Tuesday, May 28, 2019

"Impulses"--491--"अति-भजनाचरण-उपाय"


"अति-भजनाचरण-उपाय"

"यह अक्सर देखा गया है कि हममें से बहुत से ध्यान का आनंद लेने वाले सहजी पूजा हवन के कार्यक्रमों के दौरान गाये जाने वाले अनेकों भजनों से काफी बेचैनी का अनुभव करते हैं। क्योंकि आवश्यकता से अधिक भजन पूजा के समय को अत्यधिक लंबा कर देते हैं।

जिसके कारण जमीन पर सुखासन में बैठने वाले सहजियों के पांव सो जाते और उनमें तीखा दर्द होने लगता है इसके साथ साथ कमर में भी पीड़ा अनुभव होने लगती है।

जिसके कारण सहजी बार बार अपने बैठने की पोजिशन बदलते रहते हैं जो उनके स्वयं के ध्यान की एकाग्रता को भी भंग करता है साथ ही नजदीक बैठने वाले सहजी के ध्यान में भी विघ्न पहुंचाता है। वैसे तो सही मायने में हवन/पूजा डेढ़ घंटे में समाप्त हो जानी चाहिए।

किंतु पूजा के लिए तैयार होकर आए कुछ भजन गायक अपने अपने 4-5 भजन सभी को सुनाने को तत्पर रहते हैं जिसके कारण समय खिंचता ही जाता है। कभी कभी तो 20-22 भजन तक हो जाते हैं।

वास्तव में हममें से अधिकतर लोगों का झुकाव इड़ा नाड़ी की तरफ ज्यादा होता है जिसके कारण उन्हें भजनों में बहुत मजा आता है।

और इसके विपरीत जो लोग पिंगला नाड़ी प्रधान होते हैं उनको कर्मकांड, मंत्रोचारण ताली बजाकर नृत्य करना अत्यधिक प्रिय होता है, वो भी पूजा/हवन आदि में भजनों का लुत्फ ले लेते हैं।

हालांकि एक तथ्य की बात यह भी है कि जिन लोगों के मन विभिन्न प्रकार के दुखों से हर समय पीड़ित रहते हैं उनको सन्तुलन में आने के लिए सहज क्रियाएं, मंत्रोचारण नृत्य लाभ दायक होते हैं।

और इसके विपरीत जो सहजी हर समय घोड़े पर सवार हो अतिकर्मिता से बाधित होते हैं उनको सन्तुलित होने के लिए भजनों में शरीक होना भक्ति में डूबकर भजन गाना हितकर होता है।

किंतु जो सहजी मध्यमार्गी होते हैं, यानि सुषुम्म्ना पर स्थित होते हैं उनको मौन अवस्था में निष्क्रिय ध्यान में ही आनंद आता है। वास्तव में केवल सुषुम्ना प्रधान सहजी ही सही मायनों में ध्यान का मजा वास्तविक लाभ उठा पाते हैं।

किंतु वो भी तीन चार घंटो तक लगातार बिना हिले ढुके नहीं बैठ पाते और डेढ़ दो घंटे बाद प्रतीक्षा करने लगते हैं। कि पूजा का कार्यक्रम कब खत्म हो और वह शारीरिक रूप से कुछ आराम महसूस कर पाएं।

सुषुम्म्ना पर स्थिति ऐसे सहजियों को यह चेतना कुछ व्यवहारिक सुझाव देना चाहती है। जिनको अपना कर ऐसे सहजी लंबी पूजा/लंबे हवन में बिना किसी शारीरिक पीड़ा के ध्यान में बने रह सकते हैं।

सर्वप्रथम पूजा/हवन का कार्यक्रम प्रारम्भ होने से 5-10 मिनट पूर्व अपनी चेतना को अपने मध्य हृदय में स्थित "श्री माँ" के "श्री चरणों" में स्थित कर देंगे अपने चित्त को अपने सहस्त्रार पर टिका देंगे।

इसके उपरांत दोनों स्थानों पर "श्री माँ" की उपस्थिति को 'ऊर्जा' के रूप में आभासित करना प्रारम्भ कर दें। और जब 'महामंत्र' का शुभारंभ हो तो अपने चित्त को सम्पूर्ण सामूहिकता पर टिकाते हुए सभी सहजियों के सहस्त्रार पर आई हुई कुंडलिनी से जोड़ लेंगे।

और सहस्त्रार पर स्थित उन समस्त कुण्डलीनियों से उत्सर्जित होने वाली 'दिव्य ऊर्जा' को अपने सहस्त्रार के माध्यम से अपने मध्य हृदय में लगातार शोषित करते चले जायेंगे जब तक कार्यक्रम समाप्त नहीं हो जाता।

जब आप सूक्ष्म रूप में ऐसा आभासित करना प्रारम्भ कर देंगे तो आपका सम्पर्क बाह्य घटना कर्मों से पूर्णतया कट जाएगा और आप 'परम ऊर्जा' के एक आनंदाई 'ग्लोब' में स्वयं को पाएंगे।

