Wednesday, April 26, 2017

"Impulses'--360--"दीपक"

"दीपक"

 
"श्री माँ" अक्सर प्रसन्न होकर हम सभी से कहती हैं, "तुम सब प्रकाशित दीपक की तरह हो"

हम सब बहुत खुश होते है, कि हम "श्री माँ" के दीपक हैं।

साथियों क्या आप सब दीपक को समझते हैं ?

जरा हमारी नजर से भी दीपक को देखियेगा।

दीपक पांच चीजों से मिलकर बनता है, यानि:-

1) मिटटी, दीपक मिटटी का बना होता है, वह हमारा शरीर है,

2) तेल, उसमें पड़ा हुआ तेल है हमारी आयु।

3) बाती, वो है हमारा अस्तित्व। 

जिसको कई जन्मो से हमने बड़े चाव से पाल पोस कर बड़ा किया है।

4) अग्नि की लौ, है हमारा आत्म-ज्ञान।

5) प्रकाश, है निस्वार्थ प्रेम।

सोच लीजिये, इसी अस्तित्व को जलना है।

यदि हम अपने बाती रूपी अस्तित्व को स्वेच्छा से आत्मज्ञान की अग्नि में मिटाने को तैयार होंगे।


तभी प्रकाश रूपी प्रेम सारे संसार को आलोकित करेगा। यानि हम वास्तविक रूप में "श्री माँ" के दीपक बन पाएंगे।"

------------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

Monday, April 24, 2017

"Impulses"--359

"Impulses"

1)"जहाँ माता प्रकृति हमें एक "माँ" के रूप में पोषित करती है, दुलारती है, वहीँ उसका एक दूसरा रूप एक दर्पण के सामान कार्य करता है।
जिसमे हम स्वम् अपने द्वारा किये गए कार्यों की प्रतिक्रियाएं अपने स्वम् के जीवन में घटित होने वाली अच्छी व् बुरी घटनाओं के माध्यम से देख व् समझ सकते हैं।

कोई भी घटना हमारे साथ यकायक घटित नहीं होती, उसकी पटकथा हमारे ही द्वारा किये गए कार्यों के जरिये पूर्व में लिखी जा चुकी होती है।

किन्तु अज्ञानतावश उन कार्यों को हम किन्ही मन की भावनाओं से वशीभूत होकर कर डालते हैं और वो सभी चीजे "माँ प्रकृति" के स्मृतिकोश में संचित हो जाती है और बाद में प्रकृति माता हमें अपना निर्णय सुनाती है जो कभी कभी बेहद अरुचिकर होता है "



2)"बारिश अपने हिसाब से होती है, सूर्य अपने ही समय पर निकलता है, सर्दी या गर्मी अपनी मर्जी से ही पड़ती है। हम मानव प्रकृति-प्रदत्त घटना-क्रमो को अपने मन के मुताबिक संचालित नहीं कर सकते बल्कि जो भी घटित होता है उसे स्वीकार कर अपना जीवन यापन करते हैं।

तो क्यों अपने जीवन में भी घटित होने वाली घटनाओ के प्रति यही नजरिया रख कर अपने मन में चलने वाले व्यर्थ के संघर्ष व् विचारों से निजात पाएं और अपने जीवन को सुन्दरतम बना इसे सार्थक करे।"



3)"केवल चार ही चीजो के लिए प्रयास वांछित है:--

प्रथम, ईमानदारी, लगन, मेहनत व् पूर्ण निष्ठां से अपना व् अपने परिवार का पेट भरने के लिए।

दूसरा, "परमपिता-परमात्मा" से लगातार संपर्क बनाये के लिए।

तीसरा, अन्य लोगों को भी "उनके" प्रेम से जोड़ने की व्यवस्था करने के लिए।

चौथा, असत्य के विरुद्ध आजीवन संघर्ष करने के लिए।"

--------------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"


Thursday, April 20, 2017

"Impulses"--358

"Impulses"

1) Every Birth Day reminds us this fact that we have not come into this Biological Unit forever, so we should accomplish our pending tasks of our Last Birth Cycles with full patience which have appeared in the form of our present materialistic responsibilities accompanied with our near and dear as we are losing 1 day every day.

