"निर्थक-भेद-भाव"
"ये अक्सर देखने में आता है कि आम लोगों से कहीं ज्यादा कुछ 'सहजी' आपस में भेद-भाव प्रकट करते रहते हैं, छोटी छोटी बातों को लेकर एक-दूसरे पर नकारात्मक टिप्पड़ी करते रहते हैं जबकि सभी "श्री माँ" के माध्यम से 'पुनर्जागृत' किये गए है।
यह देखकर बहुत ही आश्चार्य होता है कि हम सभी को समस्त ज्ञान देने वाली केवल और केवल "श्री माता जी" हैं फिर भी एक-दूसरे पर अपना तथा-कथित ज्ञान लाद कर स्वम् को श्रेष्ठ व् दूसरे को निम्न साबित कर के एक-दूसरे को नीचा दिखने का प्रयास करना कितना हास्यपद व् अशोभनीय प्रतीत होता है ।
इसका क्या कारण है ?, मेरी चेतना के अनुसार हमारे मन में समय समय पर संचित होने वाली 'ज्ञान-सूचनाओं' को यदि अनुभव न करके देखा जाए तो उन सभी सूचनाओं पर हमारा "दाहिना आज्ञा" प्रतिक्रिया कर हमें अपने तुलनात्मक विकल्प देता रहता है।
जिनके आधार पर हम दूसरों के कार्यों की आलोचना करना प्रारम्भ कर देते हैं क्योंकि दूसरों के कार्य हमारे मन के 'स्मृति-कोष' में स्थित तथ्यों से मैच नहीं हो पाते।
इस प्रकार की समस्त बातें उत्थान के स्थान पर पतन की ओर ले जाने में सक्षम हैं।जो भी'सहजी' इस प्रकार की बातों में लिप्त रहते है वो निश्चित रूप से कहीं के भी नहीं रहने वाले।
ताकि हमारी 'आत्मा' हमारा मार्ग-दर्शन कर सके व् हमारे इसी जीवन काल में हमें मुक्त-अवस्था को उपलब्ध करा कर "परमेश्वरी" की इच्छानुसार चलने योग्य बना सके।"
---------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"
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