Monday, November 27, 2017

"Impulses"--416--"वास्तविक शत्रुता"

"वास्तविक शत्रुता" 

"यदि अज्ञानता लोभ वश् आपका कोई नजदीकी/मित्र अन्याय/अपराध/अधर्म के मार्ग पर अग्रसर हो जाये तो उसको अवश्य रोकने का प्रयास करें।
और संभव हो तो बुराई मिलने की परवाह करते हुए उसके उन नकारात्मक कार्यों के प्रति विरोध भी प्रगट करने से चूकें।तभी आपकी मित्रता प्रेम सच्चा माना जायेगा।

चाहे भूतकाल में आपकी विपरीत परिस्थितियों में उसके द्वारा कितनी भी मदद क्यों की गई हो। यदि आप अपने ऊपर उसके द्वारा पूर्व में किये समस्त एहसानों को चुकाने के एवज में प्रकृति/परमात्मा/ मानवता विरोधी कार्यों में उसका साथ देकर उसको प्रसन्न करने के लिए उसकी मदद कर रहे हैं तो आप वास्तव में उससे शत्रुता ही निभा रहे हैं।

क्योंकि जिस दिन भी "परमात्मा" की अनुकंम्पा से उसे सद-बुद्धि गई तो सर्वप्रथम वह आप ही को अपना सबसे बड़ा शत्रु मानेगा। हर मानव को अपनी मृत्यु से पूर्व अपने जीवन में किये गए समस्त नकारात्मक कर्मो के लिए अपने मन को सच्चे पछतावे की अग्नि में जलाते हुए "परमपिता" से क्षमा याचना कर स्वच्छ करना पड़ता है।

मन के स्वच्छ हो पाने के कारण ऐसा मनुष्य भयानक शारीरिक कष्टों से महीनों/सालों तक गुजरने हुए "प्रभु" से मृत्यु की याचना करते करते थक जाता है। किन्तु मृत्यु उसके नजदीक फटकती तक नही है।क्योंकि "परमपिता" स्वच्छ मन वाली 'जीवात्मा'(Soul) को ही स्वीकार कर शांत सुखद मृत्यु प्रदान करते हैं।"
-------------------Narayan 
"Jai Shree Mata Ji"

Monday, November 20, 2017

"Impulses"--415--"Love"

"Love"


"Love is the Essence of Everything, 

It is a Bonding Agent, 

It is a Connecting Cord, 

It is the Medium of Communication, 

It is a Nurturer of Everything, 

It is a Healer, 

It is a Transformer, 

It is an Activator, 

It is an Accelerator, 

It is a Molder, 

It is Infinite, 

It is Vibration, 

It is the Source of all Creation, 

It is the Creation,
 
and It is 'God' Itself."

That's why love exists every where and out of love we all are bonded with each other by the "Divine Mother".

If we all are the particle of a magnet(God) so "Maa Adi" is the magnetic field."

-----------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"



Wednesday, November 15, 2017

"Impulses"--414--"सामर्थ्य"

"सामर्थ्य"

"हममे से अधिकतर सहजी अपना सारा कचरा विकार रोज "श्री माँ" को हर 'ध्यान' के समय देते जाते हैं। हमेशा 'श्री माँ' से कहते रहते है"श्री माता जी 'कृपया मेरे समस्त बाधित चक्रों को साफ़ कर दीजिये'। 'मेरी समस्त निगेटिविटी को हर लीजिये।
'मेरी समस्त समस्याओं को ले लीजिये।'

बड़े दुःख की बात है कि हम हर समय उनसे कुछ कुछ याचना ही करते रहते है।क्या कभी हम सोच पाएंगे कि हमारा भी 'श्री माता जी' को कभी कुछ अच्छा देने का कर्त्तव्य है। क्या कभी भी हम कह पाएंगे कि,

"श्री माता जी" 'आपके इस बच्चे ने आपके बताये रास्ते पर चलकर, आप ही की देख-रेख में, आप ही की शक्तियों के माध्यम से, आप ही की प्रेरणा वश एक सुंदर सा सुगन्धित फूल(सहजी) विकसित किया है,
'माँ' कृपया हृदय से स्वीकार कीजिये'"

क्या हम कभी भी ये सच्चे हृदय से कहने का साहस रखतें हैं कि, "श्री माता जी" 'आप हमारी समस्त बाधाओं को हर लेती है हमारे कारण आपको काफी कष्ट उठाना पड़ता है। 'कृपया हमें भी हमारी क्षमता के मुताबिक कुछ 'निगेटिविटी' वहन करने की सामर्थ्य प्रदान कीजिये।'

