Monday, June 26, 2023

"Impulses"--646--"गुरुता के विभिन्न स्वरूप"

 "गुरुता के विभिन्न स्वरूप"

"दृश्यमान जगत की सांसारिक गतिविधियों के अतिरिक्त एक अदृश्य संसार ऐसा भी है जो विभिन्न प्रकार अलौकिक विस्मय कारी घटनाक्रमो से आच्छादित है।

जिसे 'ईश्वरीय'/सात्विक/राजसिक तामसिक शक्तियों की प्राप्ति के विभिन्न प्रकार के प्रयोजनों से जोड़कर देखा जाता है।

और इन 'विशिष्ट शक्तियों' की प्राप्ति कर इनसे अनेको प्रकार के भौतिक अभौतिक लाभ उठाने के लिए आकर्षित होने वाले मानव अनेको वर्गों में आते हैं जो नीचे दिए जा रहे हैं:-

1.तांत्रिक:-इस वर्ग में आने वाले अधिकतर लोग विशेष प्रकार का यंत्र बनाकर मृत लोगों की जीवात्माओं पर कब्जा कर लेते हैं।

और किन्ही लोभी लोगों की नकारात्मक/नाजायज/अमानवीय/अप्राकृतिक/परमात्मा विरोधी इच्छाओं की पूर्ति के लिए इन बन्धनग्रस्त जीवसत्माओं से जबरन कार्य लेते हैं।

और अपने इन दुष्कार्यों के बदले उनसे धन/सम्पत्ति/सुविधाएं अन्य चीजें प्राप्त करते हैं।ऊपरी तौर पर इस शब्द से आम जन मानस में एक नकारात्मक छवि ही उभर कर आती है।

क्योंकि इस वर्ग में आने वाले अधिकतर मानव अपने लोभ लिप्सा को पूरा करने के लिए 'तंत्र' की शक्तियों का अक्सर दुरुपयोग ही करते हैं।और सहज अनुयाइयों के लिए तो यह शब्द जघन्य अपराध पाप का ही पर्यायवाची है।

क्योंकि "श्री माता जी" ने स्वयं आजकल के तांत्रिकों की भत्र्सना ही की है जो 'काले जादू' का इस्तेमाल कर कमजोर आत्मबल वाले लोगों को अपना निशाना बना कर उन्हें हर स्तर पर शोषित करते हैं।

जहां तक हमने सुना है कि 'तंत्र' की खोज राक्षसों के गुरु 'शुक्राचार्य जी' ने जन कल्याण के लिए ही की थी किन्तु दुर्भाग्य से इस विद्या का इस्तेमाल मानवीय महत्वकांशा लोभ को पूरा करने के लिए ही हो रहा है।

इस वर्ग में हम चंद्रास्वामी सत्यसाईं आदि को रख सकते हैं ये लोग बड़े बड़े नेताओं धनकुबेरों की इच्छाओं की पूर्ति करने के माध्यम बनते रहते थे।

2.कुगुरु:-इस वर्ग में वे लोग आते है जिन्होंने आध्यात्मिक शिक्षा ग्रहण विद्वानों की श्रेणी में आकर कोई कोई उपाधि हांसिल कर समाज में एक पहचान बना ली है।

और ये लोग अपनी उस उपलब्धि का प्रयोग धनसंपन्न लोगों को प्रभावित कर, उनकी मानसिक वृतिगत कमजोरियों को दूर करने के नाम पर उनसे विभिन्न प्रकार के लाभ लेकर अपना लौकिक हित साधते हुए अपने विद्या को सदा भुनाते ही रहते हैं।

इस वर्ग में हम रजनीश को रख सकते हैं जो अपने अनुयायियों से अकूत धन संपदा कमाते रहे हैं।और वर्तमान में हम रविशंकर, ईशा योग गुरु धन धन गुरु आदि को शामिल के सकते हैं।

3.अगुरु:-इस वर्ग में वे लोग आते हैं जो तो विद्वान होते हैं और ही उन्हें आध्यात्मिकता के बारे में कुछ पता ही होता है।

ये वो लोग होते हैं जो विभिन्न प्रकार के प्रपंचों के द्वारा अपने को आम मानवों का हित चिंतक दिखाते हुए तथाकथित गुरु बन जाते हैं।

