Friday, March 26, 2021

"Impulses"--546--"राक्षस/राक्षसत्व-निवारण-यज्ञ"

 "राक्षस/राक्षसत्व-निवारण-यज्ञ"


"ओम त्वमेव साक्षात "श्री कल्कि" साक्षात,

"श्री आदि शक्ति" माता जी "श्री निर्मला देवी" नमो नमः"


"हम सभी किस्से कहानियों में जाने कितने काल से सुनते रहे हैं कि,

*जब जब पृथ्वी पर अधर्म, अत्याचार, अनाचार बढ़ता है तब तब "परमपिता परमेश्र्वर" किसी किसी अवतार के रूप में जन्म लेते हैं और आसुरी शैतानी शक्तियों का संहार करते हैं।*

हमारी मानसिक जानकारी में चार प्रकार के युगों की सूचना संचित है,यानि, सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर कलियुग। अब जैसा कि हमने पूर्व कथाओं के माध्यम से जाना है कि,

'सतयुग काल में जब राक्षसी शक्तियां बढ़ती गईं तो "माँ आदि शक्ति" ने "माँ काली" "माँ दुर्गा" के रूप में अवतार लेकर समस्त राक्षसों का संहार किया।और त्रेता युग में "श्री विष्णु" ने "श्री राम" के रूप में अवतार लेकर राक्षसी राज का अंत किया।

इसके बाद "श्री विष्णु" ने द्वापर में "श्री कृष्ण" के रूप में अवतरित होकर अनेको राक्षसों को मारा। यानि इन राक्षसों का तीनो कालों में बारम्बार पुनर्जन्म होता रहा है।

तो इसका मतलब है कि इन राक्षसों ने वर्तमान काल यानि इस कलयुग में भी निश्चित रूप से अनेको रूपों में जन्म लिया होगा।

जो सदा की भांति अपने अपने साम्राज्य का विस्तार करने आम मानवों को अपना गुलाम बनाने के प्रयास में निरंतर लगे हुए होंगे।

यदि हम आज के युग में पिछले कुछ वर्षों से देखें तो सारे विश्व में हाहाकार मचा हुआ है।

लगभग 6-7 वर्ष पूर्व तालिबान आई एस आई एस के आतंकवादी अत्यधिक सक्रिय थे जिन्होंने लगभग सारे विश्व में मारकाट मचा रखी थी।

और अब मानवजाति के आज तक के इतिहास का सबसे बड़ा मानवता विरोधी षड्यंत्र 'वायरस' के नाम पर चल रहा है जिसने सम्पूर्ण विश्व के आम मानवों को बुरी तरह प्रताड़ित कर रखा है।

इसके नाम पर अप्रत्यक्ष रूप से लगभग समस्त देशों के आम लोगों का धन जीवन अप्रत्यक्ष रूप से छीना जा रहा है।

ऐसा प्रतीत होता है कि इस काल में वे सभी राक्षस विश्व के लगभग सभी देशों में बड़े बड़े धनकुबेरों/राजनेताओं उच्च अधिकारियों के रूप में जन्म ले कर आये हुए हैं।

और ये सब आपस में मिल गए हैं और ये महादुष्ट इस 'झूठी महामारी' के षड्यंत्र के जरिये विश्व की आम जनता को गुलाम बनाने के स्वप्न संजो रहे हैं।

पर इन नराक्षसों का यह स्वप्न निश्चित रूप से कभी भी पूरा होने वाला नहीं है क्योंकि इस कलयुग में ये समस्त दैत्य "श्री विष्णु जी" के दशम अवतार "श्री कल्कि" के द्वारा मारे जाएंगे।

किन्तु इन राक्षसों के संहार के लिए "श्री कल्कि", जो कि एक सामूहिक अवतार हैं, उच्च कोटि के साधक/साधिकाओं को चुनेंगे जो "श्री बालक"/"श्री बालिका" के स्तर तक उन्नत हो चुके होंगे।