आपको बाह्य रूप से क्या चल रहा है यह तो आभासित होगा किंतु आपकी चेतना केवल और केवल 'पवित्र शक्तियों' को आपके यंत्र में ग्रहण करने में लगी होगी।

ऐसी सुंदर स्थिति में तो आपको, आपके शरीर का ही आभास होगा और ही आपका चित्त बाह्य रूप से होने वाले घटनाक्रम पर ही रहेगा।

जैसे, जब हम कोई अच्छी सी फिल्म देख रहे होते हैं तो हम पूर्णतया उस फिल्म की कहानी पात्रों में खो जाते हैं हमें कुछ देर के लिए गर्मी, सर्दी, शोर आदि की तरफ ध्यान ही नहीं रहता। यहां तक कि उस स्थिति में हमें कोई विचार भी नहीं रहे होते, हम पूर्णतया उस पिक्चर में डूबे होते हैं।

अतः हमें भी किसी भी पूजा/हवन के दौरान अपनी चेतना को सामूहिकता के दौरान प्रवाहित होने वाले सामूहिकता के प्रसाद को ग्रहण करने में पूरी तन्मयता के साथ उतर जाना चाहिए।

ताकि तो हमें किसी भी प्रकार का देहाभास रहे और ही किसी भी प्रकार के विचार ही हमें तंग करें और ही कार्यक्रम जल्दी समाप्त होने की प्रतीक्षा ही रहे।

जब ऐसी सुंदर अवस्था घटित हो रही होती है तो हमारे सम्पूर्ण सूक्ष्म यंत्र में 'दिव्य शक्तियां' समुंदर में उठने वाली लहरों की तरह प्रवाहित हो रही होती हैं जो हमें पूर्ण रूप से 'निर्विकल्प' समाधि में स्थित कर देती है।

ऐसी विलक्षण स्थिति में हमारा 'काल-चक्र' तक रुक जाता है और हमारी चेतना हमारे ही अन्तःकरण में "परमात्मा" के साम्राज्य में विचरण कर रही होती है और हमारा सम्पूर्ण अस्त्तित्व तरंगित हो रहा होता है।"

----------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"



Thursday, May 16, 2019

"Impulses"--490--· "श्री माँ" के करीब कौन ?"


· "श्री माँ" के करीब कौन ?"


अभी दो तीन दिन पहले अपनी एक अच्छी पुरानी सहजी बहन की एक पोस्ट 'ईर्ष्या एक अनुभव' पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

जिसमें उन्होंने बताया था कि जो लोग उनसे 'ईर्ष्या', नफरत करते थे उनका विरोध करते थे उन लोगों के कारण उनमें जुनून उत्पन्न हुआ और वे इसी जुनून में समाज में आगे बढ़ पायीं।

साथ ही उन्होंने अतः में लिखा कि, 'मेरी चेतना उनको दिल से नमन करती है जिनकी ईर्ष्या ने मुझे "श्री माँ" के इतने करीब पहुंचा दिया।'

उनके इस वक्तव्य को पढ़कर यकायक एक कौतूहल उत्पन्न हुआ और यह जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि आखिर वह "श्री माँ" के कितने करीब पहुंच गई हैं।

यदि वह "श्री माँ" उनके बीच की करीबी का वर्णन कर दें तो जाने कितने सहजियो को उनके स्वयम के आंतरिक-विकास की स्थिति समझने में आसानी हो जाएगी।

हमने उनके पोस्ट पर उनकी "श्री माँ" से नजदीकी के लक्षण बताने के लिए निवेदन भी कर दिया किन्तु उसका वर्णन उन्होंने अभी तक नहीं किया और ही हमें कोई आश्वासन ही दिया।

शायद वह हमको अभी इस स्तर पर 'स्थित' नहीं समझती होंगी कि जहां हम उनकी "श्री माता जी" की आपसी नजदीकी को महसूस कर पाएं/समझ पाएं।

किन्तु उनके इन वक्तव्यों से इस चेतना के भीतर एक और चिंतन चल पड़ा कि हममें से अनेको सहजी काफी लंबे अरसे से "श्री चरणों" से जुड़े है।

क्या हमारे हृदय में कभी कभी ये भाव नहीं आते हैं कि हम सभी "श्री माँ" के किंचित मात्र भी करीब पहुंचे या नहीं ?

आखिर हम कैसे जाने कि हम "श्री माँ" की अपेक्षाओं पर थोड़ा बहुत खरे उतर भी पा रहे हैं या नहीं ?

आखिर वो क्या अनुभूतियां लक्षण हैं जिनके प्रगटीकरण से हम "श्री माँ" की अपने ऊपर पड़ने वाली निकटता से ओतप्रोत 'दिव्य दृष्टि' के प्रति आश्वस्त हो सकें ?

वास्तव में "श्री माँ" के कौन नजदीक है, इस विषय में कुछ निम्न प्रश्न हम सहजियो के जेहन में कौंध सकते है :-

'क्या वो सहजी "श्री माँ" के नजदीक हैं जो हर पल हर घड़ी "श्री माँ" को स्मरण करते रहते हैं ?