As well as we have to utilize our precious time for the development of our Awareness by Meditation, Giving Self Realization, Helping New and Old Sahajis in their spiritual growth so that, our Soul could get a relief from the undue suffering of our uncontrolled and illusionary desires.”

2)"हमारे इस सांसारिक जीवन में "ध्यान" एक अत्यन्त आरामदायक "कक्ष" के समान है जहाँ हम आनंददायी 'विश्राम' पाते हैं
हमारी 'जीवात्मा' इस दुनिया के आवश्यक व् अनावश्यक उपक्रमो व् घटनाक्रमों से गुजरती हुई थकती रहती है। और अपनी थकान को मिटा पुनः तरोताजा होने के लिए 'ध्यान' रूपी कमरे में चली जाती है।"

("Meditation is just like a very Comfortable Room in our Materialistic Life where we get Rest and Relaxation.

Our Soul use to gets tired going through all kinds useful and useless affairs of External World. 

Our Soul goes into this Room of Meditation to replenish 'It's' Energy.")


3)"श्रेष्ठ वो नहीं जो किन्ही सांसारिक या आध्यात्मिक उपलब्धियों के कारण दूसरों से अपने को श्रेष्ठ समझते हैं, और अपनी उपलब्धियों के अहंकार से वशीभूत होकर दूसरे लोगों को हेय दृष्टि से देखते हैं।

बल्कि श्रेष्ठ वो लोग हैं जो दूसरों की विभिन्न प्रकार की श्रेष्ठताओं का हृदय से सम्मान करते हैं और सदा आंतरिक विश्लेषण के माध्यम से स्वम् में प्रतीत होने वाली स्वम् की कमियों को दूर करने के लिए लगातार प्रयत्नशील रहते हैं।"

-------------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

Monday, April 17, 2017

"Impulse"--357

"Impulses"

1) "जिस प्रकार हम बरसात के मौसम में अपने कपड़ों को भीगने से बचाने के लिए स्वम् को छाते या रेन कोट से ढक लेते हैं तो वर्षा का जल हमारे कपड़ों को भिगो नहीं पाता।

ऐसा करने से हमारे कपडे तो भीगने से बच जाते हैं किन्तु उस अमृत जैसे जल से हमारा शरीर वंचित भी रह जाता हैं जो हमारे शरीर को रोग रहित करने की क्षमता रखता है।

जिससे अत्यधिक गर्मी व् उमस के कारण हमारे शरीर में उत्पन्न होने वाली घमौरियां ठीक हो जाती हैं साथ ही शारीरिक तापमान भी सामान्य हो जाता है।

ठीक उसी प्रकार से ईर्षालु एवम् अहंकारी मानव "प्रभु"के बरसते प्रेम व् आशीर्वाद से वंचित रह जाता है। क्योंकि वह अपने को इन्हीं दुर्भावनाओं के आवरण से ढक कर रखता है जिसके कारण 'परमपिता' की अनुकंम्पा, प्रेम व् वात्सल्य उनके अस्तित्व को सराबोर नहीं कर पाता "

2) "जब जब साधक अपने भीतर की ओर अग्रसर होने लगता है तब तब "महामाया" उसको संसार की अनेको स्थितियों व् परिस्थितियों में जानबूझ कर उलझाती हैं।

ताकि "माया" द्वारा रचित ये संसार निरंतर गतिमान रहे, क्योंकि सच्चा साधक संसार से विरत होने लगता है, उसके लिए संसार समाप्त हो जाता है।

वो तो केवल इस दृश्यमान जगत के भीतर में स्थित "प्रभु के साम्राज्य" का आनंद उठा रहा होता है और संसार से पूरी तरह उदासीन होता है "

"Whenever a Sahdhak/Sadhika steps towards into his/her own Internal Spiritual World in Deep Meditation then "Shree Maha Maya" plays "Her" Game by making him/her entangled into all kinds of worldly affairs. So that this External World could keep on moving which is created by "Maya".

Because a True Devotee becomes indifferent from this Materialistic World, his/her Gross World is going to be extincted slowly. He/She use to be enjoying 'The Kingdom of God' which exists into this Visible World by being reluctant of it completely."

---------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"


Wednesday, April 12, 2017

Monday, April 10, 2017

"Impulses"--356--

"Impulses"

1)"An Enlightened Soul is not supposed to be escaped from the Evils of Human Society. 