और "श्री बालक"/"श्री बालिका" के रूप में केवल वही साधक/साधिका विकसित हो सकते हैं जो 'पूर्ण निर्लिप्त' अवस्था को प्राप्त हो चुके हों पूर्ण साक्षी भाव में स्थित हो चुके हों।

यानि जिनके अस्तिव 'षट रिपुओं' से मुक्त हों और उनकी चेतना में नीचे दिए जा रहे इन 6 विकारों यानि, पद, पैसा, प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि, प्रशंसा पहचान के प्रति तनिक सा भी झुकाव हो।

इन छै विकारों को जरा अच्छे से समझने का प्रयास करेंगे।

हमारी चेतना ने यह अपनी सहज-ध्यान यात्रा के दौरान अनुभव किया है कि लगभग 95% सहजी इन उपरोक्त विकारों के चंगुल में फंस ही जाते हैं।

जब ये लोग सहज में अपने सहज-कार्यों सहज-गतिविधियों में अच्छे से स्थापित हो जाते हैं। तो स्वभाविक रूप से सहज समाज के सहज अनुयायी इनको पहचानने लगते हैं और इनका सम्मान करना प्रारम्भ कर देते हैं।

तब इन लोगों के भीतर अनेको प्रकार की महत्वाकांशाएँ जन्म लेने लगती हैं जो इन विकारों पर आधारित होती हैं:-

पद-इनमें से कुछ सहज अनुयायी सहज संस्था में किसी ने किसी 'पद' पर आरूढ़ होकर अपने प्रभाव को बढ़ाने बनाये रखने के प्रति लालायित रहने लगते हैं ताकि आम सहजियों पर शासन कर सकें।

पैसा-"श्री माता जी" की अनुकंपा से इनमें से बहुत से लोगों की आर्थिक स्थिति अच्छी हो जाती है तो वे ध्यान के लिए समय निकाल कर पैसे/पैसे वालों की तरफ भागना शुरू कर देते हैं।

और ऐसे लोग अक्सर सहज सहजियों से ही धन कमाने में लग जाते है फिर चाहे उन्हें कितने भी सहज-विरोधी कार्य ही क्यों करना पड़े।

प्रतिष्ठा-इनमें से कुछ सहजी अपने सहज कार्यों को करते करते आम समाज में भी प्रतिष्ठित हो जाते हैं।

और फिर अपनी प्रतिष्ठा को बनाये रखने के लोभ में ये सहज से इतर ध्यान की गहनता में उतरने के स्थान पर विभिन्न प्रकार के सामाजिक संगठनों के साथ जुड़ जाते हैं।

और बड़े बड़े लोगों/नेताओं अधिकारियों से सम्बंध बना कर अनेको प्रकार के सांसारिक लाभ भी उठाते हैं।

प्रसिद्धि-आम समाज मे प्रतिष्ठित हो जाने के उपरांत इनके भीतर अपने क्षेत्र में प्रसिद्ध होने की अभिलाषा उमड़ने घुमड़ने लगती है तो ये लोग सहज-विरोधी/विपरीत कार्यक्रमों में बढ़ चढ़ कर भाग लेना प्रारम्भ कर देते हैं।

प्रशंसा-जब प्रसिद्धि मिलना प्रारम्भ हो जाती है तो इनके भीतर एक और भूख जागृत हो जाती है और वह है प्रशंसा की।

अपनी इस क्षुधा को शांत करने के लिए नित ना ना प्रकार के कार्य करना/स्वांग भरना/बेसिर पैर का लेखन/तथ्य विहीन भाषण/ करना प्रारम्भ कर देते हैं।

जिनको देख कर बड़ी हंसी भी आती है और बेहद अफसोस भी होता है कि इन बेचारों ने अपना क्या हाल बना लिया है।

पहचान-उपरोक्त सभी विकारों से आच्छादित होने के बाद इन विकारों में सर्वोपरि विकार इनके मन/मस्तिष्क/चेतना पर अपना प्रभुत्व जमा लेता है।

यानि अपनी 'पहचान' बनाने बनाये रखने का भूत इनके सर पर चढ़ कर बोलता है तो स्थिति और भी दयनीय हो जाती है।

