Tuesday, April 30, 2019

'अनुभूति'-13--"हकीकत"-


"हकीकत"

" मेरी जिंदगी, तू मुझसे हमेशा नाराज रहना,
तब कहीं जा कर मानूंगा, मैं अपने "रहबर" का कहना,

जितना हो सके मुझसे, बेबफाई करना,
देख कर तेरी बेबफाई मुझसे, पड़ेगा "उनको" हर दम मेरे साथ चलना,

इतनी बेरुखी दिखा कि सारी कायनात हिल जाए,
तेरी बेरुखी से खौफ खाकर, मुझे "श्री माँ" मिल जाएं,

इतनी बेइज्जती तू मेरे 'इश्क' की सरे आम कर,
आना पड़ेगा मेरी "श्री माँ" को, आंखों में अश्क भरकर,

छोड़ देना मुझको बनाकर बेसहारा,
हर जगह खड़ी मिलेंगी "वो" बनकर मेरा सहारा,

बैठ जाना किसी के पहलू में, मुझको छोड़कर,
तड़पकर गले लगा लेंगी "वो" मुझे अपने से लिपटाकर,

शिद्दत से नफरत कर मुझसे दूरी बढ़ाकर,
दौड़ कर जाएंगी "वो", जन्नत को छोड़ कर,

वक्त वक्त पर तूने मेरे दिलो दिमाग पर बहुत चोट लगाई है,
हर चोट "उन्होंने" मेरी, बड़े प्रेम से सहलाई है,

झूठी तसल्ली देकर तूने, मेरे जख्मों को नासूर बनाया है,
घावों को चूम चूम कर "उन्होंने" मेरे,

"अपना" सुरूर चढ़ाया है,


बार बार चालाकी दिखाकर तूने, मुझे बहुत छला है,
हर बार तेरा वो छलना, मुझको बहुत फला है,

तेरी मतलब परस्ती से, मैं दिल में जार जार रोया हूँ,
फिर "उनके" 'नूरानी चेहरे' में, मैं हर बार खोया हूँ,

तेरी हरदम दौड़ने की आदत से, मैं आजिज गया हूँ,
ऐसा लगता है कि जैसे, मैं "उनके" बहुत करीब गया हूँ।


ये मेरी शायरी नहीं, शायद उसी 'कुदरत' का करिश्मा है,
इस अनपढ़ गंवार को 'उसने' शायर का दर्जा बक्शा है,

ये सब कुछ 'उसने' केवल जगाने के लिए रखा है,
मेरी कलम इस्तेमाल कर, 'उसने' ये राज गहरा दर्शाया है,

ये मेरे अलफाज नहीं, 'उसी' कुदरत के आंसू हैं,
लगता है जब जख्म गहरा, किसी के दिलों दिमाग पर,

स्याही के रंग में रंगकर पन्ने पर ढलक आता है,
फिर यही 'दिले-एहसास', शायरी में ढलकर उभर आता है,

ऐसी शायरी से ही तो 'रूह' बेनकाब होती है,
जिस्म के जर्रे जरे में 'जिसकी' रिहाइश होती है,

फिर क्यूँ मैं महरूम रहूं, इस, 'रूहे-नाजनीन' से,

जिसे "तेरी" शक्ल देकर लगाया मैंने कलेजे से,

अब ये 'मुहब्बत' परवान चढ़ जाएगी,
मिटा कर अपने वजूद को अमिट हो जाएगी।"

---------------------------------------------------Narayan

"Jai Shree Mata Ji"
अनुभूति-13-(29-12-06-2.30am)

Tuesday, April 23, 2019

"Impulses"--487--"श्री माँ" का बाह्य/आंतरिक मार्ग दर्शन"


"श्री माँ" का बाह्य/आंतरिक मार्ग दर्शन"

"जब से "श्री माँ" ने इस चेतना को अपने "श्री चरणों" में स्थान बक्शा है तभी से भीतर में एक ही चिंतन निरंतर चलता रहता। कि किस प्रकार से "श्री माँ" की सभी सन्तानें इस सत्य को अपने अंतःकरण में पहचाने कि वो वास्तव में "श्री अंश" हैं।

यूं तो "श्री माता जी" ने अपने हजारों लेक्चर्स में इससे संबंधित अनेको गूढ़ तथ्यों सत्यों को हम सबके मार्ग दर्शन के लिए अनावृत किया है।

