Monday, May 30, 2016

"Impulses"---287---"दिल-ऐ-आफताब"(अनुभूति--37)

"दिल--आफताब"

"सुबह से साँझ होती है, साँझ से सुबह होती है,

मेरे इस दिल में "श्री माँ", आप हर वक्त रूबरू होती हैं,

इस जिंदगी के हर लम्हे से गुजरते वक्त में, 

केवल और केवल आपकी की ही इनायत होती है,

मन के आसमान में ख्यालो की बदली के बीच से, 

आफताब सा झलकता आपका एहसास है,

जिसकी मोहब्बत की गर्माहट से, 

खिल खिलाता सा ये मेरा दिल--नादान है,

जिसकी धड़कने गूंजती रहती है उस वक्त भी, 

जब इसके धड़कने का एहसास गुम हो जाता है कहीं,


और हर धड़कन के साथ मेरे जेहन में, 

 आप ही का मुस्कुराता सा अक्स नजर आता है मुझे,"

------------------------Narayan

"Jai Shree Mata ji"

Monday, May 23, 2016

"Impulses"---286

"Impulses"

"ज्यादातर मानव "ईश्वर" से जुड़ने के लिए "ध्यान" का मार्ग इसलिए अपनाना चाहते हैं कि उनके जीवन में कोई परेशानी आये और उनके समस्त प्रकार के सांसारिक कार्य बिना किसी अवरोध के सम्पादित होते रहें व् उनका स्वास्थ्य संसार को अच्छे से भोगने के लिए सदा बना रहे।जब गहराई से "ध्यानस्थ" अवस्था में चिंतन के दौर से गुजरेंगे तो एहसास होगा कि ये एक प्रकार की 'कंडीशनिंग' ही है जो हमारे हर मानवीय जीवन के साथ चली रही है।

जो मानवीय-सभ्यता के प्रारंभिक विकास काल में अपनाई जाने वाली "वस्तु-विनिमय" पद्यति (Barter System) पर ही आधारित है जो आज भी हमारे 'अवचेतन मन' में मौजूद है। इसीलिए जब भी हम "प्रभु" के ध्यान में उतर रहे होते हैं तब कहीं कहीं हमारे मन के कोने में ध्यान के बदले में हमारे सांसारिक कल्याण का भाव छुपा होता है इसीलिए ज्यादातर लोग "मन्नतों" के चक्कर में उलझ कर ही "पवित्र स्थलों" पर जाते हैं और गर्व से अपने को 'धार्मिक' कहलाते हैं।

जो कि वास्तव में एक 'याचक' के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होते।याचक कभी भी "भगवान्" की संतान नहीं बन सकते क्योंकि "उनकी" संतान को तो "उनसे" विरासत में 'दाता भाव' मिलता है, वो केवल देना ही जानते हैं, लेने का भाव ही उनके 'दिव्य अस्तित्व' के विपरीत है। अतः हमको ध्यानस्थ अवस्था में 'आंतरिक' विश्लेषण के माध्यम से स्वम् को टटोलना होगा की हम 'याचक' के वर्ग में पीड़ित हैं या 'दाता' के वर्ग में आन्दित हैं।

सत्य का खोजी कभी भी याचक नहो हो सकता वरन् वो तो सदा "परमपिता" का 'पुत्र/पुत्री' होने के अपने गौरव में ही स्थित रहता है सभी को अपने हृदय से प्रेम देता है और "उनके" कार्यों में अपने स्तर व् चेतना के मुताबिक हाथ बंटाता रहता है।"

("Most of the people want to come into Meditation because of attaining their External Well Being like Prosperity, Health, Name, Fame etc. When we go deep into meditation only then we come to know that this desire of materialistic well being is nothing but a mere 'Conditioning' which is moving along with since our First Human Birth.

This conditioning is based on 'Ancient Barter System' which was adopted by Humans in their Early Age of Developing Civilization. And such instinct still resides into our Sub-Conscious mind.When we go Into Meditation then the feeling of our Materialistic Welfare too exists somewhere into the corner of our mind as the consideration of our Devotion.

That's why most of the people keep on going to Sacred Places out of demand and they usually love to be called themselves a "Religious One" in this way.They are nothing but more or less than a 'Beggar' in disguise actually.

A Beggar can never be a Son/Daughter of "God". Because "God" is an ardent 'Giver' and their children too heridate "His Traits" of 'Giving' only. The Feeling of Taking is against their 'Divine Entity'.So we have to find out our actual status through Internal Analysis in deep meditative state that, do we belong to the category of a Beggar or a Giver.


A True Seeker can never be a beggar but he/she always enjoy the status of Being a Child of "Almighty" always, loves everyone with his/her true heart and gives a shoulder to "His" works at his/her level of awareness."
----------------------------Narayan
"Jai Shree Mata ji"

Saturday, May 14, 2016

"Impulses"---285

"Impulses"

"यह अक्सर देखा गया है कि बहुत से "श्री माँ" के जागृत बच्चे अन्य सहजियों को 'आत्मसाक्षातकार' देने के कार्यों को करते देख कभी कभी असन्तोष से भर जाते हैं।क्योंकि किसी किसी वास्तविक कारणवश वो ये कार्य नहीं कर पाते। और सोचने लगते हैं कि हम किसी भी काम के नहीं हैं हमारे अंदर जरूर कोई बड़ी भारी कमी व् बाधा है जिसके कारण "श्री माँ" हमसे नए लोंगों को जागृति दिलवाने का कार्य नहीं ले रही हैं।