या वो सहजी "श्री माँ" के करीब हैं जो 'आत्मसाक्षात्कार' का खूब कार्य करते हैं ?

या सहज की हर प्रकार की तकनीकों को अपनाकर अपने चक्रों को स्वच्छ रखने नाड़ियों को संतुलित रखने वाले सहजी "श्री माता जी" के नजदीक हैं ?

या "श्री माँ" की वाणी को निरंतर सुनने वाले सहजी "श्री माँ" के अत्यधिक निकट है ?

या "श्री माँ" की भक्ति में डूब कर झूम झूम कर भजन गाने नृत्य करने वाले सहजी "उनके" करीब हैं ?

या "श्री माँ" के 'अल्टार' को अत्यंत प्रेम पूर्वक सजाने वाले सहजी "उनके" नजदीक हैं ?

या "श्री माता जी" के चमत्कारो का वर्णन करने वाले "उनकी" बातों की चर्चा करने वाले सहजी "उनके" काफी निकट हैं ?

या "श्री माता जी" के साक्षात स्वरूप की सेवा में लगे सौभाग्यशाली सहजी "उनके" निकट हैं ?

या "श्री माता जी" के 'कर कमल" थाम कर स्टेज तक ले जाने वाले सहजी "उनके" करीब हैं ?

या "श्री माता जी" के वक्तव्यों को संकलित करके पुस्तकें बनाने वाले सहजी "उनके" ज्यादा करीब हैं ?

या "श्री माता जी" के समस्त लेक्चर्स की लाइब्रेरी बनाने वाले सहजी "उनके" निकट हैं ?

या "श्री माता जी" के लेक्चर्स को मीडिया पर शेयर करने वाले सहजी "उनके" नजदीक हैं ?

या समस्त प्रकार की छोटी बड़ी सामुहिकता में निरंतर भाग लेने वाले सहजी "श्री माँ" के निकट हैं ?

या सहज संस्था में उच्च पदों पर आसीन होकर समस्त आम सहजियो को दिशा निर्देश देने वाले सहजी "श्री माता जी" के करीब हैं ?

या नए पुराने सहजियो को ध्यान में उतरने में सहायता करने वाले सहजी "श्री माँ" के निकट हैं ?

या दो तीन घंटे तक निरंतर ध्यानस्थ रहने वाले सहजी "श्री माँ" के ज्यादा करीब हैं ?

या सहज ध्यान के माध्यम से अनेको लोगों को बाधा मुक्त करने उनकी बीमारियों को ठीक करने में मदद करने वाले सहजी "श्री माँ" के करीब हैं ?

या समस्त देवताओं पंच तत्वों को प्रसन्न करने वाले सहजी "श्री माँ" के ज्यादा नजदीक है ?

या सहज ध्यान के साथ साथ अनेको प्रकार के सामाजिक हितों के लिए कार्य करने वाले सहजी "श्री माता जी" के करीब हैं ?

या सहस्त्रार मध्य हृदय में "श्री माँ" को आभासित करने वाले सहजी हम सबकी "ममतामयी माँ" के अधिक करीब हैं ?

हम सभी के मन मस्तिष्क में यकीनन उपरोक्त प्रश्न गूंज रहे होंगे।

तो क्यों इन प्रश्नों के हल ढूंढने के लिए गहन ध्यानस्थ अवस्था में अपने अपने हृदयों की गहराई में गोता लगाकर एक चिंतन यात्रा पर अग्रसर हुआ जाय।

सर्वप्रथम हम सभी अपनी चेतना को अपने मध्य हृदय में "श्री माँ" के समक्ष ले जाएंगे और अपने चित्त को अपने सहस्त्रार मध्य हृदय पर 'दिव्य ऊर्जा' को शोषित करने में लगा देंगे।

और साथ ही "श्री माँ" से प्रार्थना भी करेंगे कि, "श्री माँ" हमारी चेतना को इस योग्य बनाएं की हम सूक्ष्म से सूक्ष्म तथ्यों पर मनन-चिंतन कर उन्हें आत्मसात करते हुए उचित निष्कर्ष पर पहुंच सकें।

इस चेतना की तुच्छ आंतरिक समझ चिंतन के अनुसार यदि हम "श्री माँ" के वास्तव में करीब हो रहे हैं या करीब हो चुके हैं।

तो हमारे आंतरिक बाह्य वजूद में "माँ निर्मला" के साकार निराकार अस्तित्व की विशेषताएं अवश्य परिलक्षित होनी प्रारम्भ हो जाएंगी।

क्योंकि यदि हम किसी भी देवी देवता की सच्चे हृदय से उपासना करते हैं तो उनके समस्त गुण हमारे व्यक्तित्व में स्वाभिक रूप से झलकने लगते हैं।

या हम यह भी कह सकते हैं कि हमारे माता-पिता की कुछ कुछ विशेषताएं हमारे जीन्स के साथ हमारे भीतर भी आती हैं।

