"दिवंगत-जीवात्मा-कल्याण-प्रार्थना"
"हम सभी समय समय पर अपने परिचितों, रिश्तेदारों व पारिवरिक सदस्यों की मृत्यु पर उनके दुख में शरीक होने के लिए जाते रहते हैं और अक्सर दाह संस्कार में भी उपस्थित होते हैं।
दाह संस्कार के समय अथवा उसके उपरांत हम देखते हैं कि संस्कार कराने वाले आचार्य दाह संस्कार के समय व संस्कार के बाद कुछ मंत्रोचारण करते हुए, संस्कारकर्ता से कुछ न कुछ कर्म भी अवश्य कराते हैं।
संस्कारकर्ता के द्वारा कराए जाने वाले सभी कर्मकांडों के पीछे यह मान्यता है कि ऐसा करने से दिवंगत की जीवात्मा को बहुत लाभ होगा और वह जीवात्मा उन संस्कारों की शक्ति से परिजनों को बाद में तंग भी नहीं करेगी।
जरा सच्चे हृदय से अपनी चेतना को अपनी आत्मा के साथ जोड़कर इन समस्त कर्मकांडों के बारे में कुछ मिनट चिंतन करके अवश्य देखें कि क्या यह वास्तव में घटित होता है ?
*क्या किसी भी मानव के नकारात्मक कर्मों को किसी अन्य के द्वारा सम्पन्न किये गए इन कर्मकांडों के जरिये सन्तुलित अथवा निष्क्रिय किया जा सकता है ?*
*यदि ऐसा हो जाय तो कर्मफल का सिद्धांत ही बदल जाएगा और बुरे से बुरे कर्म करने वाले मनुष्य की जीवात्मा इस प्रकार के कर्मकांड से मुक्त हो जाएगी और "ईश्वरीय" विधान व्यर्थ हो जाएगा।*
वास्तविकता यह है कि यह सभी कर्मकांड केवल और केवल परिजनों के मन की सन्तुष्टि व शांति के लिए ही सम्पन्न किये जाते हैं यदि यह सब न किये जायें तो परिजन अत्यंत भयभीत व आशंकित हो जाएंगे।
क्योंकि यह सभी कर्मकांड सदियों से होते आ रहे हैं और आम जनमानस के मन में इन सभी की स्मृतियाँ अत्यंत प्रगाढ़ होकर एक संस्कार ही बन गईं हैं जिनकी पूर्ति न होने पर मन के भीतर भय व असन्तुष्टि की उत्पत्ति होने लगेगी।
*जबकि सत्य यह है कि जब पार्थिव शरीर को पवित्र अग्नि के हवाले कर दिया जाता है तो आम जनो की जीवात्मा भी उक्त मानव के कार्मिक आधार पर उस शरीर के मोह को त्याग कर "परमात्मा" के द्वारा निर्धारित स्थान की ओर अग्रसर हो जाती है।*
*उस जीवात्मा का कोई भी लेना देना परिजनों के साथ शेष नहीं रह जाता है बशर्ते परिजन अपनी अज्ञानता, कर्मकांड व पारिवारिक परिपाटी के चलते उस जीवात्मा के मोह को न जगाएं।*
वास्तव में जब उस जीवात्मा के परिजन किसी न किसी कर्मकांड व पारिवारिक रीति रिवाजों के कारण उस जीवात्मा को बारम्बार बुलाते रहते हैं तो जीवात्मा को बहुत पीड़ा होती है।
*जिसके कारण वह अत्यंत कुपित हो जाती है और नाराज होकर परिजनों का अहित करना प्रारम्भ कर देती है जिसे पितृ दोष कहा जाता है।*
और इसके निवारण के लिए परिजन किसी पंडित अथवा किसी तांत्रिक के पास हर वर्ष जाते रहते हैं और सारा जीवन डर में ही बिताते हैं।
यदि हम वास्तव में किसी दिवंगत की जीवात्मा के लिए कुछ करना चाहते हैं तो उसके लिए केवल और केवल सच्चे हृदय से प्रार्थना करना ही काफी होता है।
हम सभी मृत्युपरांत होने वाली शोक सभाओं/शांति प्रार्थनाओं व हवन आदि में अक्सर शामिल होते रहते हैं।
विशेष तौर पर तेहरवीं के अवसर पर दिवंगत जीवात्माओं के अच्छे कार्यों,सांसारिक व आध्यात्मिक उपलब्धियों की अनुशंसा करने के लिए भी एकत्रित होते हैं।
उस समय हम सभी को पूर्ण श्रद्धा व प्रेम के साथ उनकी 'जीवात्मा' के लिए "परमपिता" से प्रार्थना करनी चाहिए हैं "वे" उनकी 'जीवात्मा' को अपने "श्री चरणों" में स्थान दें।
ऐसे अवसरों पर हममें से कई लोगों के मन के भीतर कुछ प्रश्न भी कभी कभी कुलबुलाते होंगे कि,