यह सब सोच सोच कर भीतर ही भीतर पीड़ा से कुम्हलाने लगते हैं जबकि उनके सहस्त्रार व् हृदय में "श्री माँलगातार प्रेम दे रही होती हैं और उनके सहस्त्रार व् हृदय में खिंचाव की बड़ी सुन्दर अनुभूति हो रही होती है। इतनी अच्छी स्थिति महसूस होने के वाबजूद भी उनके मन में एक अजीब सी कशमकश व् बैचेनी बनी ही रहती है जिसके कारण वो अक्सर उदास रहने लगते हैं और बार बार "माँसे कार्य देने के लिए प्रार्थना करते रहते हैं।

वास्तव में ऐसी स्थिति से गुजरने वाले सहजी केवल बाहरी कार्य कर पाने के कारण अपने को निम्न समझने की भूल कर बैठते हैं जबकि ऐसी सुन्दर स्थिति प्रदान कर "माँ" उनसे सूक्ष्म कार्य संपन्न करा रही होतीं हैं। क्योंकि जब भी सहस्त्रार में तीव्र या हल्का खिंचाव होता है तब "माँ आदि" हमारे चित्त को इस खिंचाव की अनुभूति करा कर हमारा चित्त "अपनी" ओर ले जाती हैं और फिर किन्ही लोगों के विचार हमको देकर उन सभी लोगों के यंत्रों पर हमारे चित्त के माध्यम से कार्य करा रही होती हैं।

ऐसी दशा में हमें कुछ भी बाह्य रूप से करने की आवश्यकता नहीं होती है बल्कि पूरी एकाग्रता के साथ इस घटित होने वाले खिंचाव पर ही चित्त रखने की जरूरत होती है।चाहे ऐसे समय में हम कोई सांसारिक जीवन से सम्बंधित कोई काम ही क्यों कर रहे हों। हमें तो बस केवल और केवल हर स्थिति व् परिस्थिति में लगातार इस प्रगट होने वाली ऊर्जा को ग्रहण ही करते जाना है और अपनी चेतना के द्वारा किये जाने इस "अमृत पान" के सुन्दर अवसर का लाभ उठाते रहने में अपनी चेतना की मदद करनी है।

आखिर समस्त सुयोग्य पात्रों को जागृति देने व् पाने का उद्देश्य क्या है ? यही , कि वो अपने इस अनमोल मानवीय जीवन को सार्थक बनाते हुए अपने मोक्ष व् निर्वाण के अधिकारी बनें व् साथ ही अपने अनुभवों को अन्य लोगों के साथ बांटते हुए उनको भी इस अप्रितम मार्ग पर चलाने में मदद करें। "प्रभु साधना" में रूचि रखने वालों की सूक्ष्म या स्थूल रूप में सहायता करने से उनके यंत्र में स्थित देवी-देवता प्रसन्न होकर हमें अपना प्रेम बढ़ती हुई ऊर्जा के रूप में प्रदान करते हैं जिसके कारण हमें अपने यंत्र में कई स्थानों पर तीव्र हलचल या खिंचाव की अनुभूति होती है। और स्वत् ही हमारा चित्त उन स्थानों पर पहुँच कर हमें "श्री माँ" की 'दिव्य धाराओं' के आनंद में डुबोता जाता है, ऐसे दुर्लभ अवसरों का हमें पूर्ण एकाग्र होकर भरपूर लाभ उठाना चाहिए।

बाह्य रूप से जागृति के कार्य में लग पाने की चिंता में ये अनमोल क्षण कभी नहीं गवाने चाहियें, बल्कि ये समझना चाहिए कि बाहरी रूप से आत्मसाक्षात्कार के कार्य करने के बाद भी तो हमें इसी आनंददायी अवस्था से गुजरना होता है। ये सब भी तो "श्री माँ" के प्रेम का ही परिणाम है, ये उनकी मर्जी है की वो हमसे किस प्रकार से कार्य लेंगी। ऐसे 'दिव्य ऊर्जा' से भरे अवसर ऐसे ही होते हैं जैसे एक माँ अपने नन्हे से बच्चे को अपने हृदय से लगाती है, दुलारती है, और अपने आँचल में छुपा कर भरपूर प्रेम देती है। तो भला ऐसी स्थिति में बच्चे को बाह्य रूप से कुछ भी करने की क्या जरुरत है।बल्कि उसे तो चुपचाप "माँ" की गोद में लेटकर उनके प्रेम का भरपूर आनंद उठाना ही होता है।

पर यदि हम पाते हैं कि हमारे सहस्त्रार पर व् मध्य हृदय में ऊर्जा या खिंचाव नगण्य है या बिलकुल भी नहीं है तो कम से कम 5 नए लोगों की कुण्डलिनी चित्त की सहायता से जरूर उठायें व् विश्व की किसी भी समस्या पर भी कम से कम 5 मिनट के लिए चित्त जरूर डालें। और साथ ही किसी अच्छी स्थिति के सहजी के सहस्त्रार व् मध्य हृदय से कम से कम 3-5 मिनट के लिए चित्त की सहायता से जुड़ाव महसूस करें, तभी इस प्रकार की सुन्दर अनुभूतियाँ हमारे यंत्र में प्रगट होंगी और आपसी प्रेम भी बढ़ेगा "
-----------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"