But 'That One' is there to neutralize the 'Anti God', Anti Nature and 'Anti Human' Powers which are playing a vicious role against Humanity by keeping his/her 'Divine Attention' over such Negative Existences.

We all are made Enlightened by the "Mother" not only for our own 'Salvation' but also for the Redemption of other,s mind from the Rigid Grip of all kinds of Evils."


2)"सहज योग की दूरबीन से "श्री माँ" को देखने से अच्छा है, कि "श्री माँ" की गोद में बैठकर "सहज योग" को देखा जाये। यानि सहज योग को यदि हम पूर्ण रूप से जानना व् समझना चाहते है तो हमें "श्री माँ" के साथ एकरूप होना होगा।

"उनसे" एकरूपता हांसिल करने के लिए हमें लगातार अपने सहस्त्रार पर "उनकी" उपस्थिति को और "उनके" प्रेम की अनुभूति को अपने मध्य हृदय में महसूस करते रहना होगा।

क्योंकि "वो" हमारे हृदय के माध्यम से ही हमसे हमारे आत्मिक व् सांसारिक उत्थान के लिए मूक बातचीत करती हैं जो स्वत् उत्पन्न विभिन्न प्रकार की प्रेरणाओं के रूप में होती हैं।

इसके विपरीत केवल सहज योग के माध्यम से तो सहज योग को ही पूर्ण रूप से समझा जा सकता है और ही "श्री माँ" के सनिग्ध्य का ही आनंद उठाया जा सकता है।

सहजयोग तो केवल एक जरिया है "श्री माँ" के साम्राज्य में प्रवेश पाने का, ये तो मात्र दहलीज ही है, केवल दहलीज पर अटक कर भला "माँ" के सम्पूर्ण साम्राज्य का आनंद कैसे उठाया जा सकता है।"

---------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

Saturday, April 8, 2017

"Impulses"--355--"सहस्त्रार से परे जाएँ या न जाएँ"

"सहस्त्रार से परे जाएँ या जाएँ"

"अधिकतर सहजियों के बीच एक बात को लेकर वाद-विवाद बना ही रहता है और वो है ध्यानस्थ अवस्था में सहस्त्रार से ऊपर चित्त को ले जाना, यानि आकाश, अंतरिक्ष या इससे भी परे चित्त व् चेतना को ले जाने के सम्बन्ध में। जो भी कोई सहस्त्रार से परे चित्त को ले जाता है, ज्यादातर सहजी उसका विरोध करते हैं, बारम्बार कहते रहते हैं कि ये गलत है, ये ध्यान सहज विरोधी है, ये "श्री माता जी" ने नहीं बताया है, "माँ" ने कहा है केवल सहस्त्रार पर रहो।

वास्तव में विरोध करने वाले सहजी अपने चित्त को सहस्त्रार से ऊपर ले जाने का प्रयास कर चुके होते हैं किन्तु उनका चित्त उनकी देह से बाहर जा ही नहीं पाता। बल्कि बारम्बार किये गए प्रयासों के कारण उनके सर में पहले भारी पन आता है और फिर थोड़ी देर में सर में दर्द होना प्रारम्भ हो जाता है जिसके कारण उन्हें लगता है कि सहस्त्रार से ऊपर चित्त ले जाना ठीक नहीं है।

जबकि "श्री माता जी" सहस्त्रार के ऊपर के चार चक्रों के बारे में पहले ही बता चुकी हैं।परंतु फिर भी अधिकतर सहजी अपने चित्त को ऊपर ले जाने से कतराते हैं।और वो अक्सर ये कहते सुने जाते हैं कि पहले नीचे के सातों चक्रों को तो साफ करके साध ले फिर ऊपर की ओर चलेंगे। इसी अवधारणा के चलते बहुत से सहजी रात-दिन, सालों-साल तक अपने मूलाधार चक्र को ही स्वच्छ करने की बात करते हैं व् दूसरों को भी यही करने के लिए दवाब बनाते रहते हैं।