क्योंकि अपनी पहचान को बनाये रखने के लिए ये लोग ऐसे ऐसे कार्य/व्यवहार तक कर डालते हैं जो इनके अस्तित्व को शोभा नहीं देता।

सहज की गरिमा को तो ये लोग खंडित तो करते ही हैं बल्कि साधारण मानव अस्तित्व की शालीनता सौम्यता पर भी प्रश्न चिन्ह लगा देते हैं।

कुल मिला कर इन 6 विकारों से घिर कर ऐसे सहज अनुयाइयों का आंतरिक रूप से पतन हो जाता है किंतु बाह्य रूप से ये छदम वेश धारी सहजी नजर आते रहते हैं।

उपरोक्त 6 विकारों से दूर रहने के साथ साथ "श्री कल्कि" के उपयोगी बनने के लिए सच्चे साधक/साधिकाओं को विचारिता की चार अवस्थाओं से भी ऊपर उठना पड़ता हैं।

*'विचारिता' के लक्षण हैं चार, हानि-लाभ, मान-अपमान।'*

इन चारों मूल वर्गों में ही संसार के समस्त विचार समाए होते हैं अथवा हम कह सकते हैं कि संसार से जुड़े मानव के मन में समस्त विचारों की उत्पत्ति मन की इन्ही चार अवस्थाओं से होती है।

यानि "श्री बालक"/"श्री बालिका" मन के इन चार प्रकार के संघर्षों से परे होते हैं। ऐसे "श्री बालकों" के भीतर मन, 'अमन' में परिवर्तित हो चुका होता है और मन का कार्य हृदय कर रहा होता है।

हम यूं भी कह सकते हैं कि इन "बालकों" का मन हृदय में समा चुका होता है।

*अब जो भी प्रेरणाएं "परा शक्ति" से प्राप्त होती हैं वे सभी हृदय से ही प्रस्फुटित होती हैं।*

ऐसे "विलक्षण बालक" संसार को चलाने "उनकी" शाक्तयों के प्रवहन में "श्री परमेश्वरी" के अंग प्रत्यंग बन जाते हैं।

जिस प्रेम दृष्टि से "श्री भगवती" अपनी रचना को देखती हैं इन "बालकों" के भीतर भी लगभग वैसी ही स्थिति बनती रहती हैं।

यदि कोई दुष्ट मानव निर्दोष प्राणियों को सताता है तो "भगवती" क्रुद्ध होती हैं तो यही क्रोध नाराजगी इन "बच्चों" के हृदय में भी प्रगट होगी।

यानि जब अच्छे स्तर के साधक/साधिका "श्री बालकों" में परिवर्तित होने लगते हैं तो उनकी एकाकारिता समस्त दैवी शक्तियों के साथ स्थापित होने लगती है।

और ऐसी ही 'अलौकिक एकाकारिता' में रहने वाले "श्री बालकों" के यंत्रों के द्वारा ही। "श्री कल्कि" इस काल में सक्रिय सभी राक्षसों इन राक्षसों के सहयोगियों का संहार करने जा रहे हैं।

ऐसे "बालकों" के निर्लिप्त चित्त निर्वाजय प्रेम से परिपूर्ण चेतनाओं के माध्यम से "श्री कल्कि" अपना कार्य प्रारम्भ कर चुके हैं।

हमारी अन्तःचेतना सूक्ष्म समझ के अनुसार "श्री कल्कि" अपने कार्यों को तीन चरणों में पूर्ण करेंगे।

पहले चरण में वे "भ्रांति देवी" की सहायता से इन महाधूर्तों/महादुष्टों को अहंकार की पराकाष्ठा तक पहुंचा कर उनके द्वारा मानवता, 'प्रकृति' "परमात्मा" विरोधी कार्य करवाने के लिए और भी ज्यादा प्रोत्साहित करेंगे।

दूसरे चरण में "श्री बालको" की शुद्ध इच्छा के जरिये "वे" समस्त प्रकार के दुष्टों के षड्यंत्रों दुष्टता से परिपूर्ण कार्यों को अनावृत करेंगे।