तो सबसे पहले हम "श्री माता जी" के साक्षात मानवीय स्वरूप "माँ निर्मला" की विशेषताओं को अपने अस्तित्व में खोजेंगे।

यानि हम अपने भीतर झांक के देखेंगे कि क्या हमारे भीतर वह समस्त गुण विकसित हो रहें है जो "माँ निर्मला" के भीतर विद्यमान है।

यदि हम अपनी 'प्रिय माँ" के बाह्य अस्तित्व को थोड़ा बहुत भी समझते हैं तो हम जानेंगे कि:

"श्री माँ" का हृदय सभी सच्चे खोजियों सच्चे मानवों के लिए सदा प्रेम से लबा लब रहता है और उन सभी के लिए "उनका" प्रेम बहता ही रहता है।

क्या हमारे हृदय की भी यही दशा है ?

"श्री माँ" का सानिग्ध्य सभी भोले भाले, सच्चे अच्छे मानवों को सदा शांति, सुकून आनंद देने वाला होता है।

क्या हमारे सानिग्ध्य में भी सरल हृदय के मानव अच्छा महसूस करते हैं ? या घुटन महसूस करते हैं ?

"श्री माँ" ने कभी किसी के लिए भी ईर्ष्या, घृणा,भेदभाव, ऊंच-नीच, तेर-मेर, प्रतिस्पर्धा, तूलना, जात-पात, बिरादरीवाद, धार्मिक-भेदभाव, अमीर-गरीब, मोह, लिप्तता, ममत्व, पक्षपात, दिखावा, दोहरापन, श्रेष्ठता, निम्नता, अहंकार, आदि के भाव नहीं रखे वरन 'अपने' सरल स्वभाव से सबको आनंदित किया है।

क्या हमारी भी यही वर्तमान आंतरिक स्थिति है ?

"श्री माँ" ने कभी भी किसी की चेतना मन पर शासन करने की तो इच्छा ही रखि और ही किसी की तथाकथित कमियों को दिखाकर उसको हीन भावना से ग्रसित कर उस पर किसी भी प्रकार का दवाब बनाया।

क्या हमारा मन इस प्रवृति से मुक्त रहा है/वर्तमान में मुक्त है ?

"श्री माँ" ने कभी भी किसी से अपना कोई भी सांसारिक/आध्यात्मिक कार्य सिद्ध करने के लिए कोई रिश्ता नहीं बनाया वरन सभी को सम भाव से निस्वार्थ प्रेम ही किया।

क्या वास्तव में ऐसी सुंदर आंतरिक स्थिति हमारे भीतर हमें अन्यों के लिए आभासित होती है।

"श्री माँ" कभी भी किसी भी प्रकार की सांसारिक चकाचौंध आकर्षण की गिरफ्त में नहीं आईं बल्कि "उन्होंने" अपनी सादगी, शालीनता सौम्यता से ही सबका मन मोह लिया।

क्या हम वास्तव में सादगी, शालीनता सौम्यता का पालन करते हैं ?

"श्री माँ" कभी भी किसी के बाह्य व्यक्तित्व से प्रभावित नहीं हुईं और ही "आपने" कभी किसी की नकल ही की, बल्कि "उन्होंने" सदा अपना मार्ग स्वयं ही चुना और सदा अपनी मौलिकता को बनाये रखा।

क्या हमारा अन्तःकरण भी ऐसा है जो किसी की भी नकल नहीं करना चाहता ? क्या हम अपनी मौलिकता के साथ जीते हैं ?

"श्री माँ" अपने बाल्यकाल से ही अत्यंत परिश्रमी स्वभिमानी रहीं हैं।

क्या हम भी आंतरिक रूप से परिश्रमी स्वभिमानी हैं ?

"श्री माँ" ने किन्हीं लोगों की जान बचाने के अतिरिक्त किसी भी प्रकार का कोई भी झूठ अपने पूरे जीवन काल में नहीं बोला और ही किसी भी प्रकार का मिथ्या आचरण ही किया है।

क्या हम भी सदा सत्य बोलते हैं और अन्य लोगों के साथ सीधा-सच्चा व्यवहार करते हैं ?

"श्री माँ" ने कभी भी कोई भी अपनी बात किसी पर जबरदस्ती थोपी नहीं है, "उन्होंने" सदा सभी की स्वतंत्रता का मान किया है।

क्या हम भी अन्य लोगों अपने परिजनों पर अपनी बात जबरदस्ती मनवाने का प्रयास करते हुए उन्हें पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करते हैं ?

"श्री माँ" सदा से अत्यंत निडर रहीं हैं, उन्हें कभी भी किसी भी चीज के खोने का भय नहीं रहा।

क्या हमारी चेतना इतनी उन्नत हो चुकी है कि हम हर प्रकार के भय से मुक्त हैं ?

