Wednesday, September 29, 2010

अनुभूति---11---निगेटिविटी---27.12.06

"निगेटिविटी"
इक दिन हम बड़े सोच में पड़े, चलते रस्ते यूँ ही जम कर खड़े,
सारे सहजी ये क्या कहा करतें हैं, जुड़ कर रहना सदा तुम "श्री माँ" से,
उनके सदके में समस्त देव गण खड़े होते हैं,

पर शायद पैदा हुए थे हम उलटे, हर वक्त हर घडी, विचारा करें खुल खुल के,
भला ये नाकारात्मकता कहाँ निवास करती है, कहाँ से ये आती है, कहाँ से ये चलती है, कहाँ ये जाती है,

कहती थी "श्री माँ" जो अपने वचन में, उल्टा किये हम सब इसे ढूंढने के जतन में,
सोचते ये हम थे, कष्ट देती है ये मुई निगेटिविटी "श्री माँ' को,
क्यों हम भी बुला डालें इसको, कष्ट कम करने की चाहत में "श्री माँ" के,
कहलाना चाहते थे हम भी बच्चा "श्री माँ" का, भार वहन कर पायें इसका, उत्तरदायित्व निभाने की चाहत में,

बुला भेजा समस्त निगेटिविटी को अपनी इसी धुन में,
बड़े मान सम्मान से हमने उसे बिठाया, मेहमान नवाजी का गुर फिर उसको हमने सिखाया,
पाकर आदर हमारा हृदय से, मस्त हो गयी वो हमारे प्रेम से,

बड़ी दरिया दिली से उसने हमें बताया, पहली बार किसी ने मुझको बड़े प्रेम से गले लगाया,
डबडबाई आँखों से, भरे गले से, आनंदित होकर बोली वो हमसे,
तुम्हारा आतिथ्य स्वीकार मैं करती हूँ, कुछ रोज के लिए तुम्हारे पास मैं रूकती हूँ,

सुनकर उसके उदगारों को, प्रसन्न हो गए हम मन ही मन में,
कभी बतियाते कभी मुस्काते, खेल खेल में उसे गुदगुदाते,

बढाकर प्रेम हमने निगेटिविटी से, उगलवाया राज गहरा यूँ हंसी हंसी में,
पड़ गए हैरत में हम तो अरे भईया, जोरो से याद आई हमें "श्री मइया"

अब समझ आई हमें उनकी कहानी, जो है आपके सामने मेरी जुबानी,
क्यों वो कहती हैं अपने को महा माया, हर साधक को उन्होंने है छकाया,

हो गए हैं अब तो समस्त प्रश्न हल हमारे, वास करती निगेटिविटी "श्री चरणों" के द्वारे,
इसीलिए नन्हे मुन्नों के हाथों से, अपने "श्री चरण" वो धुलवातीं हैं,
इसी निगेटिविटी से वो इतना दुलार वो करतीं हैं, हर रोज नहला धुला कर उसे इतना प्यार करतीं हैं,
इतना प्यार तो हमारी जननी ने भी हमसे करा है,

उनके पावों के नीचे से समस्त ब्रह्माण्ड खड़ा है, अरे समस्त नकारात्मकताओं से ही तो,
ये ब्रह्माण्ड अटा पड़ा है, निगेटिविटी के जर्रे जर्रे से ही तो, "श्री माँ" ने इसको रचा है,
तभी "श्री चरणों" का ध्यान वो लगवाती हैं, इसको धारण करने की छमता विकसित करवाती है,

हर प्रकार के सुख का लोभ देकर, इसी से प्रेम करना वो सिखलातीं हैं,
अरे ये निगेटिविटी कुछ और नहीं, दर्पण है उनका, सुख के लालच में निरादर करो इसका,
इसीलिए सुख के लालच में मानव चलता ईश्वर की खोज में, दूर भागता है इससे यूँ ही अपनी सोच में,

तो भला कहाँ खोज पायेगा ये मानव "पिता श्री" को, सदा इसी के प्रेम में ही तो वो मगन रहतें हैं,
इसी के साये में छुपकर ही तो वो ध्यान करतें हैं,
नाभि से निकाल कर कंठ में उसे बसाया है, तभी तो अपने आप को "नील कंठ" कहलाया है,

रखकर दूरी "श्री माँ" से अपनी, संसार को निर्लिपत्ता का पाठ पढाया है,
अध् खुली आँखों से वो मंद मंद मुस्काते हैं, हर साधक को मदहोशी का इक जाम सा पिलाते हैं,
हर पल खुद को समाधी मैं रखकर, साधकों को भी समाधी देते जाते है,
इसीलिए हर साधक उनका, "सद्चित्तानंद" कहलाता है,

निगेटिविटी का परिणाम अनंत दुःख है, तभी तो यह 'श्री भोलेनाथ" को अत्यधिक पसंद है,
जो धारण ख़ुशी से करते हैं दुःख को, सदा बसते हैं हृदय में "पिता श्री" के,
तभी तो समस्त भूत पिशाच, सांप बिच्छु नाचते हैं उनकी बारात में,
रखते हैं अत्यंत दुःख को, वो केवल अपने साथ में,

तभी हम सोचें, तभी हम विचारें, आल्हादित हो गए हम ख़ुशी के मारे,
खुल गया सारा रहस्य, हमारे इस जतन से, सतयुग से कलयुग तक की कथा, आई अब हमारी समझ में,
पड़ गयी अब ठंडक कलेजे में हमारे, सामने स्पष्ट हो गयी स्थिति हमारे,

