Saturday, December 31, 2016

"Impulses"--327--"Happy New Year 2017 to All Enlightening Souls"

"Happy New Year 2017 to All Enlightening Souls"


“Nothing is New, Nothing is Old,

Internal World of Heart is, full of Gold,

It has been earlier Told,


We have to be little more Bold,



To dive deep into the Ocean of our Heart,
Without caring so many Fold,



Just Enjoy Compassion and Love, 
Swimming into this Water of Joyous Cold."


(" तो कुछ नया है, और ही कुछ पुराना है,


भीतर के हृदय की दुनिया सोने से भरी हुई है,

ये ज्ञानियों द्वारा पहले ही बताया जा चूका है।


हम सभी को थोड़ा बहुत और साहसी होना है,


हमें अपने ही हृदय के सागर में गहरे डुबकी लगानी है,

अनेको अड़चनों व् बाधओं की चिंता करे बगैर।



और हमें इसी वात्सल्य व् प्रेम के सागर में तैरना है,


जिसका पानी आनंददाई शीतलता देने वाला है। ")

----------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

Thursday, December 29, 2016

Wednesday, December 28, 2016

"Impulses"---326---"संसार-विमुखता"

"संसार-विमुखता"

"जब कोई साधक/साधिका ध्यान में प्रगति कर रहे होते हैं तो अक्सर कुछ अभ्यासियों को लगता है कि जैसे उनका जीवन निर्मूल्य हो गया है।क्योंकि सांसारिक बातों में दिल लगता नहीं और अध्यात्म में अभी पूर्णता का एहसास हो नहीं रहा होता है।

समझ नहीं आता की क्या करें, अरुचि, उदासीनता, निर्लिप्तता, निर्मोह एवम् उद्देश्य विहीनता मित्र की तरह साथ रहने लगते है किसी भी सांसारिक स्थिति व् चीज के प्रति कोई खास आकर्षण व् उल्लास शेष नहीं रह जाता है

ऐसा प्रतीत होता है कि हम इस संसार का हिस्सा भी हैं या नहीं है। इस दुनिया से इक परायापन महसूस होने लगता है और साक्षी भाव का अनजाना सा भाव प्रगट होने लगता है

ऐसी स्थिति को महसूस कर कुछ सहजी चिंतित हो, ये सोचने लगते है कि, कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी नेगेटिविटी ने उन पर कब्ज़ा तो नहीं जमा लिया।

मेरी समझ व् चेतना के मुताबिक उपरोक्त लक्षण "माँ" के प्रेम में अग्रसर होने के ही हैं, जरा सभी चिंतन करके देखें तो पाएंगे कि "ध्यान" की अवस्था में बने रहने का तो खूब मन करता है किन्तु संसार की उलझनों को सुलझाने के प्रति उदासीनता उत्पन्न होने लगी है


उनको ऐसे ही "श्री माँ" के "श्री चरणों" में छोड़ने की प्रवृति उत्पन्न होती जा रही है यनि हम 'समर्पण' की ओर बढ़ रहे हैं।"
----------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

Thursday, December 22, 2016

"Impulses'---325---"ध्यान-वृक्ष"

"ध्यान-वृक्ष"


1)"ध्यान एक वृक्ष है, और 'आत्मज्ञान' उसका फल है, ये वृक्ष जितना बड़ा व् हरा भरा होगा उतने ही ज्यादा मीठे फल इस वृक्ष पर लगेंगे जिसका लाभ इस विश्व की सम्पूर्ण मानव जाति उठाएगी।

इस ध्यान रूपी वृक्ष को अच्छे से सींचने के लिए,

i)
उर्वर मनोभूमि, 

ii)"
माँ आदि शक्ति" की शक्ति रूपी जल धारा, 

iii)
प्रज्वलित 'आत्मा' की अग्नि,
 
iv)'
वात्सल्य-प्रेम' रूपी वायू,

V)"
परम कृपा" रूपी आकाश, व्

vi) चिंतन-मनन रूपी खाद की आवश्यकता होती है

तो आइये क्यों हम सभी "श्री माँ" के कल्पतरु बन सारे संसार व् इस रचना की सेवा में अपने इस अनमोल जीवन को "श्री चरणों" में सहर्ष अर्पित कर अपने अस्तित्वों के दायित्व से मुक्त हो जाएँ और वास्तविक रूप में "श्री माँ" के 'जन्म दिवस' को मानाने के अधिकारी बनें।"

--------------------------------------Narayan

"Jai Shree Mata Ji"


Tuesday, December 20, 2016

"Impulses"---324---"मानवीय चेतना"


"मानवीय चेतना"

"अक्सर हममे से कुछ लोग अपनी चेतना की बात करते हैं और कभी कभी सम्पूर्ण जगत में व्याप्त "चेतना" की बात करते रहते हैं, जब ये दोनों ही 'चेतना' हैं, तो आखिर दोनों में क्या अंतर है ? हम किस प्रकार से इनको समझ सकते हैं ?

मेरी चेतना के अनुसार सार्वभौमिक "चेतना" "परमपिता" की इस रचना के कण कण में व्याप्त है और हम मानव "उनकी" रचना की सर्वश्रेष्ठ कृति हैं और हमारे भीतर भी "उनकी" चेतना उपस्थित है।

क्योंकि इस सर्वोत्तम कृति में अपने भीतर इस सम्पूर्ण रचना के ज्ञान को अपने 'संज्ञान' में लेकर उन्नत होते हुए पूर्णता को प्राप्त होने की विशेषता मौजूद है जिसे "मानवीय चेतना" के नाम से समझा जा सकता है।जो किसी भी अन्य प्राणी में उपलब्ध नहीं है

यानि हमारी मानवीय चेतना एक "कोष" के रूप में हमारे साथ है जिसे हम अपने बाह्य व् भीतरी जगत की अनुभूतियों व् अनुभवों के द्वारा उस 'उपस्थित ज्ञान' को शनैः शनै अपने 'संज्ञान' में लेते हुए भरते जाते हैं। जिससे हमारी आंतरिक समझ विकसित होती जाती है।सरल शब्दों में हम इसे अपना "संज्ञान-कोष" भी कह सकते हैं।

जबकि हमारा मन हमारे लिए "ज्ञान-कोष" का कार्य करता है जिसमे समस्त सूचनाएँ एकत्रित होती रहती हैं और 'ध्यान' अवस्था में अपने अनुभवों से गुजरकर हम 'मन के ज्ञान' को अपने 'संज्ञान' में धीरे धीरे लेते हैं।इस संज्ञान में लेने की प्रक्रिया को ही हम अपनी चेतना का विकसित होना कहते हैं।

इन दोनों के अंतर को हम "आत्मा" व् "परमात्मा" के अंतर के द्वारा भी समझ सकते है। जैसे हमारी "आत्मा" पूर्ण जागृत होने पर "परमपिता" को अभिव्यक्त करती है।इसको एक और उदहारण से भी आत्मसात किया जा सकता है।

'मानो इस धरा पर सूर्य का प्रकाश("कण कण में व्याप्त चेतना) बिखरा हुआ है और यह प्रकाश हमारे घर की खिड़की या जाल के माध्यम से हमारे अपने घर(मानवीय चेतना) में आकर पुरे घर को भी प्रकाशित(संज्ञान में लेना) करता रहता है


अतः हमारी जागृत 'चेतना' ही वो खिड़की है जिसके माध्यम से "पूर्ण चेतन" को अपने भीतर महसूस करके अपने अस्तित्व को विकसित किया जा सकता है।"
----------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"