"श्री माँ" को कभी भी किसी भी प्रकार के मोह, लोभ, आसक्ति, विरक्ति, संस्कार, महत्वाकांशा, इच्छा, अनिच्छा, चाह, डाह शोक आदि ने नहीं जकड़ा।

क्या हम इन उपरोक्त चीजों से बचे हुए हैं ?

"श्री माँ" ने कभी भी किसी को प्रभावित करना नहीं चाह बल्कि "उनके" बाल-सुलभ स्वभाव को सभी ने सदा महसूस किया।

क्या हम अन्यों पर येन केन प्रकारेण अपना प्रभाव डालने की इच्छा से मुक्त हैं ?

"श्री माँ" ने जब सहज का कार्य प्रारंभ किया था तो उससे पहले उस काल में प्रचलित समस्त प्रकार के बाह्य धर्मो की पुस्तकों का अच्छे से अध्यन किया था।

क्या हम सहजी अपने सहज मार्ग के अतिरिक्त अन्य मार्गों के बारे में थोड़ा बहुत जानते भी हैं या नहीं ?

क्या हम सभी ने "श्री माँ" की वाणी के कुछ अंशों को अपने अन्तःकरण में अपनी चेतना की अवस्थानुसार आत्मसात किया भी है क्या नहीं ?

जो भी आत्मसात किया है क्या वो हमारे दैनिक वास्तविक व्यवहार में प्रदर्शित होता भी है या नहीं ?

"श्री माँ" ने जो भी कहा है अथवा बोला ही उसके पीछे "उनका" अपना स्वयं का गहरा ठोस अनुभव होता है जो "वे" आसानी से व्यवहारिक उदाहरण देकर बता सकती हैं अथवा अन्यों को अनुभव भी करा सकती हैं।

क्या हम जो भी लिखते हैं या बोलते हैं उन सभी बातों को किसी अपने स्वयं के वास्तविक अनुभव उदाहरण से सिद्ध/प्रगट कर सकते हैं ?

"श्री माँ" ने कभी भी किसी भी अपना प्रभाव बनाये रखने के लिए किसी भी प्रकार की घरेलू अथवा बाह्य राजनीति/चापलूसी का सहारा नहीं लिया बल्कि अपनी स्पष्टवादिता से सबको अपना मुरीद बना लिया।

क्या हम अपने परिजनों, नजदीक लोगों अन्यों से अपना स्पष्ट पक्ष रख पाते हैं ?

"श्री माँ" ने कभी भी अपने भीतर अन्यों की तूलना में श्रेष्ठता निम्नता को कभी महसूस नहीं किया।

क्या हम स्वयम को अन्यों की तूलना में स्वयं को स्वीकार कर पाते हैं ?

"श्री माँ" किसी भी प्रकार के फैशन, कपड़ों की मैचिंग, स्टाइल, तौर-तरीकों आदि की गुलामी से कोसों दूर रहीं हैं।

क्या हम भी इस फैशन रूपी संक्रमण से उत्पन्न विभिन्न प्रकार की मानसिक बीमारियों से मुक्त हैं ?

"श्री माँ" ने बिना किसी डर किसी के नाराज होने की परवाह किये बगैर सत्य बात सभी के समक्ष रखी है।

क्या इस सत्य मार्ग पर चलने के वाबजूद भी सत्य को सबके सामने रखने/लाने इसका अनुसरण करने के लिए हमारे भीतर इतना साहस होता है ?

"श्री माँ" ने कभी भी सहज संस्था संस्था के पदाधिकारियों के महत्व की बात नहीं की।

क्या हम सहज संस्था के पद उन पर आसीन पदाधिकारियों से उनके उच्च पदों के कारण प्रभावित रहते/होते हैं ?

तो ये थे "माँ निर्मला" के बाह्य अस्तित्व की थोड़ी बहुत मुख्य मुख्य बातें जिनका कुछ अंश भी हमारे भीतर प्रगट होता है तो हम यह कहने के अधिकारी हैं कि हमारी अंश बराबर नजदीकी "श्री माँ" से हैं।

यूं तो "श्री माँ" की हजारों विशेषताएं हैं जिनके बारे में यदि लिखने बैठे तो कई पुस्तकें भर जाएंगी।

अब चलते हैं "श्री माता जी" के वास्तविक स्वरूप यानि 'आकार रहित' "श्री आदि शक्ति" के कुछ गुणों/विशेषताओं को समझने/अनुभव करने की ओर।

हालांकि "माँ आदि शक्ति" की समस्त विशेषताओं का वर्णन करना असंभव है।

क्योंकि इस ब्रह्मांड में आज तक कोई भी देव, देवी, गण, सन्त, सद्गुरु, यक्ष, योगी, ऋषि,तपस्वी, त्यागी ज्ञानी उत्पन्न ही नहीं हुआ है जो "माँ आदि शक्ति" की समस्त विशेषताओं का वर्णन विश्लेषण कर सके।

जो भी कुछ थोड़ा बहुत बौद्धिक स्तर पर हम "उनके" बारे में जान पाए हैं कुछ अंश आत्मसात कर पाएं है वो भी "श्री माँ" ने ही बताया है अनुभव कराया है।