वो अक्सर ये कहते सुने जाते हैं कि मूलाधार चक्र तो बेस है हमारे सूक्ष्म यंत्र का यदि ये ठीक नहीं हुआ तो बाकी कुछ भी ठीक नहीं रहेगा।
बहुत से पुराने सहजी तो 25-30 साल से केवल और केवल मूलाधार चक्र को स्वच्छ रखने में ही प्रतिदिन 1-2 घंटे लगा देते है परंतु फिर भी शंकित रहते हैं कि कही मूलाधार चक्र खराब तो नहीं रह गया। ऐसा मानने वालों के 24 घंटे में कम से कम 2 घंटे सफाई अभियान में ही चले जाते हैं इसीलिए गहन ध्यान के लिए समय ही नहीं रह पाता और वे वास्तविक उत्थान से वंचित रह जाते हैं।

जबकि दूसरी ओर कुछ गिने चुने ऐसे भी सहजी हैं जो हर प्रकार की सांसारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए लगातार ध्यान की अवस्था में ही बने रहते हैं उनके सहस्त्रार व् मध्य हृदय में "श्री माँ" का प्रेम ऊर्जा के रूप में सदा दस्तक देता ही रहता है। ऐसे साधकों/साधिकाओं के चक्र पकड़ते ही नहीं हैं, इसीलिए वो अपना कीमती समय चक्रों की सफाई में गवांते नहीं हैं।

बल्कि वो जब भी सांसारिक जीवन से समय निकाल कर कुछ देर के लिए ध्यानस्थ अवस्था में बैठते हैं तो उनका चित्त सहस्त्रार पर उनकी कुण्डलिनी के साथ ततक्षण जुड़कर एकाकार हो जाता है जो उनकी चेतना के रूप में प्रगट होता है। चित्त और कुण्डलिनी के संयोग से उत्पन्न चेतना सहस्त्रार से परे "परमात्मा" के अनंत साम्राज्य में व्याप्त अनेको शक्तियों को ग्रहण कर उनके सूक्ष्म यंत्र को निरंतर सशक्त कर रही होती है।ये शक्तियां हमारे सहस्त्रार व् यंत्र में विभिन्न प्रकार की उर्जामयी आवृतियों के रूप में आभासित हो रही होती हैं।

अब ये प्रश्न उठना स्वाभिक है कि आखिर ये दो प्रकार की विपरीत स्थितियां साधकगणों के बीच क्यों परिलक्षित हो रहीं हैं जबकि हम सभी को "श्री माँ" ने ही अपने सहस्त्रार से जन्म दिया है व् सभी को सामान रूप में ही ज्ञान प्रदान किया है तो ये विरोधाभास क्यों घटित हो रहा है।

मेरी चेतना के मुताबिक, जो लोग सहज योग के शुरूआती दौर में 'शरणागत' हुए थे तो उस समय पूर्व संस्कारों की जढ़ता के कारण सहजियों का मूलाधार चक्र जकड़ा रहता था जिसके कारण उनकी नाड़ियाँ असंतुलित ही रहती थीं व् कुण्डलिनी सहस्त्रार पर ही नहीं पाती थी और उन्हें बारम्बार अपने चक्रों व् नाड़ियों को "श्री माँ" के द्वारा बताई गई तकनीको के द्वारा स्वच्छ करना पड़ता था।

सहज योग की स्थापना से पहले वैश्विक स्तर पर लोग आध्यात्मिकता को अपने आचरण में उतारने के लिए विभिन्न प्रकार की प्रार्थनाओं, भजनों, मंत्रोचारण व् सिद्धियो की ओर ही आकर्षित रहते थे और किसी एक देवी या देवता की उपासना विभिन्न प्रकार के धार्मिक कर्मकांडों के द्वारा उन्हें सिद्ध करने का प्रयास करते रहते थे। जिसकी वजह से समस्त नाड़ियाँ व् चक्र असंतुलित ही रहते थे, क्योंकि किसी भी एक देवी या देवता की प्राप्ति करने के लिए किया गया प्रयास निश्चित रूप से असंतुलन को ही उत्पन्न करता है।

जैसे किसी कार के केवल एक ही कलपुर्जे का हम अच्छे से रखरखाव करें व् अन्यों को उपेक्षित कर दें तो निश्चित रूप से हमारी कार ठीक नहीं रह पाएगी। यदि हमें अपनी कार से उचित कार्य लेना है तो उसके समस्त कलपुर्जो व् यंत्रों की ठीक से देखभाल करनी होगी व् नियत समय पर सर्विस करानी होगी। यही नियम हमारे सूक्ष्म यंत्र पर भी लागू होता है। हमारे सूक्ष्म यंत्र की भी सर्विस हमारी चेतना के सहस्त्रार में बने रहने से अच्छे प्रकार से स्वतः ही हो जाती है।

