Saturday, April 8, 2017

"Impulses"--355--"सहस्त्रार से परे जाएँ या न जाएँ"

"सहस्त्रार से परे जाएँ या जाएँ"

"अधिकतर सहजियों के बीच एक बात को लेकर वाद-विवाद बना ही रहता है और वो है ध्यानस्थ अवस्था में सहस्त्रार से ऊपर चित्त को ले जाना, यानि आकाश, अंतरिक्ष या इससे भी परे चित्त व् चेतना को ले जाने के सम्बन्ध में। जो भी कोई सहस्त्रार से परे चित्त को ले जाता है, ज्यादातर सहजी उसका विरोध करते हैं, बारम्बार कहते रहते हैं कि ये गलत है, ये ध्यान सहज विरोधी है, ये "श्री माता जी" ने नहीं बताया है, "माँ" ने कहा है केवल सहस्त्रार पर रहो।

वास्तव में विरोध करने वाले सहजी अपने चित्त को सहस्त्रार से ऊपर ले जाने का प्रयास कर चुके होते हैं किन्तु उनका चित्त उनकी देह से बाहर जा ही नहीं पाता। बल्कि बारम्बार किये गए प्रयासों के कारण उनके सर में पहले भारी पन आता है और फिर थोड़ी देर में सर में दर्द होना प्रारम्भ हो जाता है जिसके कारण उन्हें लगता है कि सहस्त्रार से ऊपर चित्त ले जाना ठीक नहीं है।

जबकि "श्री माता जी" सहस्त्रार के ऊपर के चार चक्रों के बारे में पहले ही बता चुकी हैं।परंतु फिर भी अधिकतर सहजी अपने चित्त को ऊपर ले जाने से कतराते हैं।और वो अक्सर ये कहते सुने जाते हैं कि पहले नीचे के सातों चक्रों को तो साफ करके साध ले फिर ऊपर की ओर चलेंगे। इसी अवधारणा के चलते बहुत से सहजी रात-दिन, सालों-साल तक अपने मूलाधार चक्र को ही स्वच्छ करने की बात करते हैं व् दूसरों को भी यही करने के लिए दवाब बनाते रहते हैं।

वो अक्सर ये कहते सुने जाते हैं कि मूलाधार चक्र तो बेस है हमारे सूक्ष्म यंत्र का यदि ये ठीक नहीं हुआ तो बाकी कुछ भी ठीक नहीं रहेगा।
बहुत से पुराने सहजी तो 25-30 साल से केवल और केवल मूलाधार चक्र को स्वच्छ रखने में ही प्रतिदिन 1-2 घंटे लगा देते है परंतु फिर भी शंकित रहते हैं कि कही मूलाधार चक्र खराब तो नहीं रह गया। ऐसा मानने वालों के 24 घंटे में कम से कम 2 घंटे सफाई अभियान में ही चले जाते हैं इसीलिए गहन ध्यान के लिए समय ही नहीं रह पाता और वे वास्तविक उत्थान से वंचित रह जाते हैं।

जबकि दूसरी ओर कुछ गिने चुने ऐसे भी सहजी हैं जो हर प्रकार की सांसारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए लगातार ध्यान की अवस्था में ही बने रहते हैं उनके सहस्त्रार व् मध्य हृदय में "श्री माँ" का प्रेम ऊर्जा के रूप में सदा दस्तक देता ही रहता है। ऐसे साधकों/साधिकाओं के चक्र पकड़ते ही नहीं हैं, इसीलिए वो अपना कीमती समय चक्रों की सफाई में गवांते नहीं हैं।

बल्कि वो जब भी सांसारिक जीवन से समय निकाल कर कुछ देर के लिए ध्यानस्थ अवस्था में बैठते हैं तो उनका चित्त सहस्त्रार पर उनकी कुण्डलिनी के साथ ततक्षण जुड़कर एकाकार हो जाता है जो उनकी चेतना के रूप में प्रगट होता है। चित्त और कुण्डलिनी के संयोग से उत्पन्न चेतना सहस्त्रार से परे "परमात्मा" के अनंत साम्राज्य में व्याप्त अनेको शक्तियों को ग्रहण कर उनके सूक्ष्म यंत्र को निरंतर सशक्त कर रही होती है।ये शक्तियां हमारे सहस्त्रार व् यंत्र में विभिन्न प्रकार की उर्जामयी आवृतियों के रूप में आभासित हो रही होती हैं।