हम सभी सदा से अनेको धार्मिक पुस्तकों व अपने सद्गुरुओं, संतो व विद्वानों से सुनते आए हैं कि जो भी इस धरा पर मानव देह में जन्म लेके आया है।
उसको यह पंच तत्व धारी बाह्य आवरण को त्याग कर एक न एक दिन जाना होगा।
तो क्या हममें से कुछ ने कभी यह विचारा है कि,
*जब हमें वापस लौट के जाना ही है तो हमें इस वसुंधरा पर आखिर किस लिए मानव देह रूपी आवरण में उतारा गया है ?*
*क्यों हमें एक परिवार के रूप में रखा गया ?*
*वास्तव में हम यहां किस कार्य के लिए जन्में है?*
तो इन प्रश्नों में उत्तर में हममें से बहुत से लोग अक्सर विचारा करते हैं कि,
*हम तो यहां अपने अधूरे कार्यों को पूर्ण करने व अपने कर्मों को काटने के लिए आये हैं।*
ऊपरी तौर से यदि देखा जाय तो यह बात एक दम सही प्रतीत होती है।
किन्तु इसी के साथ एक और प्रश्न स्वाभिक रूप से उठता है कि,
*जब हमारा जन्म पहली बार इस धरा पर हुआ था तो पहली बार में हमें किन कर्म फलों को भोगने के लिए जन्म दिया गया ?*
*और जब हमें जन्म ही प्रथम बार लिया तो भला हमारे पिछले काम अधूरे कैसे रह सकते हैं ?*
तो इन प्रश्नों के उत्तर में हमारी चेतना केवल इतना ही कहना चाहती है कि,
*"श्री पार ब्रह्म परमेश्वर" ने अपनी इच्छा से इस जगत की रचना की और हम सभी,'अपने अंशों' को मानव देह प्रदान कर अपनी इस रचना का आनद उठाने के लिए भेजा है।*
*किन्तु हममें से अनेको मानव उनकी इस सुंदर रचना के सौंदर्य से अभिभूत होकर इस रचना में लिप्त हो जाते हैं और वापस अपने वास्तविक "माता-पिता" के पास जाना भूल जाते हैं।*
*इसीलिए "सर्वशक्तिमान"
ने मानव शरीर के लिए एक काल सुनिश्चित किया जिसके पूरा होने के कुछ पल पूर्व "वह" 'अपनी प्रतिनिधि' 'मृत्यु' को हमें अपने पास वापस बुलाने के लिए भेजते है।*
यानि कि देह का त्याग करना हर्षकारी है न कि दुख का पर्याय, क्योंकि बालक अपने 'माता-पिता' के पास वापस चला गया है, उसको अपने पास पुनः पाकर हमारे "माता-पिता" भी अत्यंत प्रसन्न होते हैं।
*अतः हम सभी को अपने परिजनों/परिचितों/रिश्तेदारों के 'ब्रह्म गमन' के लिए कभी भी शोक नहीं करना चाहिए।*
वरन, जाने वाले कि 'जीवात्मा' के लिए हृदयगत सद भावनाएं व शुभ कामनाएं "ईश्वर" से प्रार्थना करते हुए प्रेषित करनी चाहियें ताकि 'दिवंगत जीवात्मा' को परिजनों के मोह के कारण पीड़ा न हो।
*हम सभी को "सर्वेश्वरी" ने परिवार के रूप में इसीलिए रखा ताकि सभी परिजन इस जीवन यात्रा के सुंदर अनुभवों को ग्रहण करने में प्रेमपूर्वक एक दूसरे की मदद कर सकें व हमारे इस भौतिक जीवन के बाद की अशरीरी यात्रा को सार्थक बनाने में एक दूसरे की सहायता कर सकें।*
इसीलिए हम सभी को ऐसे अवसरों पर दिवंगत जीवात्मा के कल्याण के लिए "प्रभु" से सच्चे हृदय के साथ प्रार्थना अवश्य करनी चाहिए।
ताकि देह छोड़ने वाली जीवात्मा की चेतना में शांति व "प्रभु-प्रेम" का संचार हो सके और उसकी पीड़ा में कुछ कमी आ पाए।
इस प्रार्थना को करने के लिए हम सभी को अपने मन को अपने सर के तालु भाग पर रखना चाहिए जो दसवां द्वारा कहलाता है।
और अपने चित्त को अपने मध्य हॄदय के बीचों बीच अपने अपने इष्ट का स्मरण करते हुए शुद्ध हृदय व पवित्र भावनाओं के साथ "भगवान" से प्रार्थना करनी चाहिए।
कि "वे" उनकी जीवात्मा का अंततः कल्याण करें और देह का त्याग करने वाले की जीवात्मा के लिए 'निर्वाण' का मार्ग प्रशस्त करें।"
-----------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"
25-11-2020
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