अतः उस दौर के सहजियों की कुण्डलिनी सहसत्रार पर बने रहने के कारण उनकी कुण्डलिनी का 'ऊर्जा क्षेत्र'(Energy Field) विकसित ही नहीं हो पाता था जिसकी वजह से स्वम् उनकी व् अन्य सहजियों की कुण्डलिनी सहस्त्रार पर टिक ही नहीं पाती थी, बारम्बार गिर कर नीचे चली जाती थी।

लिहाजा उनको बारम्बार "श्री माता जी" के समक्ष कुण्डलिनी उठाना पड़ता था और मूलाधार चक्र स्वच्छ करते रहना पड़ता था क्योंकि "श्री माता जी" के अनुसार मूलाधार चक्र की शक्ति यानि जागृत "श्री गणेश" की शक्ति ही कुण्डलिनी को ऊपर उठाने में मदद करती है।इसीलिए "श्री माता जी" ने अन्य चक्रों व् नाडियों से साथ साथ विशेषतौर पर मूलाधार चक्र की स्वच्छता व् सफाई की ओर विशेष ध्यान देने की बात कही है।

परंतु आज के काल की बात ही निराली है, आज तो "श्री माँ" की ओर चित्त ले जाने मात्र से ही कुण्डलिनी सहस्त्रार पर नृत्य करने लगती है।
और तो और यदि कोई अच्छा सहजी भी हमारे चित्त में जाता है तो भी उसके सहस्त्रार पर रहने वाली उसकी कुण्डलिनी की प्रतिक्रिया स्वरूप हमारी कुण्डलिनी सहस्त्रार पर दौड़ कर जाती है या सहस्त्रार पर बनी रहती है। 

यानि किसी की जागृत कुण्डलिनी का ऊर्जा क्षेत्र उसके या हमारे चित्त के माध्यम से भी हमारी कुण्डलिनी को सहस्त्रार पर लाने या सहस्त्रार पर बनाये रखने में सक्षम है।तो इसका मतलब ये हुआ कि किसी भी साधक/साधिका की अच्छी अवस्था के कारण उनका विकसित ऊर्जा क्षेत्र उसकी कुण्डलिनी के माध्यम से उसके मूलाधार चक्र को भी पुष्ट कर सकता है तभी तो उसकी कुण्डलिनी सहस्त्रार पर बनी रह सकती है। 

इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि यदि किसी साधक/साधिका की कुण्डलिनी उसे अपने सहस्त्रार पर महसूस हो रही है तो उसे बारम्बार अपने मूलाधार चक्र को साफ करने की आवशयकता ही नहीं है और ही उसे अपने अन्य चक्र व् नाडियों को ही स्वच्छ व् संतुलित करने की ही जरुरत है। क्योंकि हमारी कुण्डलिनी सहस्त्रार पर बनी ही तभी रहती है जब हमारे सूक्ष्म यंत्र में पूर्ण संतुलन स्थापित हो जाता है वर्ना हमारी कुण्डलिनी सहसत्रार पर ही नहीं पाएगी।

इतनी सुन्दर अवस्था के बाद भी यदि हम अपने मूलाधार चक्र, अन्य चक्र व् नाडियों को बारम्बार स्वच्छ करने की प्रक्रिया में लगे रहते हैं तो उसका कारण हमारी सहज तकनीकों के प्रति जढ़ता है। यानि हम ये सब जो कर रहे हैं वो मात्र कंडीशनिंग के कारण ही कर रहे हैं, वास्तव में तकनीकी रूप से हमें ये सब करने की आवश्यकता ही नहीं है।इससे कुछ लाभ हो हो परंतु हमारा बेहद कीमती समय जरूर खराब हो जाता है जो गहनता बढ़ाने में ही उपयोग में लाना चाहिए।