अब ये प्रश्न उठना स्वाभिक है कि आखिर ये दो प्रकार की विपरीत स्थितियां साधकगणों के बीच क्यों परिलक्षित हो रहीं हैं जबकि हम सभी को "श्री माँ" ने ही अपने सहस्त्रार से जन्म दिया है व् सभी को सामान रूप में ही ज्ञान प्रदान किया है तो ये विरोधाभास क्यों घटित हो रहा है।

मेरी चेतना के मुताबिक, जो लोग सहज योग के शुरूआती दौर में 'शरणागत' हुए थे तो उस समय पूर्व संस्कारों की जढ़ता के कारण सहजियों का मूलाधार चक्र जकड़ा रहता था जिसके कारण उनकी नाड़ियाँ असंतुलित ही रहती थीं व् कुण्डलिनी सहस्त्रार पर ही नहीं पाती थी और उन्हें बारम्बार अपने चक्रों व् नाड़ियों को "श्री माँ" के द्वारा बताई गई तकनीको के द्वारा स्वच्छ करना पड़ता था।

सहज योग की स्थापना से पहले वैश्विक स्तर पर लोग आध्यात्मिकता को अपने आचरण में उतारने के लिए विभिन्न प्रकार की प्रार्थनाओं, भजनों, मंत्रोचारण व् सिद्धियो की ओर ही आकर्षित रहते थे और किसी एक देवी या देवता की उपासना विभिन्न प्रकार के धार्मिक कर्मकांडों के द्वारा उन्हें सिद्ध करने का प्रयास करते रहते थे। जिसकी वजह से समस्त नाड़ियाँ व् चक्र असंतुलित ही रहते थे, क्योंकि किसी भी एक देवी या देवता की प्राप्ति करने के लिए किया गया प्रयास निश्चित रूप से असंतुलन को ही उत्पन्न करता है।

जैसे किसी कार के केवल एक ही कलपुर्जे का हम अच्छे से रखरखाव करें व् अन्यों को उपेक्षित कर दें तो निश्चित रूप से हमारी कार ठीक नहीं रह पाएगी। यदि हमें अपनी कार से उचित कार्य लेना है तो उसके समस्त कलपुर्जो व् यंत्रों की ठीक से देखभाल करनी होगी व् नियत समय पर सर्विस करानी होगी। यही नियम हमारे सूक्ष्म यंत्र पर भी लागू होता है। हमारे सूक्ष्म यंत्र की भी सर्विस हमारी चेतना के सहस्त्रार में बने रहने से अच्छे प्रकार से स्वतः ही हो जाती है।

अतः उस दौर के सहजियों की कुण्डलिनी सहसत्रार पर बने रहने के कारण उनकी कुण्डलिनी का 'ऊर्जा क्षेत्र'(Energy Field) विकसित ही नहीं हो पाता था जिसकी वजह से स्वम् उनकी व् अन्य सहजियों की कुण्डलिनी सहस्त्रार पर टिक ही नहीं पाती थी, बारम्बार गिर कर नीचे चली जाती थी।

लिहाजा उनको बारम्बार "श्री माता जी" के समक्ष कुण्डलिनी उठाना पड़ता था और मूलाधार चक्र स्वच्छ करते रहना पड़ता था क्योंकि "श्री माता जी" के अनुसार मूलाधार चक्र की शक्ति यानि जागृत "श्री गणेश" की शक्ति ही कुण्डलिनी को ऊपर उठाने में मदद करती है।इसीलिए "श्री माता जी" ने अन्य चक्रों व् नाडियों से साथ साथ विशेषतौर पर मूलाधार चक्र की स्वच्छता व् सफाई की ओर विशेष ध्यान देने की बात कही है।

परंतु आज के काल की बात ही निराली है, आज तो "श्री माँ" की ओर चित्त ले जाने मात्र से ही कुण्डलिनी सहस्त्रार पर नृत्य करने लगती है।
और तो और यदि कोई अच्छा सहजी भी हमारे चित्त में जाता है तो भी उसके सहस्त्रार पर रहने वाली उसकी कुण्डलिनी की प्रतिक्रिया स्वरूप हमारी कुण्डलिनी सहस्त्रार पर दौड़ कर जाती है या सहस्त्रार पर बनी रहती है। 