ये लोग बाह्य दिखावे,तुक्केबाजी हर प्रकार की ट्रिक का इस्तेमाल करते हुए विवेक हीन बुद्धि विहीन किन्तु विभिन्न प्रकार की इच्छाओं लालच से आच्छादित आम लोगों के मन-मस्तिष्क को विभिन्न तौर तरीकों से प्रभावित कर लेते हैं।

और एक प्रकार से उन लोगों को मानसिक रूप से अपना गुलाम बना लेते हैं जिनकी नैसर्गिक समझ दम तोड़ चुकी होती है।

एक प्रकार से ऐसे लोग मानसिक रूप से इन 'अगुरुओं' के गुलाम ही बन जाते हैं और वे तन-मन-धन से इन तथाकथित महान विभूतियों की सेवा ही अपने जीवन को कृतार्थ समझते हैं।

इन्हें हम अंध भक्त कह सकते हैं जिनकी संख्या धीरे धीरे लाखों में पहुंच जाती है और फिर ये अगुरु राजनैतिक नेताओं से सांठ गांठ कर इन 'गुलामों' को मोटे धन के बदले वोटों में परिवर्तित कर देते हैं।

वास्तव में ये अगुरु अत्यंत धूर्त, चालाक अपराधी मानसिकता वाले ही होते हैं और प्रतिष्ठित होने के उपरांत बड़े स्तर पर असमाजिक/अपराधिक गतिविधियों में लिप्त रहते हैं।

इस वर्ग में हम निर्मल बाबा,रामलाल राम रहीम को रख सकते हैं इनमें से दो की गति तो आप सभी को मालूम ही है किंतु इनके अंधभक्त आज भी इनकी भक्ति में लीन हैं।

4.वाचक:-ये वाचक वो लोग होते हैं जिन्होंने इधर उधर से धार्मिक पुस्तकें पढ़ी होती हैं और उन पुस्तकों में निहित कथाओं प्रकरणों को अच्छे से कंठस्थ कर लिया होता है।

ये लोग अत्यंत भावुकता के साथ रस ले ले कर उन सभी कहानियों प्रकरणों में डूब डूब कर उनके सभी पात्रों का श्रोताओं के समक्ष वर्णन करते हैं।

जिसके कारण श्रोतागण भावविहल हो उठते हैं और वे बारंबार ऐसी सभाओं में जाना प्रारम्भ कर देते हैं जिनसे इनका व्यवसाय चमक जाता है।

और ये व्यवसायी अपनी वाचनाओं के बदले लाखों रुपये एक एक सभा के कमाने लगते हैं।इस वर्ग में तो बहुत से प्रसिद्ध वाचक आते हैं जो पूरे भारत में ऐसी सभाएं टीवी कार्यक्रम देते रहते हैं।

जैसे मोरारी बापू, कृपालू महाराज, सतपाल महाराज,अवधूत बाबा,किशोरी जी आदि आदि।इनके अतिरिक्त सैकड़ों ऐसे लोग है जो मजे से अपना धंधा चला रहे हैं।

5.गुरु:-इस वर्ग में आने वाले ऐसे सभी लोग हैं जिन्होंने किसी किसी पद्यति के आध्यात्मिक/धार्मिक मार्ग का अनुसरण करते हुए उस मार्ग की कुछ बातों को अपने मन में संचित कर लिया साथ ही इस मार्ग पर चल कर कुछ अपने अनुभव भी प्राप्त कर लिए हैं।

ऐसे लोग उन मार्गों को अपनाने वाले नए लोगों का मार्ग दर्शन करना प्रारम्भ कर देते हैं।

यदि उनका मार्गदर्शन नए लोगों को पसंद आने लगता है तो वे कभी मीडिया में या सभाओं के द्वारा अपना ज्ञान अनुभव नए लोगों के साथ बांटना प्रारम्भ कर देते हैं और एक प्रकार से गुरु के रूप में प्रतिष्ठित हो जाते हैं।

