Thursday, June 30, 2011

Shots of Ranchi Meditation on 23.03.11

 The Deep meditation is going on into a conference hall of a Hotel which belongs to Sri Ashoak Ji, a Sahaji



























Saturday, June 25, 2011

चिंतन---34--माँ आदि की मौन अभिव्यक्ति-----6

" दाहिना आगन्या चक्र के सकारात्मक प्रभाव "

दाहिने आगन्या चक्र के पिछले भाव में हमने इसके नकारात्मक प्रभावों की चर्चा की थी अब हम चलते हैं इसकी खूबियों की ओर. जब यह चक्र जागृत होने लगता है तो हमें इससे सम्बंधित सभी गुणों का हमें लाभ मिलने लगता है. यानि जो भी देवता इस चक्र पर विराजमान हैं उनकी शक्तियां हमें मिलने लगती हैं. अच्छी स्थिति में कुछ लक्षण हमें इस चक्र में महसूस होने लगते हैं:-------

 दाहिने आगन्या चक्र में ठंडक,फडकन, सनसनाहट,झनझनाहट या खिचावट का  महसूस होना:--ये सभी अच्छे लक्षण हैं,ये लक्षण  तभी प्रगट होते हैं जब 'माँ आदि' की शक्ति अप्रत्यक्ष रूप में इस चक्र को मिलने लगती है. 

जब ऐसा महसूस होने लगे तो समझ जाना चाहिए कि अब हमारा मन बहुत ज्यादा भविष्य की तरफ नहीं भागेगा और हमें वर्तमान में शांति की अनुभूति होगी, यानि हम आने वाले समय के लिए ज्यादा चिंतित नहीं होंगे. ऐसी स्थिति बनने पर खुश होना चाहिए कि जाने-अनजाने में  ईश्वर पर अपने कार्यों को छोड़ने की शुरुआत हो गई है और हमारे परमात्मा पर विश्वास में दृढ़ता की नीव पड़ गई है, आशंकाएं निर्मूल होनी प्रारंभ हो गई हैं. इन्ही आशंकाओं के कारण मानव सदा निर्थक प्रयास करता रहता है. प्रयास की ओर प्रेरित करना इस चक्र का गुण है. बिना प्रयास के हमारा 'कंडीशंड' मन शांत नहीं हो सकता. 

हमारी चेतना का जो स्वभाव है वह है अपने उद्गम की खोज. जैसे एक चुम्बक सदा अपनी ही आकर्षण शक्ति के साथ बंधी होती है और धरती पर इसका स्रोत उत्तर दिशा में है, इसीलिए कम्पास की सुई सदा उत्तर दिशा को ही लक्षित करती है, ठीक इसी प्रकार की व्यवस्था हमारी चेतना की है, जो सदा परम चेतना की ओर ही उन्मुख रहती है. क्योंकि हमारी चेतना परम चेतना का एक स्वतंत्र अंश है, परम चेतना, असंख्य चेतनाओ का समूह है, और हमारी चेतना अपने परम को अच्छी प्रकार से जानती है.

 साधारण अवस्था में हमारा जीवन मन से संचालित होता है. और मन सदा अपने में भरी चीजों की तरफ ही मानव के चित्त को खीचता रहता है. हमारा चित्त भी सदा कम्पास की सुई की तरह मन की ओर ही रुख किये रहता है. और मन का निर्माण हमारी चेतना ने मानव देह को धारण करने के बाद ही किया है, इसलिए मन, चेतना को भी  अच्छी प्रकार से जानता है और चेतना के स्रोत को भी जानता है. 

किन्तु मानव के द्वारा बारम्बार जनम लेते रहने के कारण मन अनेको अन्य सांसारिक चीजों से भी भर गया पर उनमे से कुछ चीजे मनुष्य के हर अगले जनम में उसको नहीं मिलीं, इन्ही चीजों की पूर्व अस्पष्ट स्मृतियाँ मानव चित्त को सदा अपनी ओर आकर्षित करती रहतीं हैं, इसलिए मानव सदा जाने-अनजाने में उन्ही चीजो को पुन: पाने के लिए सदा प्रयास रत रहता है.