काहे भेजा "कैकेयी" ने "राम श्री" को वन में,
काहे छोड़ा राज पाट सब उन्होंने, एक ही छन में,
काहे "भरत" ने विरक्ति चाही, भाई श्री के गम में,

काहे मइय्या "सीता" साथ होली "रावण" के, अशोक वाटिका के चमन मैं,
काहे कह "सीते सीते" रोये "श्री राम", सीता के विरहन में,
काहे खावे "विभीषण" लात, प्रभु पाने की लगन में,
काहे "हनुमान" ने पूंछ जलाई, "माँ" "सीता" के गम में,

काहे मांगे "कुन्ती" कवच कुंडल, मोह दिखलाने के भ्रम में,
काहे स्वीकार चीर हरण "द्रौपदी" ने, अपने ही घर अंगन में,
काहे लपेटे पट्टी "गांधारी" "धृतराष्ट्र" के संग में,

काहे रखे "द्रोण" तीर तरकश को, "अश्वथामा" के गम में,
काहे लेटे "महपिता श्री" बाणों कि शैय्या में,
काहे दिया दुःख "अर्जुन" को "कृष्ण" ने, पावन "गीता" के वचन में,
काहे चाहे "कुन्ती" दुखन को, छन अंतिम में "कृष्ण" से,

काहे चढ़े सूली पर "जीसस", छमा सिखलाने के जतन में,

काहे स्वीकार अपमान "माँ मैरी" ने, "येशु" के जनम में,

काहे लिया जनम "मोहम्मद" ने, चरहावे के करम में,
काहे चढ़ाई बलि "हसन-हुसेन" कि, शैतानो की बहकन में,
काहे करते छलनी जिस्म, पाक "मुस्लिम", उनकी पुरसी-मातम में,

काहे छोड़ा घर-बार "सिद्दार्थ" ने, क्या पाने की लगन में,

काहे बैठे "महावीर" भूखे, बियाबान जंगल में,

काहे लेटे "कबीर" नीचे हाथी के, जगाने की उलझन में,

काहे घूमे "नानक गुरु", नदी-नाले वन में,
काहे जले "देव अर्जुन", तपते तवे की तपन में,

काहे चढ़ाया विष "सुकरात" ने, लोगों के कहन में,

कहे पिए "मीरा" प्याला जहर का, "नंद्लालन" के मिलन में,

काहे लगाया गले फांसी को, भारत सपूत "भगत" ने,

काहे घूमे "बापू" नंगे, गाँव-गाँव गलियन में,
काहे फिर खाई गोली "बापू" ने, प्रभु-ध्यान-सुमिरन में,

काहे "श्री माँ" अपने को थकातीं, गावं-शहर-देशन में,
काहे "श्री माँ" हमारे कष्टों को हरतीं, खुद को क्यूँ वो कष्टों में रखतीं,

ये सभी उदहारण हैं मानव इतिहास के,
वरण किया दुखों का इन सभी ने, केवल हास-परिहास में,
हो गए अमर, पा गए वो सब, जो मिलता है खोकर,
खोने की सब आदत डालो, वर्ना खाओगे ठोकर,

मिला है जीवन दुःख का हम सब को, क्या करोगे इसे ढोकर,
यदि दौड़ोगे हर पल सुख के पीछे, गुजरोगे जीवन रोकर,

दुःख में सुख है सुख में दुःख है, पाया हमने भी इस तथ्य को बहुत कुछ खोकर,

कहाँ से ढूंढे और दुखन को भईय्या, अब बन गया है ये मेरी "श्री मइय्या",
सोच-सोच कर हम और दुखी होए जाते हैं,

इसके बदलते स्वरुप से हम और निश्चिन्त हुए जाते हैं,
यही तो कमाई थी हमारी जनम-जनम की, क्या ये यूँ ही छिन जाएगी,
क्या इस कायनात के जर्रे-जर्रे में अब, केवल "श्री माँ" की ही शक्ल नजर आएगी,

अख्तियार करली है दुःख ने अब सूरत "माँ आदि" की,
क्या अब नहीं मिलेगी और ये दौलत, गमो सितम की,
ये अहसास करके हमारी तबियत कुछ नासाज हुई जाती है,
ये सोच-सोच कर के हमारी रूह, हलकान हुई जाती है,

लगता है दुःख के दिन अब लदने वाले हैं, अब हम असली काम पर लगने वाले हैं,
लगता है अब ऐसे मुकाम पर गया हूँ मैं, मुसर्रतों के साए में मसरूफ होने वाला हूँ मैं,
"माँ" जाना तुम अब मुसर्रत के नकाब में भी, यदि चाहो तो कर देना पूरी, हसरत ये मेरे दिल की,

दुःख के साथ रहने की, इक आदत सी हो गयी थी, अब मुझे आदत सुख की भी डालनी होगी,
सुख की आमद को हम दुःख का गम मान लेंगे, अब ग़मगीन रहेंगे सदा, तेरे जलवा--नूर को देखेंगे,
बनाकर अंकशाइनी सुख-दुःख को हम यूँ थाम लेंगे,

परमचैतन्य में मिलकर सुख-दुःख को पानी की तरह, ऐसे ही किसी मयखाने में मयकशी करेंगे,
डूब जायेंगे पूरी तरह जब इसके नशे में, सहस्त्रार पर इस सुरूर का रसपान हम करेंगे
"इतिश्री"
मुकाम-मंजिल, मुसर्रत-ख़ुशी, मसरूफ-व्यस्त

--------नारायण