उदाहरण के लिए हम इस वर्ग में 'राजयोग अनुयायी' सुश्री शिवानी को ले सकते है।

यही नहीं इस वर्ग में आने वाले एक सहज अनुयायी ऐसे भी हैं जिन्होंने "श्री माता जी" के 'शिष्य' के रूप में स्वयं को 'सद्गुरु' घोषित कर दिया है।

जो मीडिया विभिन्न सभाओं के माध्यम से नए लोगों के समक्ष सभी मानवीय बीमारियों/भूत बाधाओं को दूर करने की गारंटी ले रहे हैं।

और एक अन्य सहज अनुयायी सहज का अनुसरण करते करते 'मोटिवेशनल स्पीकर' बन कर मानव समाज के सामने 'गुरु' रूप में स्थापित हो गए हैं।जिनके 'पांव छू' कर अनेको सहज अनुयायी अपने जीवन को धन्य मानते हैं।

विश्वसनीय सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि इन्होंने अपने घर का कुछ भाग 'सेंटर' के रूप में परिवर्तित कर इसके निर्माण के लिए चंदे के रूप में कई सहज अनुयाइयों से लाखों रुपये भी लिए हैं।

हो सकता है इस प्रकार के 'गुरु' आने वाले समय में "श्री माता जी" की तरह अपने अनुयायियों के द्वारा अपनी पूजा भी करवाना प्रारम्भ कर दें।

6.योगी:-इस वर्ग में कई प्रकार की योग पद्धतियों पर चलने वाले योगी आते हैं।जैसे आष्टांग योग,हठ योग,प्राणायाम योग आदि।

 इन सभी यौगिक क्रियाओं में शरीर के विभिन्न भागों में 'प्राण वायु' के ठहराव के द्वारा उन अंगों को पोषित किया जाता है जिससे वे अंग स्वस्थ रह सकें।

'प्राण वायु' से सबसे अधिक लाभ 'प्राणायाम' योग में होता है क्योंकि इस 'प्राण शक्ति' का ठहराव हमारे मध्य हृदय में होता है जिससे हृदय चक्र पुष्ट होता है जो पूरे शरीर को शक्ति प्रवाहित करता है।

7.पंडित:-इस वर्ग में वे लोग आते हैं जो सांसारिक शुभ कार्यो को सम्पन्न कराने के लिए विभिन्न प्रकार की धार्मिक प्रक्रियाएं मंत्रोचारण के माध्यम से करवाते हैं।

8.आचार्य:-इस वर्ग अधिकतर वे लोग आते हैं जो मानव की मृत्यु होने के समय उसके शरीर को अग्नि के हवाले करने से पूर्व बाद में विभिन्न कर्म कांडो, मंत्रो आदि के द्वारा उसकी जीवात्मा की तथाकथित गति की व्यवस्था करते हैं।

9.त्यागी:-इस वर्ग में आने वाले अनेको मानव "प्रभु" प्राप्ति के लिए भिन्न भिन्न प्रकार के त्याग करते रहते है।

जैसे भोजन/आराम/आम वस्त्र/संसार/वाणी/स्वाद/धन/पद आदि का त्याग "ईश्वर" प्राप्ति के नाम पर कर देते हैं।

10.अघोरी:-ये एक ऐसा वर्ग है जो नकारात्मक भी हो सकता है और सकारात्मक भी हो सकता है।इस वर्ग में आने वाले मानवों के "इष्ट", शमशान में निवास करने वाले"श्री शिव" होते हैं।

ये लोग अधिकतर शमशान घाट में बैठकर अत्यंत कठोर अनुष्ठानों के द्वारा "शिव" को प्रसन्न करने की चेष्टा करते रहते हैं।

ये इतने निर्लिप्त होते हैं कि अक्सर "उनके" प्रसाद के रूप में 'मुर्दों का मांस', विष्ठा आदि को भी ग्रहण कर लेते हैं।

11.भक्त:-"भगवान" से जुड़ने के लिए सबसे सरल मार्ग भक्ति है, इस वर्ग में आने वाले अधिकार लोग "परमात्मा" को प्रसन्न करने के लिए भजन/राग/रागनियों को पूर्ण दिल से गाते हैं।