वैसे "उन्होंने" यह कार्य पिछले कुछ समय से प्रारम्भ कर दिया है जिसके परिणाम स्वरूप अनेको षड्यंत्र आजकल तेजी के साथ अनावृत हो रहे हैं।

सरल शब्दों में कहा जाय तो इस कलयुग में समस्त राक्षसों का संहार "श्री बालकों" के सहयोग से ही होने वाला है।

इस अनुभूति के उपरांत अब हम समस्त राक्षसों की संहार प्रक्रिया का प्रारम्भ के इस विशिष्ट यज्ञ-प्रक्रिया का हिस्सा बनने जा रहे हैं।

हममें से जो भी 'जागृत साधक/साधिकाएं अपने को इस 'विलक्षण' किन्तु अति-आवश्यक सूक्ष्म घटना क्रम के योग्य समझते हैं तो वे सब पूर्ण हॄदय से तैयार होकर ध्यान मुद्रा में बैठ जाएंगे।

इसके तीसरे चरण में जब कम से कम 24 "श्री बालकों" की आवश्यकता होगी और ज्यादा से ज्यादा कितने भी हो सकते हैं।

मुक्त अवस्था का आनंद उठाने वाले हम कम से कम 24 "बालक", अपनी तीनो नाड़ियों पर स्थित तीनो महादेवियों इन नाड़ियों पर स्थित समस्त 21चक्रों के देवी देवताओं की शक्तियों का प्रतिनिध्व करने जा रहे हैं।

सर्वप्रथम अपने 'मध्य हृदय' में स्थित "श्री माँ" को पूर्ण श्रद्धा, भक्ति, विश्वास समर्पण के साथ अपने ही मध्य हृदय में साष्टांग प्रणाम करेंगे। और "उनके" प्रेम को अपने समूर्ण यंत्र में कम से कम 5 मिनट तक अनुभव करेंगे

इसके बाद गहन ध्यान में 'शून्यता की समाधि' में तब तक स्थित रहेंगे जब तक हमारी चेतना देहाभास से पूर्णतया मुक्त हो जाये।

और फिर अपने हृदय में मानवता के खिलाफ अन्याय,अत्याचार,अनाचार अपराध करने वाले नराधमो के लिए प्रचंड क्रोध की ज्वालाओं को धधकता हुआ कुछ देर तक अनुभव करेंगे।

और ऐसी अवस्था में हम सभी अपनी चेतना को अपने मध्य आगन्या के बीचों बीच ले आएंगे, 

जो स्थान मध्य आगन्या को दो बराबर भागों में विभक्त कर देता है, इसे सम+भाल+पुर भी कहा जाता है,

इसे हम 'तृतीय नेत्र' का स्थान भी कह सकते हैं, जो दोनों भवों के बीच के ठीक मध्य स्थान के ऊपर होता है,

इसके उपरांत समस्त संवेदन इंद्रियों को भी इस स्थान पर केंद्रित करके पूर्ण इच्छा शक्ति के साथ "श्री कल्कि" का आव्हान करेंगे।

तदुपरांत इस विश्व के समस्त महादुष्टों को, जो हमारे संज्ञान में हैं या जिन्हें हम जानते भी नहीं हैं,

अपने चित्त में लाएंगे और इन पर अपना ध्यान पूर्ण एकाग्रता के साथ 1-2 मिनट के लिए केंद्रित करेंगे।

कुछ समय उपरांत हमको अनुभव होगा कि "श्री कल्कि" इस पवित्र स्थान पर तीव्र ऊर्जा के रूप में सक्रिय हो रहे हैं।

जिसकी प्रतिक्रिया स्वरूप हमारे मध्य आगन्या के उक्त स्थान पर कुछ गोल गोल घूमता हुआ प्रतीत हो रहा है।

यह अनुभूति धीरे धीरे एक सुखद खिंचाव अथवा निर्वात(Vaccum) के रूप में परिवर्तित होती हुई हमें प्रतीत हो रही होगी।