ये हमारा सौभाग्य होगा, कि "वो" हमें इस कार्य के लिए भी चुनें।तभी लगेगा कि हम "उनके" सच्चे बच्चे है।" यदि हम सभी सहजी "श्री माँ" के समस्त बच्चों की तकलीफों को अपने विकसित यंत्र के जरिये बांटने की शुद्ध इच्छा व् हौंसला रखें तब ही हमारी "माँ" हमसे बहुत प्रसन्न होंगी और "माँ" के समस्त बच्चे भी प्रसन्न व् आनंदित रह पाएंगे। 

साथ ही 'अपने' ऐसे 'विशाल हृदए' के 'सक्षम बच्चों' के द्वारा स्वेच्छा से सभी के कष्ट ग्रहण करने के भावों को देख "वो" और भी बहुत सी 'शक्तियां' भी हमें प्रदान करेंगी।


जिससे 'ऐसे बच्चे' अपने यंत्र को उच्च कोटि के यंत्र में परिवर्तित कर पाएंगे और "श्री माँ" की अनेको शक्तियों को अपने यंत्र व् शुद्ध इच्छा के माध्यम से सर्वस्त्र कल्याण के लिए प्रवाहित कर पाएंगे।"
-----------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

Saturday, November 11, 2017

"Impulses"--413--"ध्यान-संदेह"

"ध्यान-संदेह"

"अक्सर हममे से बहुत से साधक/साधिका अपने जीवन में घटित होने वाली किन्ही नकारात्मक घटनाओं से व्याकुल हो जाते हैं। जिसके कारण ध्यान में ठीक प्रकार से उतर नहीं पाते और अपने भीतर में अत्यधिक खिन्नता की अनुभूति करते हैं। सोचने लगते हैं कि जरूर हमारे यंत्र में कोई कोई खराबी गई है।

ध्यान लगने का मुख्य कारण 'मन' के द्वारा चित्त को अपनी ओर खींच ही लेना है। जिस चीज की भी हमारे इस भौतिक जीवन में प्राथमिकता होती है वह हमारे मन में आवश्यकता या इच्छा बनकर लगातार निवास करती है। जिसके कारण उससे संबंधित विचार लगातार आते चले जाते हैं, और हम आंतरिक संघर्ष के कारण ध्यान से हट जाते हैं।

वास्तव में हमारे इस बाह्य जीवन की आवश्यकताए सामयिक होने के कारण अत्यन्त तीव्रता लिए होती हैं और वो हमारे चित्त को अपनी ओर आकर्षित करती रहती है। जिसकी बजह से ठीक प्रकार से ध्यान लगाने में सहाजियों को कठिनाई होती है।यहाँ तक कि कई बार तो ध्यान बिलकुल भी नहीं लग पाता है।

ऐसी स्थिति में हमें गौर करना चाहिए कि हमारे सहस्त्रार व् मध्य हृदए में विचारों के आवागमन के साथ कुछ ऊर्जा (वायब्रेशन) भी महसूस हो रही है क्या। यदि तीव्र वायब्रेशन रहे हैं तो हमें समझना चाहिए कि हमारा ध्यान ठीक प्रकार से घटित हो रहा है। 

अंतर केवल इतना है कि हम अपने विचारों की ओर इस प्रस्फुटित होने वाली ऊर्जा से ज्यादा ध्यान दे रहे हैं और व्यर्थ के संघर्ष में उलझ रहे हैं। अतः हमें आने वाले विचारो की ज्यादा परवाह नहीं करनी चाहिए बल्कि अपने ऊर्जा केंद्रों व् यंत्र में प्रवाहित होने वाली ऊर्जा पर अपना चित्त व् चेतना केंद्रित करनी चाहिए।

परंतु प्रश्न ये उठता है कि वायब्रेशन और विचार साथ- साथ कैसे चल रहे होते है ? हमें समझना चाहिए कि ध्यान के प्रारंभिक दौर में हमारा मन व् चेतना अक्सर एक दूसरे की विपरीत दिशा में ही चलते हैं।

हमारी चेतना "श्री माँ" के सानिग्ध्य का आनंद उठाना चाहती है और हमारा मन सांसारिकता की ओर हमें धकेलने का प्रयास कर रहा होता है।
क्योंकि ध्यान की अच्छी अवस्था का मतलब तीव्र वायब्रेशन का आना ही है।