12.उपासक:-ये ऐसा वर्ग है जो अपने "इष्ट" को विभिन्न स्वरूपों में अपने आगन्या हृदय में स्थान देता है और भीतर ही भीतर "उनका" स्मरण करता रहता है।

13.सिद्ध:-इस वर्ग में आने वाले अधिकतर लोग अपनी पसंद के देवी देवताओं की शक्तियों को प्राप्त करने  

के लिए बी मन्त्रों के उच्चारण की आवृति के द्वारा भिन्न भिन्न प्रकार के उपक्रम करते हुए उनकी शक्तियों को अपने भीतर धारण कर लेते हैं।और उन शक्तियों का उपयोग आम लोगों की विभिन्न बाधाओं को दूर करने में करते हैं।

14.ऋषि:-इस वर्ग में आने वाले मानव इस काल में तो लुप्त प्राय ही हो गए है, ये सभी विद्वान प्राचीन काल में क्योंकि वेदों, पुराणों उपनिषदों आदि का गहन अध्ययन कर प्रकृति की विभिन्न शक्तियों का एक वैज्ञानिक की तरह प्रयोग कर संसार का कल्याण किया करते थे।

15.मुनि:-इस वर्ग में वे उच्च कोटि के मानव आते हैं जो मानव कल्याण के किसी विशिष्ट पहलू को उन्नत करने के उद्देश्य से किसी पद्यति अथवा ज्ञान को अपने अनुभव के द्वारा स्थापित करते हैं।

16.साधू:-इस वर्ग में आने वाले लोग सांसारिक जीवन का त्याग कर नगरों ग्रामों से दूर जंगलों में निवास किया करते थे।

आम लोगों को "ईश्वर" से जुड़ने अच्छे कार्यो को करने की प्रेरणा देते हुए भिक्षा के जरिये अपना जीवन चलाया करते थे।आज के इस युग में वास्तविक वास्तविक साधू दूर दूर तक कहीं नजर नहीं आते।

17.सन्यासी:-वास्तविक सन्यासी वह होता है जो समस्त प्रकार की नकारात्मक वृतियों से सन्यास ले कर गृहस्थ आश्रम में ही रहते हुए अपनी चेतना को उन्नत करता जाय।

18.फकीर:-इस वर्ग में आने वाले अधिकतर लोग अपनेअंतस में "परमात्मा" के साथ एक मित्र की भांति बातचीत करते रहते हैं।

किन्तु सांसारिक जिम्मेदारियों को निभाने में कभी रुचि नहीं रखते और ही ये लोग अपने भोजन, छत वस्त्रों की ही परवाह करते हैं।

जो भी इनको भोजन दे दे ग्रहण कर लेते हैं,जहां दिल करता है वहां रात गुजार लेते हैं,जहां मन करता है चल देते हैं।

ये लोग लगातार भ्रमण करते रहते हैं और आम संसारी लोगो को उनके कल्याण के लिए विभिन्न प्रकार की जानकारी देते रहते हैं।

19.साधक:-इस वर्ग में आने वाले ज्यादातर लोग गृहस्थ सन्यासी दोनों ही प्रकार के हो सकते हैं।ये लोग लगातार अपने मन इसकी वृतियों को चिंतन,मनन ध्यान के जरिये निरंतर साधते रहते हैं।

ये लोग अपनी सतत गहन साधना के जरिये अपने मन के समस्त पूर्व संस्कारों यानि कंडीशनिंग को पूर्णतया समाप्त कर अपने मन को पूर्ण रूप से रिक्त कर मुक्त अवस्था का आनंद उठाते हैं।

20.तपस्वी:-इस वर्ग में आने वाले लोग भी एक प्रकार के साधक ही होते हैं और ये लोग भी गृहस्थ सन्यस्त, दोनों ही प्रकार के हो सकते हैं।

ये लोग लम्बे लम्बे काल तक अपने "आराध्य" के ध्यान में स्थित हो जाते हैं और "उनकी" 'ऊर्जा' को निरंतर आत्मसात करते हुए "उनकी" शक्तियों गुणों को अपने अस्तित्व में जागृत कर लेते हैं।

और उन शक्तियों गुणों के जरिये संसार के कल्याण के अनेको कार्य करते हैं और आम लीगों को अनेको लाभ पहुंचाते हैं।

