Wednesday, March 28, 2018

"Impulses"--437--"पहचान रोग"

"पहचान रोग"

अक्सर आत्मसाक्षात्कार ध्यान का कार्य करने वाले कुछ सहजियों के साथ एक बहुत ही दुखद पहलु जुड़ जाता है। और वो है अन्य सहजियों के बीच जोड़ तोड़ करके अपनी स्वयं की पहचान बनाने बनाए रखने के लिए लालायित रहना।

जब ऐसे सहजियों की सहज यात्रा प्रारम्भ होती है तो वे अत्यंत घुटन पीड़ाओं से युक्त नारकीय जीवन जी रहे होते हैं। उस अवस्था में वो स्वम् को अत्यंत तुच्छ हींन समझते हुए अनेको प्रकार के भयों से आंतरिक रूप से संघर्ष कर रहे होते हैं।

यंहा तक कि अपने उस निम्न स्तर के जीवन से तंग आकर अपने स्थूल जीवन को समाप्त करने की इच्छा तक पाल बैठते हैं। उनको ऐसा प्रतीत होने लगता कि अब उनके जीवन में उनकी परेशानियां कभी भी समाप्त नहीं हो पाएंगी।

ऐसा सोच सोच कर वो अत्यंत परेशान रह रहे होते हैं और वे सदा अपने जीवन में अंतहीन नीरसता नैराश्य को ही निरंतर महसूस करते रहते हैं

किन्तु एक दिन "श्री कृपा" के परिणाम स्वरूप उनके जीवन में एक सुनहरी अवसर आता है जब "श्री माँ" उनकी आंतरिक छटपटाहट विकटतम परिस्थितियों से बाहर निकलने के लिए सहज योग रूपी मार्ग सुझाती हैं।

"श्री माँ" की अनुकंम्पा से वे धीरे धीरे ध्यान जागृति के कार्यों को आगे बढ़ाते जाते हैं। जिसके कारण अनेको सहजी उनके कार्यो की सराहना करने लगते हैं और उनको ढेर सारा निर्मल प्रेम भी अपने हृदयों से प्रवाहित करने लगते है।

सभी सहजियों की शुभ कामनाओं निर्वाजय प्रेम की शक्ति से उनके जीवन में सकारात्मक बदलाव आने प्रारम्भ हो जाते हैं और उनकी सांसारिक दिक्कतें घटने लगती हैं।

"माँ" की कृपा सहज साथियों के द्वारा मार्ग सुझाने के कारण धीरे धीरे उनकी चेतना थोड़ी थोड़ी उन्नत होने लगती है जिससे उनका संकुचित नजरिया वृहद होने लगता है और वे अब अपने जीवन को और अच्छा बनाने की ओर अग्रसर होने लगते हैं।

उनके जीवन के हर प्रकार के सांसारिक अभाव समाप्त होने लगते हैं और वे अब प्रसन्न रहने लगते हैं। "श्री माँ" उनको सहज कार्य करने के अवसर निरंतर प्रदान करती जाती हैं और वे सहजियों के बीच सहज-कार्यकर्ता के रूप में स्थापित होने लगते हैं।

इन जागृति के कार्यं के कारण वे सहजियों के बीच चर्चित लोकप्रिय होने लगते है। अपनी बढ़ती हुई लोकप्रियता अन्य सहजियों के स्नेह के कारण वे बेहद प्रसन्न रहने लगते हैं।

अब उनको लगने लगता है कि वो अब सही मार्ग पर गए हैं और उनके जीवन से अवसाद पूरी तरह से हट रहा है। सहजियों अन्य लोगों से प्रशंसा सराहना पा कर उनको लगने लगता है कि उन्होंने कोई बहुत बड़ी उपलब्धि हांसिल कर ली है।

किन्तु दुर्भाग्य से घोर अज्ञानता वश वो अपनी इस वर्तमान सुंदर स्थिति को अपनी व्यक्तिगत-सांसारिक-उपलब्धि मान बैठते हैं और इस उपलब्धि का प्रभाव सभी को दिखाना प्रारम्भ कर देते हैं।

ऐसा करते करते धीरे धीरे उनका अहंकार दबे पांव उनकी चेतना को अपनी जकड़न में ले लेता है जिसके प्रभाव के कारण वो स्वम् को सर्वश्रेष्ठ समझने लगते हैं।

और बात बात पर अन्य सहजियों का तिरस्कार, अपमान उपेक्षा करना प्रारंभ कर देते हैं। यहां तक कि सभी सहजियों में कमी निकलना उन कमियों को सभी के बीच उजागर करना उनका अधिकार बन जाता है।