और फिर "श्री कल्कि" को अपनी चेतना में अनुभव करते हुए "उनसे" इन सभी दुष्टों का सर्वनाश करने की प्रार्थना करेंगे।

और फिर "उनकी" तीव्र ऊर्जा वेग की हलचलों को उनकी 'हनन शक्तियों' के रूप में अपनी चेतना में एहसास करते हुए इन नरपिशाचों के आगन्या के ऊपर प्रवाहित करना प्रारम्भ कर देंगे।

हम ऐसा महसूस करेंगे कि मानो हमारे तृतीय नेत्र से एक तीव्र अग्नि की धारा उत्पन्न होकर हमारे चित्त में एकत्रित किये इन महाराक्षसों, शैतानों नरपिशाचों को भस्म करने लग गई है।

यदि यह प्रक्रिया एक साथ करना चाहे/ कर पा रहें हों तो एक एक करके इनके अस्तित्वों पर "श्री कल्कि" की ऊर्जा 8-10 मिनट तक लगातार प्रवाहित करते रहेंगे।

इस प्रक्रिया के अगले चरण में हम ऐसे बाधितों को अपने आगन्या-पटल पर लाएंगे जो इन राक्षसों/शैतानों के अंग प्रत्यंग बन कर इनके राक्षसी षड्यंत्रों योजनाओं को सफल बनाने में सहयोग कर रहे हैं।

और फिर पूर्व की भांति इस भस्मीकरण के यज्ञ को 7-8 मिनट के लिए पुनः दोहराएंगे।

यदि हम सभी अपनी प्रत्येक गहन ध्यान की बैठक में इस "श्री अवतरण" के द्वारा प्राप्त 'जागृति' के प्रति अवश्य भावी कर्तव्यों से परिपूर्ण प्रक्रिया को करते रहेंगे।

तो निश्चित रूप से एक समय ऐसा अवश्य आएगा जब "माँ वसुंधरा" इन सबके दुराचारों पापों से मुक्त हो जाएंगी।

यह 'पवित्र यज्ञ' हमें तब तक अपने अंतःकरण में करते रहना है जब तक कि एक भी राक्षस इस धरा पर शेष है।

वैसे एक बात तो तय है कि हम सभी अपने शरीरों की मृत्य के बाद भी इन महादैत्यों से निरंतर संघर्षरत रहने वाले हैं।

क्योंकि "श्री माता जी' ने हमें "श्री बालकों" के रूप में इसी मकसद को पूरा करने के लिए तैयार किया है।

"श्री बालक" कोई और नहीं "परम" के 'सैनिक'(Divine Solders) ही हैं जिनको "उन्होंने" अपनी इस रचना में संतुलन स्थापित करने के लिए विकसित किया है।

*हम सभी को अपना अस्तित्व का महत्व अच्छे से समझना होगा इस स्तर तक गहन ध्यान चिंतन के माध्यम से विकसित होना होगा तभी हमारा "श्री माँ" के द्वारा प्रदत्त यह अलौकिक जीवन सफल होगा।*

हमारी अंतर्चेतना हृदय भीतर में कह रहे हैं कि इस काल में जिन राक्षसों का अंत "श्री कल्कि" के द्वारा होगा उनका पुनर्जन्म युगों युगों तक लगभग असम्भव होगा।"

----------------------------------.Narayan 

"Jai Shree Mata Ji"

Note:-हमारी यह पोस्ट केवल और केवल 'चित्त' 'चेतना' से कार्य करने वाले "श्री बालक" "श्री बालिकाओं" के लिए ही है।

कृपया पढ़े/सुने/देखे/मस्तिष्क से समझे महा ज्ञानी इस पोस्ट पर व्यर्थ के नकारात्मक तर्क-कुतर्क पोस्ट करके अपनेअनुभव विहीन उधार के ज्ञानको यहां उड़ेंले और ही शास्त्रार्थ करने का मूर्खतापूर्ण प्रयास ही करें।


26-09-2020