यदि हमारी कुण्डलिनी माता हमारे सहस्त्रार पर विराजी हैं व् उनके प्रेम की अनुभूति ऊर्जा के रूप में हम अपने मध्य हृदय में कर रहे हैं तो इसका मतलब "माँ जगदम्बा" जागृत हो गईं हैं जो स्वतः ही समस्त चक्रों व् नाडियों का ध्यान रख लेंगी। इसीलिए हमें सदा अपने मध्य हृदय व् सहस्त्रार में इन "दोनों महादेवीयों" की शक्ति की अनुभूति अपनी चेतना के माध्यम से करते रहना चाहिए तभी हमारे समस्त चक्र व् नाड़ियाँ स्वस्थ रहेंगे।

हम सभी को "श्री माँ" ने बताया ही कि "श्री गणेश जी" को "उन्होंने" इस सृष्टि से पहले निर्मित किया है, इसीलिए वो हर शुभ कार्य में सबसे पहले पूजे जाते हैं। इसीलिए समस्त 'स्वम्भू मंदिरों' में वो सबसे पहले मिलते हैं, यानि वो "परमात्मा" के साम्राज्य के प्रहरी हैं, जिनकी आज्ञा के बिना कोई भी "परम" से मिल नहीं सकता। इसीलिए "श्री माँ" ने 'उन्हें' हमारे सूक्ष्म यंत्र में स्थित समस्त चक्रों में देवी/देवता व् ग्रहों के साथ बिठाया है।यानि हमारे हर चक्र पर एक देवता का मंदिर है।

इसीलिए हमारे चक्रों पर स्थित समस्त देवी/देवताओं से हमारी चेतना तभी मिल सकती है या उनका आशीर्वाद हमें तभी मिल सकता है जब समस्त चक्रों पर स्थित "श्री गणेश" हमसे प्रसन्न हों। और समस्त "श्री गणेश" यानि "अष्ट विनायक" तभी प्रसन्न होंगे जब हमारी माता कुण्डलिनी हमसे प्रसन्न होंगी और माता कुण्डलिनी तभी प्रसन्न होंगी जब वे सहस्त्रार पर "माँ आदि शक्ति" के सनिग्ध्य में रहेंगीं।

तो पुनः निष्कर्ष यही निकलता है कि यदि हमारी कुण्डलिनी माँ सहस्त्रार पर स्थित हो जाएँ तो हमारे "अष्ट विनायक", तीनो नाडियों पर स्थित महादेवीयां, समस्त चक्रों के देवी/देवता व् उनके साथ विराजे हुए समस्त ग्रह-नक्षत्र प्रसन्न रहेंगे व् हमें आशीर्वादित करते रहेंगे जिससे हम हर प्रकार से निरंतर उन्नत होते रहेंगे।

मेरी चेतना के अनुसार हमारे समस्त चक्रों पर जागृत "श्री गणेश" हमारे समस्त चक्रों के देवी/देवताओं के आशीर्वाद से उत्पन्न चक्रों के गुणों में हमें व् हमारे चित्त को लिप्त नहीं होने देते, हमारे चित्त को अपने प्रेम व् शक्ति से ऊर्ध्वगामी बनाते हैं।यदि समस्त चक्रों पर "श्री गणेश" जागृत हो पाएं तो उन समस्त चक्रों के गुण उन गुणों के प्रति अत्यधिक लिप्तता के कारण अवगुणों में परिवर्तित हो जाते हैं।

उदाहरण के लिए यदि कोई बहुत विद्वान है और उसके विद्वता के चक्र के "श्री गणेश" सुप्त हैं या नाराज हैं तो वह व्यक्ति अपनी विद्वता का दुरूपयोग ही करेगा, जैसे कि वकील और डॉक्टर अपने स्वाधिष्ठान चक्र के गुण का नाजायज लाभ उठा कर मानवता के खिलाफ चले जाते हैं तब उनका ये चक्र खराब हो जाता है।और बाद में उन्हें अनेको कष्ट उठाने पड़ते हैं।

हमारे चक्रों पर जागृत "श्री गणेश" प्रयास करते रहते हैं कि हमारा चित्त हमारे शरीर व् इससे जुड़े संसार के विचारों में उलझ पाये बल्कि माता कुण्डलिनी के साथ एकाकार होकर हमारी चेतना में परिवर्तित हो इस ब्रह्ममाण्ड से भी परे रहने वाले हम सबके "परमपिता" के "श्री चरणों" में समां जाए ताकि बारम्बार के इस जीवन-मरण रूपी कष्टकारी चक्र में फंसने की बाध्यता से मुक्ति मिल जाए।