उनको लगने लगता है कि वही पूरे सहज योग को संचालित कर रहे हैं। वे अक्सर अन्य सहजियों को सहज के प्रोटोकॉल समझाते नजर आने लगते है। किसी भी सहजी के सहज के कार्यों तौर तरीकों की आलोचना करना उनका ध्येय बन जाता है।

अब वे सहजियों के सहज-आचरण के प्रति निगाह रखने लगते है, कि कोई सहजी बंधन लगता है या नहींफुट सोकिंग करता है कि नहींसुबह 4 बजे उठकर ध्यान में बैठता है कि नहींठीक प्रकार से मंत्र बोलता है कि नहीं,

ध्यान के लिए उपयुक्त कपड़े पहनता है कि नहीं, "श्री माता जी" को प्रतिदिन कुमकुम लगता है कि नहींअन्य सहजियों के घर में 'अल्टार' ठीक से स्थापित है कि नहींकलश किस ओर रखा हैदीपक कहाँ पर प्रज्वलित है,

"श्री माँ" के फोटो पर चुनरी ठीक से चढ़ी है या नहीं, किसी सहजी ने बिंदी ठीक से लगाई है या नहीं,

यानि वो सहज-शिक्षक बन कर लगभग हर एक सहजी के तौर तरीकों में कोई कोई कमी बता ही देते हैं। और उसको इन छोटी छोटी भूलों के कारण सभी के सामने नीचा भी दिखाते रहते हैं।

कभी कभी तो वे इतने निम्न स्तर तक चले जाते हैं कि किसी अच्छे हृदय वाले उभरते हुए नए सहजी तक से ईर्ष्या कर बैठते हैं और उसको आगे नहीं आने देते।

उनकी स्थिति यहां तक खराब हो जाती है कि यदि किसी सहजी ने उनके द्वारा बोले गए अथवा लिखी गई बातों पर अपने अनुभव अनुसार टिप्पड़ी कर दी तो वे उनसे आगबबूला तक हो जाते हैं और झगड़ा कर बैठते है।

वास्तव में शोशल मीडिया फेसबुक, यूट्यूब, ट्विटर व्हाट्स एप्प के अत्याधिक लोकप्रिय होने के कारण उक्त सहजी के द्वारा किये गए आत्मसाक्षात्कार ध्यान के कार्यो के बारे में शोशल मीडिया से जुड़े सभी सहजियों को आसानी से पता चल जाता है।

जिसके कारण सभी सहजी सहज का कार्य करने वाले सहजी का सम्मान करने लगते हैं और उन कार्यो को पसंद करने लगते है, जिससे उनका दम्भ बढ़ता ही जाता है।उनको सभी सहजी गलत ही लगने लगते हैं।

यदि ऐसे सहजी किसी अन्य सहजी से किसी बात पर नाराज हो जाएं तो अंदर हो अंदर उस सहजी से शत्रुता तक रखने लगते हैं और जब भी मौका मिल जाए तो उन्हें गिराने से नहीं चूकते।

वो अपनी ऐसी दुर्दशा कर लेते हैं कि कुछ सहजी तो उनके सामने आने अथवा उनसे बात करने से भी बचने लगते हैं। किंतु बदकिस्मती से वो तथाकथित 'उच्च अवस्था' के सहजी सभी अन्य सहजियों को अपने से निकृष्ट ही समझते हैं।

ऐसी गलतफहमियों से घिरे सहजियों का निश्चित रूप से आंतरिक रूप से पतन हो जाता है। क्योंकि स्वम् को लोकप्रिय बनाये रखने के फेर में वो समस्त प्रकार के बाहरी क्रिया -कलापों में लगे रह कर अपना बेशकीमती समय व्यर्थ करते रहते हैं।

वे अक्सर लोगों के समक्ष अपने मानसिक विकारों, अपनी कुंठाओं, अपनी सीमित सोचों को अपने आत्मज्ञान के रूप में प्रगट करते रहते है। वे ज्यादातर अन्य अच्छे सहजियों के ज्ञान, ध्यान के तरीकों, ध्यान के भावों ध्यान की बातों को बिना अपनी चेतना में महसूस किए नकल करते हैं।

और दूसरे स्थान पर अन्य सहजियों के समक्ष अपना ज्ञान बता कर पेश कर देते हैं ताकि उन्हें और प्रशंसा प्राप्त हो जाये और उनकी लोकप्रियता में इजाफा हो जाये।

