"खून के रिश्ते"
"आत्म-साक्षात्कार प्राप्त कर ध्यान में गहन होने के उपरान्त भी एक साधक/साधिका से जुड़े खून के रिश्ते यदि आत्मा के रिश्तों में परिवर्तित न हो पायें तो खून के रिश्ते अकसर खून ही पीते हैं।
यदि किसी साधक/साधिका के जीवन में ऐसा घटित हो रहा है तो उसे उन समस्त रिश्तों दूरी बना लेनी चाहिए।
यदि बाहर से दूरी बनाना संभव न हो तो कम से कम भीतर से जरूर दूरी बना लेनी चाहिए। और बाहरी रूप से जुड़े रहकर उन रिश्तों के प्रति अपने आवश्यक कर्तव्यों का निर्वहन भी जरूर करते रहना चाहिए।
अक्सर पीड़ा देने वाले ऐसे रिश्ते अंततः एक-दूसरे को पतन की ओर ही ले जाते हैं, ऐसे रिश्तों का कोई मोल नहीं है।
रिश्तों का वास्तविक मतलब एक-दूसरे को हर प्रकार से उत्थान की ओर अग्रसर करना है। वर्ना इन्हें मजबूरन ढोने के स्थान पर इन्हें समाप्त करना ही श्रेष्ठ है।
क्योंकि 'जाग्रति' से पूर्व ये रिश्ते प्रारब्ध के परिणाम स्वरुप ही हमें मिलतें हैं। वास्तव में 'हृदय के रिश्ते' ही केवल रिश्ते होते हैं अन्यथा बोझा होतें हैं।"
------------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"
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