यानि किसी की जागृत कुण्डलिनी का ऊर्जा क्षेत्र उसके या हमारे चित्त के माध्यम से भी हमारी कुण्डलिनी को सहस्त्रार पर लाने या सहस्त्रार पर बनाये रखने में सक्षम है।तो इसका मतलब ये हुआ कि किसी भी साधक/साधिका की अच्छी अवस्था के कारण उनका विकसित ऊर्जा क्षेत्र उसकी कुण्डलिनी के माध्यम से उसके मूलाधार चक्र को भी पुष्ट कर सकता है तभी तो उसकी कुण्डलिनी सहस्त्रार पर बनी रह सकती है। 

इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि यदि किसी साधक/साधिका की कुण्डलिनी उसे अपने सहस्त्रार पर महसूस हो रही है तो उसे बारम्बार अपने मूलाधार चक्र को साफ करने की आवशयकता ही नहीं है और ही उसे अपने अन्य चक्र व् नाडियों को ही स्वच्छ व् संतुलित करने की ही जरुरत है। क्योंकि हमारी कुण्डलिनी सहस्त्रार पर बनी ही तभी रहती है जब हमारे सूक्ष्म यंत्र में पूर्ण संतुलन स्थापित हो जाता है वर्ना हमारी कुण्डलिनी सहसत्रार पर ही नहीं पाएगी।

इतनी सुन्दर अवस्था के बाद भी यदि हम अपने मूलाधार चक्र, अन्य चक्र व् नाडियों को बारम्बार स्वच्छ करने की प्रक्रिया में लगे रहते हैं तो उसका कारण हमारी सहज तकनीकों के प्रति जढ़ता है। यानि हम ये सब जो कर रहे हैं वो मात्र कंडीशनिंग के कारण ही कर रहे हैं, वास्तव में तकनीकी रूप से हमें ये सब करने की आवश्यकता ही नहीं है।इससे कुछ लाभ हो हो परंतु हमारा बेहद कीमती समय जरूर खराब हो जाता है जो गहनता बढ़ाने में ही उपयोग में लाना चाहिए।

यदि हमारी कुण्डलिनी माता हमारे सहस्त्रार पर विराजी हैं व् उनके प्रेम की अनुभूति ऊर्जा के रूप में हम अपने मध्य हृदय में कर रहे हैं तो इसका मतलब "माँ जगदम्बा" जागृत हो गईं हैं जो स्वतः ही समस्त चक्रों व् नाडियों का ध्यान रख लेंगी। इसीलिए हमें सदा अपने मध्य हृदय व् सहस्त्रार में इन "दोनों महादेवीयों" की शक्ति की अनुभूति अपनी चेतना के माध्यम से करते रहना चाहिए तभी हमारे समस्त चक्र व् नाड़ियाँ स्वस्थ रहेंगे।

हम सभी को "श्री माँ" ने बताया ही कि "श्री गणेश जी" को "उन्होंने" इस सृष्टि से पहले निर्मित किया है, इसीलिए वो हर शुभ कार्य में सबसे पहले पूजे जाते हैं। इसीलिए समस्त 'स्वम्भू मंदिरों' में वो सबसे पहले मिलते हैं, यानि वो "परमात्मा" के साम्राज्य के प्रहरी हैं, जिनकी आज्ञा के बिना कोई भी "परम" से मिल नहीं सकता। इसीलिए "श्री माँ" ने 'उन्हें' हमारे सूक्ष्म यंत्र में स्थित समस्त चक्रों में देवी/देवता व् ग्रहों के साथ बिठाया है।यानि हमारे हर चक्र पर एक देवता का मंदिर है।

इसीलिए हमारे चक्रों पर स्थित समस्त देवी/देवताओं से हमारी चेतना तभी मिल सकती है या उनका आशीर्वाद हमें तभी मिल सकता है जब समस्त चक्रों पर स्थित "श्री गणेश" हमसे प्रसन्न हों। और समस्त "श्री गणेश" यानि "अष्ट विनायक" तभी प्रसन्न होंगे जब हमारी माता कुण्डलिनी हमसे प्रसन्न होंगी और माता कुण्डलिनी तभी प्रसन्न होंगी जब वे सहस्त्रार पर "माँ आदि शक्ति" के सनिग्ध्य में रहेंगीं।