किंतु कानो से सुनने, मानसिक रूप से समझने कुछ का पालन करने का अथक प्रयास करने के उपरांत भी हममें से अधिकतर सहजी अभी भी इस योग्य नहीं हो पाए हैं।

कि "उनकी" समस्त बातों को अपने अन्तःकरण चेतना में आत्मसात कर आत्मिक रूप से उन्नत हो सकें और वहां पर स्थित हो सकें जहां पर "श्री माँ" हमको देखना चाहती हैं।

यकीनन हममें से कुछ सहजी अवश्य अच्छे स्तर पर उन्नत हुए होंगे किंतु शायद उनकी संख्या नगण्य है। या शायद वो सबके सामने आना चाहते हों जिसके कारण हम जान नहीं पा रहे हैं।

अथवा हमारे यंत्र अभी इतने सक्षम नहीं हैं कि हम उन उच्च अवस्था के सहजियों को अपने आस पास या अपने सामने होते हुए भी नहीं पहचान पा रहे हैं।

सहज योग को स्थापित हुए 48 साल हो गए किंतु अभी भी बहुतायत में सहजी या तो अपने चक्रों नाड़ियों के सन्तुलन क्रियाओं को करने में लिप्त पाए जाते हैं।

अथवा अपने वायब्रेशन के ठंडे गरम के अनुभव की चर्चा करते ही नजर आते हैं। या फिर व्यक्तिगत स्तर पर अथवा सहज-मंच से "श्री माता जी" के वक्तव्यों पर जोर शोर से चर्चा करते दिखाई देते हैं।

या अन्य सहजियों को "श्री माता जी" की 'अमृतवाणी' के माध्यम से शिक्षा देते नजर आते हैं। एक और विषय है चर्चा का जो ज्यादातर सहजियों के बीच सबसे ज्यादा लोकप्रिय है।

और वो है किन्ही सहजियों को सहज-विरोधी, तांत्रिक, असुर, जादू-टोने करने वाला,भूत-बाधित, वशीकरण करने वाला आदि आदि बताना।
यह सुनकर देखकर तो बहुत हंसी भी आती है अत्यंत दुख भी होता है।

कि, "श्री माता जी" ने क्या इतनी तुच्छ निम्न बाते देखने सुनने के लिए ही हम सब की जीवात्माओं के कल्याण के लिए अथक मेहनत की है।

आखिर क्या कारण हैं जो हममें से अधिकतर सहजी चेतना के अत्यंत उथले स्तर पर ही स्थित हैं। और ही निरंतर ध्यान में गहन होने उन्नत होने के लिए लालायित ही हैं।

यदि ध्यान में उतरकर संजीदगी के साथ चिंतन किया जाय तो हम पाएंगे। कि हममें से ज्यादातर साधक/साधिकाएं "श्री माता जी" के अत्यंत प्रार्थमिक लेक्चर्स का अनुसरण करने तक ही सीमित हो कर सन्तुष्ट हो गए हैं।

जो भी "श्री माता जी" ने अनेको गूढ़तम तथ्यों के बारे में बताया है उन को प्राप्त करने के लिये गहन ध्यान में उतरने के स्थान पर केवल उनकी चर्चा करने तक ही सीमित होते जा रहे हैं।

दुर्भाग्य अज्ञानता के चलते हवन पूजा आदि के कार्यक्रमो में भारी भरकम भव्यता को उड़ेलते हुए एक उत्सव का रूप ही देते जा रहें हैं।

साथ ही ज्यादातर सहज सेमिनार केवल और केवल प्रायोजित स्टेज कार्यक्रम ही बनकर रह गए हैं जिनमें सेमिनार यानि 'विचारगोष्टी' लापता है।

साप्ताहिक सेंटर का ध्यान पेटेंट दवाई की तरह फिक्स हो चुका है जिसके द्वारा सामूहिक रूप से उन्नत होने की कोई गुंजाइश शेष ही नहीं रह गई है। और यदि कोई सहजी व्यक्तिगत स्तर पर गहन ध्यान के द्वारा उन्नत हो भी जाता है।

तो उसके द्वारा प्राप्त 'आत्मज्ञान' को अक्सर 'सहज संस्था के पदाधिकारियों' कट्टर संस्था-धारियों के द्वारा सहज-विरोधी या कुगुरुता से प्रभावित घोषित कर दिया जाता है।हालांकि उस 'जागृत-साधक/साधिका' को इन सहज के ठेकेदारों की बातों से कभी कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