ये अक्सर देखने को मिलता है कि यदि किसी साधक/साधिका का किसी चक्र के देवी/देवता के प्रेम व् आशीर्वाद स्वरूप कोई गुण विकसित हो जाता है तो वह साधक/साधिका उसी गुण में उलझ कर, लिप्त होकर उसे व्यावसायिक रूप में इस्तेमाल करते हुए अधोगति को प्राप्त होते है।

इसीलिए यदि किसी साधक का चित्त उसके यंत्र से परे ऊपर की ओर अग्रसर नहीं हो पा रहा है तो उसका एक ही कारण है कि वह निश्चित रूप में किसी किसी सांसारिक स्थिति व् विचारों में आवश्यकता से अधिक लिप्त है और उस खास गुण व् स्थिति को उत्पन्न करने वाले चक्र के "श्री गणेश" या तो सोये हैं या उससे नाराज हैं।

यदि वह ध्यान में चिंतन करके देखेगा तो उसे ये आसानी से पता चल जाएगा, पता लगने पर उसे ध्यान के दौरान अपने सहस्त्रार व् मध्य हृदय पर ऊर्जा को महसूस करते हुए उस खास चक्र पर कुछ देर के लिए अपना चित्त रख कर सहस्त्रार व् मध्य हृदय की सामूहिक ऊर्जा को हर ध्यान की बैठक में प्रवाहित करना होगा तभी उस चक्र के "श्री गणेश" जागृत होंगे या प्रसन्न होंगे।

अतः अंत में ये निष्कर्ष निकलता है कि जो लोग आसानी से अपने सहस्त्रार से परे चित्त को ले जा पाते हैं उनके "अष्टविनायक" जागृत हैं व् प्रसन्न हैं तभी तो वे सांसारिकता में लिप्त नहीं हैं भले ही वो समस्त प्रकार की सांसारिक गतिविधियॉ को आवश्यकतानुसार अंजाम देते हों। ऐसे साधक/साधिकाओं को बारम्बार अपने मूलाधार चक्र की स्वच्छ करने की भी आवशयकता नही है।

वास्तव में मेरी चेतना के अनुसार मूलाधार चक्र धूर्तता, दुष्टता, अहंकार, ईर्ष्या, लोभ, जढ़ता,षड्यंत्र व् झूठ आदि से परिपूर्ण आचरण व् व्यवहार से ही खराब होता है। इसके विपरीत जिन सहज साथियों का चित्त सहस्त्रार से ऊपर नहीं जा पाता है यदि चाहें तो वे अपने सहस्त्रार व् मध्य हृदय की ऊर्जा से अपने मूलाधार चक्र या उस विशेष चक्र पर चित्त के माध्यम से या सहज तकनीक के द्वारा कार्य कर सकते हैं।

जबतक हमें ध्यान के दौरान देहाभास होता रहेगा या हम चित्त के माध्यम से केवल अपने चक्रों को महसूस करते रहेंगे तब तक हमें "परम" प्राप्त होंगे, हम आजीवन चक्रों पर ठंडा-गरम, सत्य-असत्य या वाइब्रेशन ही देखते रह जाएंगे। और अपने इस वर्तमान अनमोल अवसर को गँवा बैठेंगे और जब शरीर का कार्यकाल पूरा होने को होगा तब खूब पछतावा करेंगे, याचना करेंगे, छट पटायेंगे। तब तो कोई भजन, मन्त्र, प्रार्थना, कर्मकाण्ड व् सहज तकनीक ही काम आएगी, कोई चक्र ही साथ दे पायेगा, ही कोई सहजी, सहज संस्था का पदाधिकारी या कोर्डिनेटर हमारी मदद ही कर पायेगा।

इस कठिन समय में यदि कोई हमारा साथ दे सकता है तो वो है केवल और केवल हमारी पूर्ण 'विकसित चेतना' जो ब्रह्ममाण्ड से परे रहने वाली "परम-माता" व् "परमपिता" के सनिग्ध्य में रहने से ही इस स्तर तक विकसित हो सकती है। ताकि हमारी ये चेतना शरीर के अंत समय में किसी भी चीज या स्थिति में लिप्त रह जाएँ।"

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"Jai Shree Mata Ji"