एक हमारे अवलोकन व् चिंतन  के मुताबिक आज लघ-भग ९९%  मनुष्य अपने सबसे पहले जनम के साथी को आज तक खोज रहे हैं,. हर मानव ऐसे ही मानव के साथ रहना चाहता है जिसके साथ उसके तन व्  मन में उठने वाले समस्त उद्वेगों व् संवेगों  को दुसरे के द्वारा स्वेच्छा व् प्रसन्नता के साथ समां लिया जाए, तभी भौतिक जीवन में पूर्णता की प्राप्ति होगी. और जो लोग इतने खुशकिस्मत हैं की उन्हें अपने चारों ओर ऐसे ही लोग मिल जातें हैं उनका मन भौतिकता से अक्सर ऊपर उठने लगता है और ईश्वर की ओर उन्मुख होता है.

 ऐसे लोगों की चेतना उनके मन में "परम" की खोज के भावों को उत्पन्न करती है, और उनका चित्त अब मन के इस भाव की ओर आकर्षित होता है, और वो चल देते हैं अपने ईश्वर की खोज में जिसका सबसे बड़ा उदहारण "भगवान् बुध" हैं. अगर चिंतन करके देखें तो इनके दो स्वरूप हमारे सामने प्रगट हो रहे है. 

इनका एक स्वरुप है "सिद्धार्थ" का जो सांसारिक जीवन की नश्वरता से ऊब कर वास्तविकता की खोज में लग गया. 'सिद्धार्थ' प्रयास के पर्याय बन गए, लगातार परमात्मा को सच्चे हृदय से खोजते रहे, जहाँ जिसने जो बताया वो उन्होंने किया, जिसने जहाँ जाने की लिए कहा वो वहां गए. उनका ये वाला जीवन खोज के कर्तव्य पर आधारित रहा.


इमानदारी के साथ उन्होंने अपनी ईश्वर की खोज के कर्तव्य का पालन किया. जबकि ईश्वर हमारे सबके चारों  ओर उपलब्ध हैं हमें फिर भी उन्हें खोजने नहीं जाना, फिर भी ईश्वर प्रगट नहीं हुए. क्योंकि "वो" अद्रश्य बने रहकर हमारे सच्चे प्रयासों व् सच्ची लगन को  निहारते रहतें है. और जब हृदयगत प्रयासों की उनकी निगाह में पूर्ती हो जाती है, और मानव प्रयासों को त्याग कर सब कुछ उन पर छोड़ देता है तो अपने आप ही स्वम को प्रगट कर देते है. मानो मानव के द्वारा सच्चे हृदय से की गईं चेष्टाओं का परिणाम देने के लिए जागृत हो गए हो. यानि की अपनी तरफ से पूर्ण इच्छा से प्रयास करके परिणाम ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए.

तो ये निष्कर्ष निकलता है की "श्री बुध" का 'सिदार्थ' रूपी जीवन हमें सच्ची लगन व् हृदयगत प्रयासों की प्रेरणा देता है. और 'सिदार्थ' के 'बोध' होने के बाद का "श्री बुध" रूपी जीवन हमें प्रयास  रहित अवस्था की ओर इशारा करता है. यानी की "कुण्डलिनी" के उठने से पूर्व प्रयास वांछित हैं और उठने के बाद प्रयास की आवश्यकता नहीं रह जाती है, केवल एक ही चीज जीवन में रहती है की 'माँ कुण्डलिनी' 'सहस्त्रार' पर रहकर जो "आदि माँ" की शक्तियां ग्रहण करती हैं उन शक्तियों को दूसरों को देते जाएँ. 

और शक्तियां देने से जो दूसरों की  कुन्डलिनीयां  उठती जातीं हैं और तब जाकर हमें आशीर्वाद के रूप में शक्ति शाली बनाती जातीं है. इसी से हमारा उत्थान होता है. जैसे ही 'सिद्धार्थ' को 'बोध' हुआ वो तुरंत अन्य लोगों को बताने लगे और वे विकसित होते चले गए और एक दिन "भगवान् बुध" कहलाये यानि की वो भी देने से ही ऊपर उठे. इसीलिए "माँ आदि" ने 'श्री बुध' को हमारे राईट आग्न्या के साथ बैठाया है. 