वे ज्यादातर आत्मसाक्षात्कार देने, हवन पूजा करने, विभिन्न सहज कार्यक्रमों में जाने के अतिरिक्त कोई कार्य नहीं करते। वो गहन ध्यान में उतरकर स्वम् को नहीं टटोलते कि वो किस ओर जा रहे हैं ? वो अपनी अंतर्चेतना से बातचीत ही नहीं करते।

वे अपनी आत्मा को महसूस ही नहीं कर पाते किन्तु बात बात में आत्मा "श्री माँ" का नाम लेकर सहजियों को प्रभावित करने का प्रयास करते रहते हैं।

उनके पास अपने स्वम् के भीतर उतरने के लिए समय ही नहीं होता क्योंकि वे तो सभी की प्रशंसा पाने अन्य सभी पर शासन करने के मार्ग खोज रहे होते हैं।

बाह्यरूप से वे बहुत गहरे सहजी माने जाते हैं किंतु जरा से विपरीत परिस्थितियां आते उनकी वास्तविकता सामने जाती है, वे अंदर से पूरी तरह छिन्न-भिन्न हो जाते हैं।

यदि उनके किसी प्रिय परिजन की मृत्यु हो जाये तो वो सालों तक उनके विछोह मैं दुखी रहते हैं और किसी किसी तरीके से समय समय पर अपना दुखड़ा पर प्रगट करते रहते हैं।

यदि उन्हें या उनके किसी परिजन को कोई सांसारिक उपलब्धि प्राप्त हो जाये तो वे महीनों तक अपने अपने विशेष-परिवार के ऊपर "श्री माँ" की कृपा का गुणगान ही करते रहते हैं।

वे अपने जीवन के हर पहलू को बड़े ही भव्यता विशिष्ट तरीके से पेश करते हैं मानो वो ही इस सृष्टि की सर्वोत्तम रचना हों। वे सदा यही दिखाने में लगे रहते हैं कि "श्री माता जी" की उन पर उनके परिवार पर उनकी गहनता के कारण विशेष कृपा है।

ऐसी रुग्ण मन स्थिति वाले सहजियों की स्थिति का यदि ध्यानस्थ अवस्था में अवलोकन चिंतन किया जाय तो पाएंगे। कि ऐसे सहजी वास्तव में भीतर से अत्यंत कमजोर, भयभीत, शंकालु आशंकित होते हैं।

उनकी मानसिकता के अनुसार वे इतनी मुश्किल से इतने वर्षों बाद वो अपनी पूर्व की निम्न अवस्था से उबरें है। क्योंकि उन्हें उनकी पूर्व की स्मृतियां बार बार उन्हें डराती रहती हैं

और उनसे भयभीत होकर वो अपनी तथाकथित 'अच्छी स्थिति' को येनकेन प्रकारेण बनाये रखने के लिए यथा संभव प्रयास करते रहते हैं। और इन्ही विवेके विहीन कुटिल प्रयासों के चलते वे अन्य सहजियों के साथ अक्सर निकृष्टतम व्यवहार तक कर डालते हैं।

यदि गहनता से विश्लेषण किया जाए तो हैरानी होगी कि भला ये कैसी उच्च अवस्था है, जिसके तहत एक सहजी अन्य सहजी से प्रेम गरिमा के विपरीत व्यवहार कर रहा है।

क्या ध्यान की गहनता दूसरों से घृणा, ईर्ष्या, तुलना, ऊंच-नीच, भेद-भाव करना सिखाती है ?

ये कैसे "माँ" के बच्चे हैं जो एक दूसरे को नीचे गिराने में लगे रहते हैं ?

ये कैसा ऐसे सहजियों का 'आत्मज्ञान' है जो सहज योग तो छोड़ो मानवता को शर्मसार करने में लगा है ?

ये कैसे सत्य-राही हैं जो सहज कार्यों के नाम पर एक दूसरे को छोटी छोटी बातों के लिए ताने उलाहने देते रहते हैं ?

ये कैसा प्रेम है जो सहजियों को उठाने के स्थान पर गिराने में लगा है ?

ये कैसा सहज प्रचार है जो सहजियो को आपस में जोड़ने के स्थान पर तोड़ने में लगा है ?

ये कैसी सहज मानसिकता है जो "श्री माँ" के सैंटर में भेदभाव करती है ?

ये कैसी "श्री माँ" से एकाकारिता है जो अलग अलग ट्रस्ट के स्थानों पर "श्री माँ" की उपस्थिति को महसूस नहीं कर पाती ? 

ये कैसा सहज कार्य है जिसके करते हुए भी ऐसे सहजी भीतर ही भीतर सदा दुखी रहते हैं ?

ये कैसी सहज उपलब्धि है जो बिना किसी ठोस वास्तविक कारण के ऐसे सहजियों को सदा असंतुष्ट रखती है ?