किन्तु जिस प्रकार से जल का स्वभाव इसके कुछ गुण उसको अपने मुख के द्वारा ग्रहण के उपरांत उसको अपनी जिव्वहा के द्वारा किये जाने वाले स्पर्श से उसकी तासीर को महसूस किया जा सकता है।

तदुपरांत अपने कंठ में होने वाली तरावट के जरिये इसके एक आध गुण को जाना जा सकता है।

उसके उपरांत इसके नाभि तक पहुंचने के बाद नाभि के द्वारा की जाने वाली प्रतिक्रिया के परिणाम स्वरूप इसके कुछ लाभ जाने जा सकते हैं।

ठीक उसी प्रकार से "श्री आदि शक्ति" की कुछ सूक्ष्म अदृश्य शक्तियों को ध्यानस्थ अवस्था में अपने सहस्त्रार के माध्यम से जब हम शोषित करते हैं।

तो सहस्त्रार प्रतिक्रिया करता है तो हमें "उनकी" ऊर्जा की तासीर आभासित होती है।

तब जाकर ही हम एकाकार होते हैं, जिसके परिणाम स्वरूप हमारे भीतर कुछ क्षणों के लिए निर्विचारिता उत्पन्न होती है और हम शांत होने लगते हैं।

और जब उनकी शक्ति हमारी विशुद्धि से गुजर रही होती है तो 'उसको' अनुभव करते ही हम कुछ पलों के लिए द्रष्टा बन जाते हैं।

इसके उपरांत जब यह 'दिव्य' ऊर्जा हमारे मध्य हृदय में प्रवेश करती है तो हमारे हृदय में एक अनजाने आनंद का संचार होता है।

और फिर जब यह ऊर्जा हमारे मध्य हृदय चक्र को जागृत करने लगती है तो यह चक्र और भी अन्य शक्तियां उत्पन्न करने लगता है।

जिनके परिणाम स्वरूप सर्वप्रथम हमें अपने भीतर एक अनजाने किन्तु प्रेममयी अस्तित्व की उपस्थिति का आभास होता है जिसे हम अपनी स्वयं की 'आत्मा' कह सकते हैं।

और फिर यह जागृत होती हुई आत्मा हमसे निशब्द वार्तालाप करना प्रारंभ कर देती है। तो हमारे भीतर से हमारी चेतना के लिए किन्हीं विषयों पर कुछ नवीन जानकारियां प्रगट होने लगती हैं।

जो हमारे मनोमय कोष के लिए भी एकदम नई होती हैं, इन बातों की सूचनाएं हमारे मन में उपलब्ध नहीं होती हैं।

इन स्वतः उत्पन्न होने वाले विचार रूपी प्रवाह को हम स्वयम का आत्मज्ञान कह सकते हैं।

इस विलक्षण घटनाक्रम के बाद हमारी पूर्व दमित सांसारिक इच्छाएं यकायक जागने लगती हैं जो हमारे चित्त चेतना को अपनी ओर खींचने का निर्थक प्रयास करने लगती हैं।

इस स्थिति में उसके भीतर से तुरंत समाधान आने प्रारम्भ हो जाते हैं और जिससे वह शांत,सन्तुष्ट तठस्थ होने लगता है।

जब स्थितप्रज्ञता स्थितरता उसके भीतर स्थिर हो जाती है तब जाकर उसकी अंतर्चेतना में आंतरिक खोज की प्रवृति उत्पन्न होने लगती है।

तब जाकर उसकी चेतना चित्त सांसारिक विषयों साधनों से हट कर भीतर की तरफ झुकने लगते हैं।

अब जाकर सही मायनों में उसकी वास्तविक साधना का शुभारंभ होता है उसकी चेतना के गर्भ से एक सच्चे खोजी का जन्म होता है।

तो यह तो एक छोटी सी झलक थी "माँ आदि शक्ति" की शक्तियों को जल की भांति ग्रहण कर 'उनके' कुछ गुणों, लाभों विशेषताओं के कुछ अंशो को अपने यंत्र में स्पर्श करने के लिए।

वास्तव में जिसे हम खोज कहते हैं वह कुछ और नहीं है बल्कि यह खोज "परमपिता" की इच्छा के परिणाम स्वरूप "माँ आदि शक्ति" के द्वारा बनाई गई इस सम्पूर्ण रचना में।

इस रचना से परे "उन दोनों" के अस्तित्वों को आभासित करने उनके साथ एकाकारिता स्थापित करने तक ही सीमित है।

और खोज के पूर्ण होने के बाद "उनसे" एकरूप होकर उनके द्वारा संचालित स्वयम के स्थूल/सूक्ष्म यानि शरीर सहित/शरीर रहित अस्तित्व के माध्यम से इस रचना को चलाये रखने में सहयोग करना होता है।

जब हम बात करते हैं "श्री आदि शक्ति" के 'वास्तविक निराकार' से नजदीकी की तो इस चेतना के अनुसार उनकी कुछ विभूतियां हमारे यंत्र के माध्यम से भी अवश्य जाहिर होंगी।

जैसे "माँ आदि शक्ति" की सबसे बड़ी विशेषता जो इस साधक को अनुभव हुई है।

कि उनके सानिग्ध्य में आते ही अधिकतर सर्वसाधारण मानवों जागृत मानवों की कुंडलिनी में स्वतः ही हलचल होनी प्रारम्भ हो जाती है और वह अक्सर सहस्त्रार पर जाती है।

क्या हमारे यंत्र के द्वारा भी "श्री माँ" ऐसा ही कुछ स्वतः ही घटित कराती हैं ?