वास्तव में ऐसी अवस्था में हमारे मन के कोष खाली किये जा रहे होते हैं और उन समस्त चीजों को विचारों के रूप में 'माँ' के द्वारा बाहर निकाला जा रहा होता है जिसके कारण विचार पंक्ति प्रगट होती है।


ये क्रिया ऐसी ही है जैसे कि वैक्यूम क्लीनर कारपेट के नीचे छुपी हुई धूल को अपनी ओर खींच लेता है ऐसे ही ऊर्जा का प्रेशर हमारे मन की 'डस्ट' रूपी विचारों को खींच कर पहले मन की सतह पर लाता है और फिर धीरे धीरे हमारे मन को स्वच्छ करता जाता है और हम शनै शनै विचार रहित होते जाते हैं।"
---------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

Monday, November 6, 2017

"Impulses"--412--"Pure Love"

"Pure Love"

"Most of us usually run after our Needs, Requirement and unfulfilled Desires under the Name and Banner of Love. If we could not attain that So Called Love then we begin reacting as if people are deceiving and misusing our feelings desperately.

Actually 'Pure Love' is so stable and vast like 'Infinite' Sky which is visible(Felt) from each and every Corner of the Earth(Heart). 'It', always Hold and Cover the whole Earth with Endless Love and Utmost Care, if we have got such an Eyes( Awareness) to observe 'It's' Tender Glance.

We are not supposed to chase it out of Fear of Loosing 'It'.

We are not supposed to fight for 'It' out of Competition.

We are not supposed to curse our self for not being able to avail 'It' because of our Hard Luck.

We are not supposed to weep with broken heart for not relishing 'It'.

We are not supposed to show our Possession over 'It' by considering such a precious Bliss like a materialistic article.

We are not supposed to Let other's Down if we were given a chance to live with 'It' for sometimes by the Grace of "God".

We are not supposed to imprison 'It' for the sake of Mythical Wordily Relations.

We are not supposed to Disgrace 'It' by having Jealousy into our Heart against It's Generosity.

We are not supposed to Degrade 'It', if 'It' gives life to others.

We are not supposed to Show our Right to block 'It's' Flow out of Greed and Lust.

We are not supposed to Abuse 'It' if 'It' remains as per 'It's' temperament of Nourishing everyone who come into the contact of 'It'.

We are not supposed to feel defeated if 'It' try to help others to stand on their own feet out of Compassion.

We are not supposed to make 'It' your own enemy out of utter ignorance if 'It' try to show your faults and shortcomings which are going to push you into Blind Well of Unawareness.

We are not supposed to question on 'It's sincerity and care if 'It' becomes non-responsive over your Stupidity like Ego, Arrogance, Show-off, Hypocrisy, Diplomacy, Discrimination, Dominance and Vengeance.

We are not supposed to think that 'Love' has gone away from us because of your Stumbling Down as 'Sky' seems far in lying state on the ground but it feels close in standing position.

We are not supposed to be Prejudice if 'It' maintain External Distance to provide you some space and time to Contemplate over your own Negative Deeds which are leading you towards a Sure Down Fall and generating Inharmonious Atmosphere.

We must understand 'It's' working as 'It'(Sky) always keep on Sucking Stale and Harmful Gasses(Distorted Emotions) to keep this 'Earth'(Heart) Clean and Tranquil.

We must always have a Humble Gratitude towards 'God' for letting 'It's' Existence into our Life to make our Life Fragrant and Fruitful."

-------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

Friday, November 3, 2017

"Impulses"--411--"सहज के विभिन्न योग"

"सहज के विभिन्न योग" 


"श्री माँ" की अनुकंम्पा व् प्रेम के माध्यम से सहज में आने के उपरांत कई प्रकार के योग इस चेतना को नजर आये। सहज में स्थापित होने के लिए:- 

पहला योग है, सहज तकनीक योग:-

जिसमे साधक विभिन्न प्रकार की क्रियाओं को लगातार करते रहतें, जैसे जूता-पट्टी, कैंडलिंग, मटका, धूनी, स्ट्रिंग-नाटिंग, पेपर-बर्निंग, अल्लाह-हो-अकबर और फूट-सोकिंग इत्यादि। 

ज्यादातर सहजी हर समय केवल इन्ही क्रियाओं के बारे में ही सोचते रहतें हैं और दूसरे साधकों को भी हर दिन ऐसा करने के लिए प्रेरित करते रहतें हैं। और यदि सहज संस्था में किसी पद पर हैं तो फिर तो माइक पर हर सप्ताह यही सब कहते रहतें हैं।

