Wednesday, December 28, 2016

"Impulses"---326---"संसार-विमुखता"

"संसार-विमुखता"

"जब कोई साधक/साधिका ध्यान में प्रगति कर रहे होते हैं तो अक्सर कुछ अभ्यासियों को लगता है कि जैसे उनका जीवन निर्मूल्य हो गया है।क्योंकि सांसारिक बातों में दिल लगता नहीं और अध्यात्म में अभी पूर्णता का एहसास हो नहीं रहा होता है।

समझ नहीं आता की क्या करें, अरुचि, उदासीनता, निर्लिप्तता, निर्मोह एवम् उद्देश्य विहीनता मित्र की तरह साथ रहने लगते है किसी भी सांसारिक स्थिति व् चीज के प्रति कोई खास आकर्षण व् उल्लास शेष नहीं रह जाता है

ऐसा प्रतीत होता है कि हम इस संसार का हिस्सा भी हैं या नहीं है। इस दुनिया से इक परायापन महसूस होने लगता है और साक्षी भाव का अनजाना सा भाव प्रगट होने लगता है

ऐसी स्थिति को महसूस कर कुछ सहजी चिंतित हो, ये सोचने लगते है कि, कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी नेगेटिविटी ने उन पर कब्ज़ा तो नहीं जमा लिया।

मेरी समझ व् चेतना के मुताबिक उपरोक्त लक्षण "माँ" के प्रेम में अग्रसर होने के ही हैं, जरा सभी चिंतन करके देखें तो पाएंगे कि "ध्यान" की अवस्था में बने रहने का तो खूब मन करता है किन्तु संसार की उलझनों को सुलझाने के प्रति उदासीनता उत्पन्न होने लगी है


उनको ऐसे ही "श्री माँ" के "श्री चरणों" में छोड़ने की प्रवृति उत्पन्न होती जा रही है यनि हम 'समर्पण' की ओर बढ़ रहे हैं।"
----------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

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