ये कैसा सहज-काल रहा जो कई साल सहज में बिताने के बाद भी ऐसे सहजियों के भीतर शांति सच्ची प्रसन्नता नहीं ला पाया ?

"श्री माँ" ने तो अपने हर वक्तव्य में सहज की बहुत तारीफ की है, इसकी अनेको उपलब्धि गिनाई हैं। तो फिर भी ये सहजी कौनसा सहज योग कर रहे हैं जिसमें रहकर ऐसे सहजी सदा परेशान ही रहते हैं ?

एक बात तो पक्की है कि "श्री माँ" ने तो हर सहज की स्थिति सत्य ही बताई है किंतु लगता है ऐसे कुछ सहजियों ने "माँ" के सिखाये सहज योग के स्थान पर अपने मन के द्वारा संचालित 'तथाकथित योग' को अपना लिया है जो निरंतर भ्रम, आशंकाएं पीड़ा ही दे रहा है।

ऐसी विकट स्थिति से उबरने के लिए तो इन उत्पीड़ित सहजियों के लिए एक ही मार्ग शेष है और वो है 'निशर्त समर्पण' यानि कुछ काल के लिए आत्मसाक्षात्कार के कार्य के अतिरिक्त किसी भी सहजी को शिक्षा देना बिल्कुल बंद कर दिया जाय।

दिए गए आत्मसाक्षात्कारों के माध्यम से जागी हुई कुण्डलीनियाँ से प्राप्त शक्तियों को धारण कर अपने ह्रदय की सूक्ष्म से सूक्ष्म परतों को पार कर उस अनश्वर अविनाशी सत्य रूपी आत्मा को स्पर्श करने का बारम्बार अभ्यास करें।

और अपनी आत्मा से प्राप्त "श्री माँ" के संदेशों के आधार पर अपने आध्यात्मिक जीवन को उन्नत कर अपने इस स्वर्णिम अवसर का लाभ उठाते हुए "श्री माँ" के स्वप्नों को साकार करते हुए अपने इस वर्तमान हीरे जैसे जीवन को सार्थक बनाएं।

साथ ही चुपचाप पूर्ण मौन को धारण करके कम से कम 1 घंटे गहन ध्यान में प्रतिदिन उतरकर आत्म-चिंतन, आत्म-विश्लेषण आत्म-निरीक्षण के द्वारा स्वम् को पल पल निखारा जाए।

केवल तब ही ऐसे भ्रमित सहजियों के भीतर में चलने वाले निर्थक संघर्षो से निजात मिलेगी और आंतरिक उत्थान की ओर चलने का मार्ग प्रशस्त होगा।

सभी साधकों/साधिकाओं से इस चेतना का विनम्र निवेदन है कि, यदि कोई ऐसा आत्म-पीड़ित सहजी अपने आसपास या दूर कहीं नजर आए।

तो अपने मध्य हृदय सहस्त्रार से जुड़कर "श्री माँ" का प्रेम उक्त सहजी के मध्य हृदय में उसके सहस्त्रार के माध्यम से कुछ दिन तक ध्यान की हर बैठक में "श्री माँ" से प्रार्थना करते हुए कम से कम 5 मिनट तक अवश्य प्रवाहित करें ताकि "श्री माँ" उसको सम्हाल सकें और उसे वास्तविक मार्ग पर ला सकें।

"श्री माँ" के द्वारा जागृत किये गए इस अनुपम ध्यान मार्ग पर चलने में हमारी 'व्यक्तिगत पहचान' ही इस उत्थान मार्ग की सबसे बड़ी बाधा बनती है।

यही वो सबसे बड़ी अड़चन है जो हमें सही मायनों में सामूहिकता का आनंद नहीं लेने देता। आज तक अनेको जन्मों से पृथकता की पीड़ा को ही तो ढोते रहे हैं, जो अनेको प्रकार की पीड़ाओं की जन्मदाता है।

हम तो 'यहां' अपनी अपनी पहचान मिटाने ही तो लाये गए हैं। 'हम बून्द रूपी अस्तित्व आपस में मिलकर सागर ही तो बनने आये हैं।'

तो क्यों स्वयं के अस्तित्व को सबके भीतर सबमें अपने अस्तित्व को महसूस कर अपनी स्वयं की पहचान को बनाये रखने की मुसीबत से छुटकारा पा जाएं।

"श्री माँ" के विशाल-विराट अस्तित्व में सदा के लिए समाकर अपने एकाकीपन से निजात पा जाएं।"


----------------------------------------------------Narayan

"Jai Shree Mata Ji"