तो पुनः निष्कर्ष यही निकलता है कि यदि हमारी कुण्डलिनी माँ सहस्त्रार पर स्थित हो जाएँ तो हमारे "अष्ट विनायक", तीनो नाडियों पर स्थित महादेवीयां, समस्त चक्रों के देवी/देवता व् उनके साथ विराजे हुए समस्त ग्रह-नक्षत्र प्रसन्न रहेंगे व् हमें आशीर्वादित करते रहेंगे जिससे हम हर प्रकार से निरंतर उन्नत होते रहेंगे।

मेरी चेतना के अनुसार हमारे समस्त चक्रों पर जागृत "श्री गणेश" हमारे समस्त चक्रों के देवी/देवताओं के आशीर्वाद से उत्पन्न चक्रों के गुणों में हमें व् हमारे चित्त को लिप्त नहीं होने देते, हमारे चित्त को अपने प्रेम व् शक्ति से ऊर्ध्वगामी बनाते हैं।यदि समस्त चक्रों पर "श्री गणेश" जागृत हो पाएं तो उन समस्त चक्रों के गुण उन गुणों के प्रति अत्यधिक लिप्तता के कारण अवगुणों में परिवर्तित हो जाते हैं।

उदाहरण के लिए यदि कोई बहुत विद्वान है और उसके विद्वता के चक्र के "श्री गणेश" सुप्त हैं या नाराज हैं तो वह व्यक्ति अपनी विद्वता का दुरूपयोग ही करेगा, जैसे कि वकील और डॉक्टर अपने स्वाधिष्ठान चक्र के गुण का नाजायज लाभ उठा कर मानवता के खिलाफ चले जाते हैं तब उनका ये चक्र खराब हो जाता है।और बाद में उन्हें अनेको कष्ट उठाने पड़ते हैं।

हमारे चक्रों पर जागृत "श्री गणेश" प्रयास करते रहते हैं कि हमारा चित्त हमारे शरीर व् इससे जुड़े संसार के विचारों में उलझ पाये बल्कि माता कुण्डलिनी के साथ एकाकार होकर हमारी चेतना में परिवर्तित हो इस ब्रह्ममाण्ड से भी परे रहने वाले हम सबके "परमपिता" के "श्री चरणों" में समां जाए ताकि बारम्बार के इस जीवन-मरण रूपी कष्टकारी चक्र में फंसने की बाध्यता से मुक्ति मिल जाए।

ये अक्सर देखने को मिलता है कि यदि किसी साधक/साधिका का किसी चक्र के देवी/देवता के प्रेम व् आशीर्वाद स्वरूप कोई गुण विकसित हो जाता है तो वह साधक/साधिका उसी गुण में उलझ कर, लिप्त होकर उसे व्यावसायिक रूप में इस्तेमाल करते हुए अधोगति को प्राप्त होते है।

इसीलिए यदि किसी साधक का चित्त उसके यंत्र से परे ऊपर की ओर अग्रसर नहीं हो पा रहा है तो उसका एक ही कारण है कि वह निश्चित रूप में किसी किसी सांसारिक स्थिति व् विचारों में आवश्यकता से अधिक लिप्त है और उस खास गुण व् स्थिति को उत्पन्न करने वाले चक्र के "श्री गणेश" या तो सोये हैं या उससे नाराज हैं।

यदि वह ध्यान में चिंतन करके देखेगा तो उसे ये आसानी से पता चल जाएगा, पता लगने पर उसे ध्यान के दौरान अपने सहस्त्रार व् मध्य हृदय पर ऊर्जा को महसूस करते हुए उस खास चक्र पर कुछ देर के लिए अपना चित्त रख कर सहस्त्रार व् मध्य हृदय की सामूहिक ऊर्जा को हर ध्यान की बैठक में प्रवाहित करना होगा तभी उस चक्र के "श्री गणेश" जागृत होंगे या प्रसन्न होंगे।

अतः अंत में ये निष्कर्ष निकलता है कि जो लोग आसानी से अपने सहस्त्रार से परे चित्त को ले जा पाते हैं उनके "अष्टविनायक" जागृत हैं व् प्रसन्न हैं तभी तो वे सांसारिकता में लिप्त नहीं हैं भले ही वो समस्त प्रकार की सांसारिक गतिविधियॉ को आवश्यकतानुसार अंजाम देते हों। ऐसे साधक/साधिकाओं को बारम्बार अपने मूलाधार चक्र की स्वच्छ करने की भी आवशयकता नही है।