एक दूसरे प्रकार का वर्ग है जो ईश्वर को खोजना चाहता है और वो है भौतिक जीवन में सदा रहने वाली कोई न कोई कमी की पूर्ती के लिए. इस वर्ग की प्रारंभ में मानसिकता ये रहती है की, "हे भगवान् मेरे को इतने प्रकार के कष्ट, इतने प्रकार के आभाव या इतनी भयानक पीड़ा है, हे भगवान् मुझे इस प्रकार की पीडाओं से मुक्ति दिला दो, इस वर्ग से अपने कष्ट  सहे नहीं जा रहे हैं, वो रात-दिन भगवान् से गुहार लगा रहे हैं, अपनी पीडाओं को कम करने के लिए सभी कुछ करने को आतुर हैं. 

जब ऐसे लोग पीडाओं की चरम सीमा पर चले जाते हैं तब ही जाकर इस प्रकार के लोग हताश होकर मजबूरी में प्रयास छोड़ देते हैं और भगवान सहारा देने के लिए ऐसे लोगों के सामने भी प्रगट हो जाते है और ऐसे लोगों को सम्हालते हैं. पर ऐसे लोग ईश्वर से जुड़ने के वाबजूद भी सदा अपने जीवन में रहने वाली कमियों को ही दूर करना चाहते है. 

क्योंकि अज्ञानता में उनकी प्रार्थमिकता ही उन कमियों को पूरा करना है. और ऐसे लोग सदा याचक ही बने रहते हैं और सदा राईट-आग्न्या के नकारात्मक भाव में ही अपना सारा जीवन यापन करते हैं. और जब मांग-मांग कर थक जाते हैं फिर हाथ खड़े कर देते है, और फिर भगवान् उनकी आवशयकताओं को पूरा करते हैं और फिर उन्हें अपने शरणा-गत कर लेते है.

ठीक इसके विपरीत "भगवान महावीर" प्रारंभ से ही परमात्मा से जुड़े थे और परमात्मा को अच्छी प्रकार से जानते थे इसी लिए उन्होंने भगवान् को खोजने का प्रयास नहीं किया, और न ही अपने जीवन यापन के लिए कोई प्रयास किया.  वो तो बस जंगल में बैठ गए और भगवान् से बोले, "तेरी संतान हूँ, देना है तो यहीं भोजन दे देना तेरे से कुछ मांगूंगा नहीं. क्योंकि वो पूर्ण रूप से विश्वस्त थे. 

इसीलिए पूरे जीवन उन्होंने अकर्म को ही स्थापित किया.इसीलिए "श्री माँ" ने उन्हें लेफ्ट आगन्या पर बैठाया है, जो 'अति-भूतकाल' को प्रगट करता है, और लेफ्ट आगन्या जुड़ा होता है इडा नाडी से यानि "आदि नाडी". जो 'रचना' से पूर्व की व् समस्त रचना की जानकारी को अपने में समाया होता है. और लेफ्ट आगन्या पर लेफ्ट-स्वाधिष्ठान चक्र की पीठ है, यानि शुद्ध विध्या का सूत्राधार. इसका मतलब जब हम किसी भी दशा में सभी कुछ परमात्मा पर छोड़ देते हैं तब ही "शुद्ध विद्दा" जागृत होती है, यानि जब परमात्मा स्वेच्छा से हमारे भीतर जागृत हो जाते हैं तब ही शुद्ध विद्दा जागृत होती है. 

मेरे चिंतन के मुताबिक भी केवल एक ही प्रकार का 'कर्म' है और वो है ईश्वर की खोज, बाकी सभी तो बस केवल कर्तव्य मात्र हैं. 'कर्म' और 'कर्तव्य' में केवल एक ही फर्क है और वो है स्वतंत्रता और बाध्यता, 'कर्म' में स्वतंत्रता छिपी है जबकि कर्तव्य करना ही पड़ेगा. और 'कर्म' है ईश्वर  प्राप्ति के समस्त प्रयास , चाहो तो करो या न करो, भगवान्  हमसे नहीं कहेंगे की मुझे खोजो, वो हमारी इच्छा पर ही छोड़ देते है, 

या फिर यूं कहिये की वो देखते हैं की इसका तो चित्त ही मेरे पर नहीं है, ये तो मुझे मिलना ही नहीं चाहता तो फिर मैं कैसे इसे अपने आप उपलब्ध हो जाऊं. जो भी लोग सच्चे हृदय से उनके साथ रहना चाहतें हैं भगवान् उन्ही लोगों को अपना एहसास कराते हैं.इसीलिए वो सबके साथ  होते हुए भी साथ महसूस नहीं होते हैं.