"श्री माता जी" पर चित्त जाते ही अथवा "श्री माँ" के चित्त में आते ही जागृत मानवों के सहस्त्रार मध्य हृदय चक्र अन्य कुछ चक्रों में स्वतः ही ऊर्जा की आवृत्ति घनत्व में बढ़ोतरी होने लगती है

और कभी कभी तो बिना ध्यान में गए कुछ चक्र अपने आप ही चलने प्रारम्भ हो जाते लगते हैं।

क्या ऐसा ही कुछ अन्य सहजी हमारे ऊपर चित्त जाने अथवा आपके विषय में सोचने पर अपने यंत्र में अनुभव करते हैं ?

"श्री माँ" जिस स्थान पर भी जाती हैं वह स्थान ऊर्जा से तरंगित हो जाता है उस स्थान पर उपस्थित समस्त देव शक्तियां जागृत हो जाती हैं।

और वहां पर उपस्थित अच्छे हृदय के लोग अपने भीतर प्रसन्नता उल्लास की अनुभूति करते हैं। इसके विपरीत भीतर से गड़बड़ लोग घबड़ा कर वहां से भाग जाते हैं।

क्या इससे मिलते जुलती कुछ सकारात्मक प्रतिक्रियाएं अच्छे लोगों के द्वारा हमारे सानिग्ध्य में भी घटित होती हैं ?

क्या कुछ नकरात्मक लोग हमारी उपस्थिति को सहन नहीं कर पाने के कारण बिना किसी आधार के हमारी बुराइयां करनी प्रारम्भ कर देते हैं ?

"श्री माँ" की वाणी से जो भी निकलता है उस पर हमारा सूक्ष्म यंत्र विभिन्न स्थानों पर कुछ कुछ प्रतिक्रियाएं प्रारम्भ कर देता है।

चाहे वो गर्माहट, जलन, चुभन, शीतलता, कम्म्पन, हलचल, सनसनाहट, खिंचावट, दवाब अथवा निर्वात के रूप में प्रगट होता है।

क्या इससे मिलते जुलते कुछ लक्षण हमारे बोलने पर भी घटित होते हैं ?

क्या अच्छे हृदय ले लोग हम पर विश्वास करके अपनी पीड़ाएँ तकलीफें हमसे शेयर करते हैं ?

क्या हमारा साथ उनके भीतर आत्म विश्वास आशाएं जागृत करता है ?

क्या हमारे द्वारा शेयर की गईं बातें अन्य लोगों के अंतर्मन में चल रही होती हैं ?

क्या झूठे लोग हमारी उपस्थिति में अत्यंत परेशानी महसूस करते हैं ?

क्या हमसे जुड़ने के उपरांत कुछ अच्छे सहजियो में ध्यान में गहन होने आगे बढ़ने की शुद्ध इच्छा बलवती होने लगती है ?

क्या हमारे सहस्त्रार पर उपस्थित कुंडलिनी बिना "श्री माँ" के फोटो की उपस्थिति में सामूहिक रूप से अनेको नए लोगों की कुण्डलीनियाँ उठा पाती है ?

क्या हम कभी महसूस करते हैं कि हमारे चित्त के माध्यम से भी "श्री माँ" अन्य लोगों की कुण्डलीनियाँ उठवाती हैं ?

क्या हमारे यंत्र के जरिये हमारे मध्य हृदय की शक्ति का उपयोग कर "श्री माँ" नए लोगों की इड़ा पिंगला नाड़ी को बिना आकाश तत्व धरती तत्व की सहायता से सन्तुलित करवा पाती हैं ?

क्या हमारी वाणी के माध्यम से "श्री माँ" के द्वारा ध्यान करवाये जाने पर अन्य सहजियो को ध्यान में उतरने में आसानी होती है ?

क्या हमारे द्वारा जो भी बुलवाया जाता है अथवा लिखवाया जाता है वह अक्सर "श्री माँ" के लेक्चर्स से मेल खाता है जबकि "श्री माँ" के लेक्चर्स को हमने कभी भी सुना पड़ा नहीं होता ?

क्या जब भी हमारे माध्यम से अनेको नए लोगों को दिए जाने वाले आत्मसाक्षात्कार के कार्यक्रम के दौरान हमारे मुख से जो भी निकलता है वह उस समूह की आंतरिक आवश्यकता होती है ?