वास्तव में मेरी चेतना के अनुसार मूलाधार चक्र धूर्तता, दुष्टता, अहंकार, ईर्ष्या, लोभ, जढ़ता,षड्यंत्र व् झूठ आदि से परिपूर्ण आचरण व् व्यवहार से ही खराब होता है। इसके विपरीत जिन सहज साथियों का चित्त सहस्त्रार से ऊपर नहीं जा पाता है यदि चाहें तो वे अपने सहस्त्रार व् मध्य हृदय की ऊर्जा से अपने मूलाधार चक्र या उस विशेष चक्र पर चित्त के माध्यम से या सहज तकनीक के द्वारा कार्य कर सकते हैं।

जबतक हमें ध्यान के दौरान देहाभास होता रहेगा या हम चित्त के माध्यम से केवल अपने चक्रों को महसूस करते रहेंगे तब तक हमें "परम" प्राप्त होंगे, हम आजीवन चक्रों पर ठंडा-गरम, सत्य-असत्य या वाइब्रेशन ही देखते रह जाएंगे। और अपने इस वर्तमान अनमोल अवसर को गँवा बैठेंगे और जब शरीर का कार्यकाल पूरा होने को होगा तब खूब पछतावा करेंगे, याचना करेंगे, छट पटायेंगे। तब तो कोई भजन, मन्त्र, प्रार्थना, कर्मकाण्ड व् सहज तकनीक ही काम आएगी, कोई चक्र ही साथ दे पायेगा, ही कोई सहजी, सहज संस्था का पदाधिकारी या कोर्डिनेटर हमारी मदद ही कर पायेगा।

इस कठिन समय में यदि कोई हमारा साथ दे सकता है तो वो है केवल और केवल हमारी पूर्ण 'विकसित चेतना' जो ब्रह्ममाण्ड से परे रहने वाली "परम-माता" व् "परमपिता" के सनिग्ध्य में रहने से ही इस स्तर तक विकसित हो सकती है। ताकि हमारी ये चेतना शरीर के अंत समय में किसी भी चीज या स्थिति में लिप्त रह जाएँ।"

--------------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

4 comments:

  1. जय श्री आपकी बात बिलकुल सही है ...मेरे भी पहले के दो महीने संतुलन बंधन और मन्त्र में लगे रहे ..वाईब्रेशन हाथों पे आते थे सहस्त्रार पर नही ,,,ब साढ़े चार महीने हुए हैं,,आपके ध्यान क्रिया से लाभ हुआ ..सहस्त्रार और मध्य हृदय जाग्रत होने से सारे चक्र भी चलते हैं.

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  2. जय श्री माता जी ,,बहुत सुंदर ....आपके विलासपुर पुर वाले दो वीडियो के माध्यम से सारे चक्रो की यात्रा का अभ्यास हम करते हैं,,उसका लाभ ये है कि हृदय चक्र ,सहस्त्रार का साथ -२ सभी चक्र चलते हुए महसूस होते हैं,,बनारस वाले वीडियो में दुसरो को उर्जा देकर कुंडलिनी जगाना और समस्या और रोग के स्थान पर उर्जा पहुचाना सिखा ..सत्य है सहस्त्रार पर इससे उर्जा बढ़ जाती है और रोग में भी आराम मिलता है ,,बस यही तमन्ना है कि श्री माता जी के पूर्ण आशीर्वाद से सफेद दाग भी पूरी तरह ठीक हो जाए ...वैसे आपके डीप मेडिटेशन के एक वीडियो में आपने बताया था कि आज्ञा चक्र में अपनी उस समस्या को देखे ,जो लगे की समस्या ठीक नही होगा ,तो हम ध्यान के समय ये भी करते हैं,,आगे सब श्री माता जी कृपा पर निर्भर है,,दवा सेवन भी कर रही हूँ ,,मेरे लिए कोई विशेष वीडियो मेडिटेशन की हो तो प्लीज हमें बताएं

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  3. जब भी चित्त को या अपनी हथेली को सह्स्तार पर ले जाती हूँ तो अपने सहस्त्रार व् मध्य हृदय पर ऊर्जा को महसूस होने लगती है ,,स्पंदन सा ,,भारी सा ,,कुछ उपर से गिरता सा ..कुछ ढलकता सा .कभी अचानक टीस सी सह्स्तार पर अनुभव होता है

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  4. जय श्री माता जी////अब चेतना और चित्त--मन समझ में आ रहा ...मेरे प्रश्न के उत्तर श्री माँ ने दे दिये

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