किंतु उनकी इन नकारात्मक उत्थान-विरोधी मानसिकता का खामियाजा वास्तविक खोजियों को अवश्य उठाना पड़ रहा है जो आत्मिक रूप से उन्नत होने की इच्छा से "शरणागत" हुए थे।

वास्तव में यदि हममें से कुछ लोगों के भीतर ध्यान में प्रगति कर "श्री माँ" का सुंदर यंत्र बनने की तीव्र इच्छा मौजूद है। तो जो भी "श्री माता जी" की बाते हमें मानसिक स्तर पर थोड़ी बहुत समझ आती हैं।

उन समस्त बातों पर चल कर बारंबार विभिन्न प्रकार के प्रयोग कर उनसे प्राप्त तथ्यों को अपनी चेतना में चैतन्य की भाषा के जरिये आत्मसात करना होगा।

यानि कि हमें एक बैज्ञानिक की तरह "श्री माता जी" के द्वारा बताए गए समस्त तथ्यों को परख परख कर अपने आत्म ज्ञान में उन्नत होना होगा तभी कुछ बात बनेगी।

जहां तक "श्री माता जी" के लेक्चर्स को सुन सुन कर ज्ञानी होने की बात है तो यह अत्यंत कठिन कार्य है। क्योंकि हमारी एक सहजी बहन अलका गुप्ता, दिल्ली, के अनुसार "श्री माँ" के लगभग 7000 लेक्चर्स हैं।

तो जरा हम सब चिंतन करके देखें कि यदि हम प्रतिदिन एक के हिसाब से उन लेक्चर्स को सुनने लगें तो 7000 दिन चाहिएं यानि 19.17 साल लगेंगे।

और यदि उन सभी को अपने भीतर आत्मसात करने की सोचें तो हो सकता है 19 जन्म लग जाएं। अतः "श्री माता जी" ने क्या कहा है इस पर शास्त्रार्थ करना "उनके" लेक्चर्स से साबित करना अत्यंत दुरूह है।

बल्कि हमको एक कार्य करना चाहिए कि "श्री माता जी" की वाणी जितनी भी हमने हृदय से सुनी समझी है उसको आत्मसात करने से ही हमारा कल्याण होगा।

हमें केवल और केवल अपने अनुभवों के आधार पर ही उन्नत होना होगा क्योंकि हम मानव हैं "श्री माता जी" नहीं हैं। हमारे स्वयं के अनुभव हमारी चेतना के अनुसार, एक अत्यंत सुंदर व्यवस्था "श्री माँ" ने हम सभी के भीतर कर रखी है।

और वह है अपने मध्य हॄदय में चित्त के माध्यम से अपने सहस्त्रार से जुड़कर निरंतर ध्यानस्थ रहना। ये हमारा वास्तविक अनुभव है कि जब हम इस अवस्था में बने रहते हैं।

तो "श्री माँ" अपनी उन समस्त बातों को भीतर से ही समझने योग्य बना देती हैं जो "उन्होंने" अपने समस्त लेक्चर्स में बोली है।

बड़ी हैरानी प्रसन्नता होती है अक्सर जब हमारे स्वयं के यंत्र के द्वारा बुलवाई गईं/लिखवाई गईं बातें कुछ समय बाद "श्री माँ" की स्वयं की वाणी के रूप में सुनने पढ़ने को मिलती हैं।

इतना ही नहीं हमारे मध्य हृदय से वह सब भी प्रस्फुटित होता है जो "वो" हमारे वर्तमान में कहना चाहती रही होंगी।

अतः "श्री माँ" का अनुसरण करने का सर्वोत्तम तरीका यही है कि हम सभी हर पल हर घड़ी अपने सहस्त्रार मध्य हृदय से जुड़कर निरंतर ध्यानस्थ अवस्था में बने रहें।

और लगातार "उनकी" निशब्द-दिव्य- वाणी को अपने हृदय की गहराइयों में उतरकर अपनी चेतना जागृति के माध्यम से ग्रहण करते हुए पल प्रति पल विकसित होते चलें।

अन्य सहजियों की भी इसी प्रकार उन्नत होने में मदद करते हुए "श्री माँ" के स्वप्नों को साकार करें।"

-------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"