जबकि उस नए लोगों के समूह के बारे में हम पहले से कुछ भी नहीं जान रहे होते ?

क्या हमारी उपस्थिति में समस्त प्रकार के पशु,पक्षी, हिंसक जानवर, सर्प आदि बिना किसी भय आक्रमकता के शांति पूर्ण व्यवहार करते हैं ?

क्या हमारे भीतर इन सभी के प्रति सदा निडरता रहती है ?

क्या हमारे भीतर अंधकार, शमशान घाट, कब्रिस्तान, भूत, प्रेत, पिशाच, तांत्रिक, अघोरी, किसी भी प्रकार की नकारात्मकता बाधा के प्रति निर्भयता विद्यमान रहती है ?

क्या हमारे भीतर हमारी स्वम् की, अपने प्रियजनो की आकस्मित मृत्यु के प्रति सदा स्वीक्रोत्ति स्वागत का भाव बना रहता है ?

क्या हमारे अपनो को सदा के लिए खोने के भाव के प्रति हमारे भीतर तटस्थता बरकरार रहती है ?

क्या अपने स्थूल अस्तित्व के भविष्य के प्रति हमारे अंदर किसी भी प्रकार की आशंका या शंकाओं की नगण्यता रहती है ?

क्या अन्य सहजियो/सर्व साधारण मानवों के हृदयों की बाते हमारे हृदय में परिलक्षित होती हैं ?

क्या सहज-सामुहिकता की मुख्य समस्याएं प्रश्न हमारे अंतस से प्रगट होती हैं ?

क्या हमारा यंत्र अन्य सहजियो की आत्मिक, मानसिक, मनोदैहिक, शारीरिक समस्याओं का अपने यंत्र के माध्यम से निवारण करता है ?

क्या हमारे भीतर सहज-क्रियाओं के प्रति उदासीनता प्रगट होती है ?

क्या हम "श्री माँ" के द्वारा बताए गए सुरक्षा कवच 'बंधन' को लगाने की इच्छा/आवश्यकता से मुक्त हैं ?

क्या हमारी चेतना हमारी 'आत्मा' के साथ निरंतर बनी रहती है ?

क्या हम किसी भी मृत्यु जन्म के प्रति तठस्थ रहते हैं ?

क्या हम अपने भीतर किसी भी प्रकार के सांसारिक कार्यक्रम के प्रति उत्साह शून्यता अनुभव करते हैं ?

क्या हमें हमारे स्थूल अस्तित्व की मृत्यु सदा स्मरण रहती है ?

क्या हम किसी भी क्षण सकने वाली इस सुनिश्चित मृत्यु का वरण करने के लिये हर पल तैयार हैं ?

क्या हम जीने की इच्छा मरने की चाहत से मुक्त हैं ?

क्या हम अपने स्थूल अस्तित्व के समाप्त हो जाने के बाद भी अन्य लोगों की 'आत्मिक जागृति' के लिए सक्रिय रहने की इच्छा रखते हैं ?

क्या हम पुनः शरीर रूप में जन्म लेने के प्रति उदासीन हैं ?

क्या हम सम्पूर्ण मानव जाति के आत्मिक उद्धार कल्याण के लिए हर स्वरूप में कार्यान्वित रहने के लिए ततपर हैं ?

क्या हम "श्री माँ" के द्वारा रचित 'सम्पूर्ण रचना' के समस्त रहस्यों से परिचित होने उनको समस्त सच्चे खोजियों के लिए अनावृत करने की अदम्भय शुद्ध इच्छा अपने अंतस में रखते हैं ?

इन ऊपर लिखित स्थितियों के अतिरिक्त हमारी सैंकड़ो आंतरिक स्थितियां हैं जिनको लिखते लिखते और भी कई घंटे लग जाएंगे।

अभी भी इस लेख में कल रात्रि 10 बजे से अब तक लगभग 12-13 घंटे लग चुके हैं। अतः इसको अब यहीं समाप्त करते हैं। क्योंकि आंतरिक प्रेरणा के चलते लिखने का तो कोई अंत नहीं है।

यदि उपरोक्त स्थितयों में हमारी अन्तःचेतना अपने उत्तर 'हाँ' में देती है तो मेरी चेतना के मुताबिक ये बात सुनिश्चित है कि हम "माँ आदि शक्ति" के कुछ निकट तो अवश्य हैं।

अतः जो भी सहजी इस लेख में लिखी गई कुछ स्थितियों अथवा सभी स्थितयों को अपने भीतर अक्सर आभासित करते हैं तो वे सभी कहीं कहीं "श्री माँ" के 'निराकार' स्वरूप से वाकई में करीब हैं।

ऐसे सभी सहजियो को 'ये चेतना' हृदय से प्रणाम करती है और उन समस्त सहजियो के लिए "श्री आदि माँ" से 'पूर्ण एकाकारिता' स्थापित करने के लिए अनेको शुभ कामनाओं के साथ प्रार्थना भी करती है।"

-----------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"