दाहिना आगन्या चक्र जब अच्छे से जागृत हो जाता है तो ये हमें इस मानव जीवन में उपयोगी बहुत सी चीजों का ज्ञान कराता है. मानवता की उत्क्रांति के लिए ये लगातार हमें अच्छे-अच्छे रास्ते बताता जाता है, अनेको प्रकार की भविष्य में घटने वाली घटनाओं का हमें आभास करता जाता है ताकि हम उन सबके लिए तैयार रहें.जितने भी रचनात्मक आविष्कार आजतक हुए हैं वो सभी इसी की देन हैं. 

जब तक ये जागृत नहीं होता तब तक ये केवल लेफ्ट आगन्या के भीतर संचित स्मृति कोष के पूर्व घटना क्रम या पूर्व ज्ञान के आधार पर ही आधारित प्रतिक्रियाएं करता रहता है, और अक्सर प्रकृति के विपरीत भी हमें ले जाता है. उदहारण के तौर पर यदि कोई वैज्ञानिक किसी अन्य व्यक्ति से बहुत ईर्ष्या करता है और उसको नीचा दिखाने के लिए लगातार प्रयासरत रहता है तो वह  ईर्ष्या से वशीभूत होकर अपने ज्ञान का दुरपयोग करेगा और ऐसा आविष्कार करेगा जिससे उस व्यक्ति को ज्यादा से ज्यादा तकलीफ पहुंचाई जा सके. यानि कि विज्ञान अभीश्राप बन जाता है. 

इसका दूसरा उदहारण है मेडिकल साइंस के द्वारा किडनी, कोर्निया, लीवर इत्यादि का ट्रांसप्लांट करना. और मानव का दूषित मस्तिष्क इन मानवीय अंगो को प्राप्त करने के लिए न जाने कितने अबोध बच्चो व् लोगों की जान ले चुके हैं. एक तरफ तो किसी की जान बचाई जा रही है तो  दूसरी ओर निर्दोष लोगों को इन मानव अंगो की खातिर मारा जा रहा है. 

जागृति न होने के कारण मानव प्रकृति व् परमात्मा के विरोधी कार्य लगातार करता ही जा रहा है. और इस प्रकार की मूर्खता को मानव 'विकास' कहता है. जब भी प्रकृति किसी भी मानव को रोग देती है तो उसे समझना चाहिए कि जरूर वह अनजाने में परमात्मा की खिलाफत कर रहा है. या तो चिंतन करके अपने को उस रास्ते से हठा ले या फिर अपनी समाप्ति को हृदय से स्वीकार करे. 

प्रकृति ने परमात्मा की इच्छा से "बायो डि-ग्रेडिंग सिस्टम" बनाया हुआ है, जो अपने आप ही प्रकृति को संतुलित करता है, हमें उसका सम्मान करना चाहिए. वर्ना मनुष्य की हठ-धर्मिता सारी मानव जाती को तबाही की ओर ले जाती जा रही है. 

जब ये जागृत हो जाता है यानि मध्य हृदय से जुड़ जाता है तो ये सदा नई-नई  उपलब्धियों व् खोजों  का लाभ पूरी मानव जाती को कराता है, तब ये मानव व् प्रकृति का सच्चा मित्र बनकर नित-नई-नई खोजे कराकर मानवो को असंख्य लाभ देता जाता है. जो भी रचनात्मक व् सकारात्मक कार्य होते हैं वो इसी के बल-बूते पर ही होते हैं. 

क्योंकि राईट -आगन्या ही एक प्रकार से राईट -स्वाधिष्ठान है. दोनों एक दुसरे के पूरक हैं. यदि राईट स्वाधिष्ठान जागृत होगा तो ये राईट आगन्या को अच्छे व् रचनात्मक विचार देगा और यदि राईट आगन्या अच्छे से खुल गया तो ये राईट स्वाधिष्ठान की  रचनात्मक  क्षमता को बढाने की शक्ति देगा जिससे सकारात्मक कार्य होंगे. 

इसीलिए "श्री माँ" ने गहन ध्यान पर बल दिया है, क्योंकि जागृत होने पर मानव अपने स्वम के विनाश को रोक सकता है और दूसरों के विनाश को भी रोकने में मदद कर सकता है. इस प्रकार से अपनी इस अनमोल  'धरा' को दाहिने आगन्या के प्रकाश से प्रकाशित किया जा सकता है. 

                        .....................to be continued....

                                                "Jai Shree Mata Ji"

                                                 ....................Narayan