द्रों पर नकारात्मक या सकारात्मक ऊर्जा महसूस होती है।
यदि परमात्मा ने हमारा कोई सांसारिक कार्य किसी देवता के माध्यम से बना दिया तो उस खास चक्र के देवता के द्वारा वो कार्य हुआ है तो उस खास चक्र की पावों की उंगली पर सकारात्मक ऊर्जा महसूस होगी और यदि काम नहीं बना है तो उसी खास चक्र पर पकड़ महसूस होगी। इसका मतलब वो विशिष्ट देवता हमसे या हमारे कार्यों से खुश या संतुष्ट नहीं है। यानी कि हम केवल अपने संसार को अच्छा बनाने के लिए ही परमपिता से जुड़े हैं और उनकी शक्तियों का इस्तेमाल केवल अपने भौतिक जीवन को तुष्ट करने के लिए ही कर रहे हैं। आज के लिए इतना ही, कल फिर इससेआगे की बात होगी, 'शुभ रात्री'।
....Narayan
"Jai Shree Mata Ji"
"Jai Shree Mata Ji"
......................................to be continued
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