दूसरा योग है, सहज संस्था योग:-

इस योग से ग्रसित सहजी हर अवसर पर सहज-संस्था में नजर आते है, चाहे साप्ताहिक ध्यान हो, कोई पूजा हो, हवन हो, प्रचार यात्रा हो या सेमिनार हो। 

और तो और वो अपने क्षेत्र के लगभग हर सहजी के सामाजिक कॉर्यक्रम में भी हर हाल में उपस्थित रहते हैं। किन्तु वो कभी भी किसी को भी आत्मसाक्षात्कार देने व् ध्यान में मदद करने को कभी तैयार नहीं होते।

तीसरा योग है, सहज-पदाधिकारी योग:-

इससे प्रभावित साधक हर हफ्ते सहज सेंटर जायेंगे और कोरडीनेटर या सहज के पदाधिकारियों के इर्द-गिर्द ही घूमते रहते है।

उनको अन्य सभी सहजियों की ख़बरें नमक-मिर्च लगा- लगा कर उसके कानो में फुसफुसाते हुए कहते रहेंगे मानो कोई पुलिस का मुखबिर अपराधियों की ख़बरें गुप-चुप देता है।

कभी इसकी बुराई कभी उसकी बुराई करते रहेंगे, और सबसे हास्यपद बात तब होती है यदि वो सहजी उनके सामने जाता है तो बड़े प्रेम से 'प्लास्टिक इस्माइल' के साथ 'जय श्री माता जी' भी जरूर कह देते हैं और जाने के बाद फिर बुराई शुरू। 

ऐसे लोग सदा पदाधिकारियों के चारों ओर ही घूमते रहतें हैं, जैसे सूर्य के चारों ओर कुछ ग्रह लगातार चक्कर लगाते रहते हैं। और सदा खबर-नबीस का रोल ही अदा करतें हैं और संस्था की राजनितिक गतिविधियों में सदा लिप्त रहतें हैं। वास्तव में ऐसे लोगों का सहज योग से कोई लेना-देना नहीं होता है।

चौथा योग है, आत्म-मुग्धता व् आत्म-प्रशंसा योग:-

इस योग से बाधित साधक गण सहज के अनेको कार्य करते हैं, यानि नए लोगों को आत्मसाक्षात्कार देना, सामूहिकता को ध्यान कराना,
सामूहिकता का नेतृत्व करना, ध्यान की अच्छी अच्छी बातें बताना, नए व् पुराने लोगों की ध्यान में मदद करना। 

किन्तु उपरोक्त समस्त बातों का श्रेय भीतर ही भीतर स्वम् को देते गौरान्वित होते रहते हैं।और अन्य लोगों से अपने द्वारा किये गए समस्त कार्यो के लिए अपनी प्रसंशा के बोल सुनने के लिए लालायित रहते हैं।मानो उनकी प्रशंसा उनके जीवन चलाने का भोजन हो।

यदि किसी कारणवश उनके कार्यों की प्रशंसा मिले तो वो लोगों से नाराज व् खिन्न तक हो जाते हैं। प्रशंसा का खाना मिल पाने के कारण वो भीतर से मृत-प्राय हो जाते हैं और उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता। 

प्रशंसा-पीड़ित सहजी प्रशंसा पाने के लिए नित नई नई योजनाएं बनाते रहते हैं, नए नए रास्ते खोज खोज कर लोगों की प्रशंसा का पात्र बने रहते हैं। 

ऐसे सहजी अक्सर प्रसिद्ध सहाजियों व् लोगों से प्रभावित हो हो कर अपने हाव-भाव भी उनके जैसा ही बनाने का प्रयास करते है, यहाँ ताकि कि उनके तौर तरीके, पहनावे व् बातों की नकल करने से भी गुरेज नहीं करते।

पांचवा योग है,"श्री माँ"योग:-

इससे जुड़े साधक सच्चे हृदय से 'श्री माँ' में ही डूबे होते हैं, सबसे सच्चे हृदय से प्रेम करतें हैं, जो भी कुछ 'माँ' से पाते हैं वो सभी कुछ सभी को बाँट देना चाहतें है। चाहे कोई उनकी कितनी भी बुराई करे, चाहे कितनी भी ईर्ष्या करे, फिर भी वे सदा प्रेम भाव ही बनाये रखतें हैं। 

सदा 'माँ ' के प्रेम को जन-जन में बहाते रहतें हैं, कभी भी किसी बात से नहीं डरते, उन्हें मान सताता है और उन्हें अपमान, वास्तव में ऐसे ही सहजी का स्वरुप 'श्री माँ' चाहतीं हैं।"
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".Jai Shree Mata Ji"