21.खोजी:-इस वर्ग में आने वाले लोग अपने अस्तित्वों के "उदगम",प्रयोजन, संसार के सत्य, संसार से पूर्व के सत्य, जीवन मृत्यु के सत्य, मृत्यु के बाद के सत्य को गहन ध्यान चिंतन के जरिये अपने ही भीतर में तलाशते रहते हैं।

और समस्त प्रकार के सत्यों को अनुभव कर अन्य खोजियों की भी निरंतर मदद करते रहते हैं और नई नई प्रकार की आंतरिक खोजो के लिए लालायित रहते हैं।

22.सहज योगी:-सहज योगी भी दो प्रकार के वर्गों में आते हैं।एक तो वह वर्ग है जिनकी कुंडलिनी का जागरण उच्च दर्जे की 'दिव्य पुस्तको' को अपने जीवन में उतारने,किसी सच्चे सन्त/सद्गुरु के आशीर्वाद/"माँ भगवती" अथवा "श्री महादेव" के किसी स्वम्भू मंदिर में सच्चे हृदय से की गई साधना के परिणाम स्वरूप हुआ है।

ये समस्त लोग अपनी कुंडलिनी को सहस्त्रार में स्थित के अपनी कुंडलिनी के द्वारा "माँ आदि शक्ति" की विभिन्न शक्तियों को ग्रहण कर उनका उपयोग अपने सूक्ष्म यंत्र को पोषित करते हुए गुणातीत कालातीत हो कर अपनी मुक्ति सुनिश्चित करते हैं।

और दूसरे वर्ग में वो लोग आते हैं जिनकी कुंडलिनी "श्री माता जी" ने या तो स्वयम अथवा अपने किसी यंत्र के माध्यम से की है।

"श्री माँ" के द्वारा पुनर्जीवित लोग केवल अपने 'मोक्ष' की व्यवस्था करते हैं बल्कि ये लोग अपने भीतर में प्रवाहित होने वाली"श्री माता जी" की शक्तियों के द्वारा अन्य लोगों की कुंडलिनी भी उठाते हैं।

साथ ही "श्री माता जी" के द्वारा बताई गयी अनेको विधियों के द्वारा उनके यंत्रों को संतुलित करने में मदद भी करते हैं।

23.स्वयं का गुरु:-'स्वयं का गुरु' वे मानव होते हैं जो सहज योग के माध्यम से अपनी कुंडलिनी का जागरण करवा कर अपनी चेतना को ध्यान,चिंतन,मनन धारणा के जरिये अपने अंतःकरण में स्थित "परम धाम" के विभिन्न विभूतियों आयामो का अनुभव करते रहते हैं।

24."श्री यंत्र":-इस वर्ग में वे सभी लोग आते हैं जो 'स्वयं के गुरु' पद पर सुशोभित होते हैं। "श्री माँ" के पूर्ण समर्पित यंत्र बनकर "उनके" द्वारा प्रदत्त समस्त शक्तियों का प्रयोग "उनके" द्वारा प्रेरित जागृति ध्यान के अनेको प्रकार के कार्यो का सम्पादन करने में करते रहते हैं।

25."श्री बालक":-इस वर्ग में के बराबर ही लोग पाते हैं क्योंकि इन लोगों से "श्री माँ" केवल जागृति ध्यान के कार्य लेती हैं।

बल्कि इन लोगों के माध्यम से "श्री माँ" अनेको प्रकार की आसुरी,राक्षसी, शैतानी,पैशाचिक नकारात्मक शक्तियों के विनाश के कार्य भी करती हैं।

जिसकी वजह से इन लोगों पर अनेको प्रकार की विकट समस्याएं,विपत्तियां परेशानियां,पीड़ाएँ,कष्ट,शारीरिकतकलीफ,आर्थिक हानि,सांसारिक अपमान, सामूहिक विरोध,सांसारिक रिश्तों में दूरी/टूटन आदि चलते रहते हैं।

क्योंकि ये लोग पूर्णतया "श्री माँ" को समर्पित होते हैं और इनको संसार के तौर-तरीके,रीति-रिवाज,चलन,झूठ,फरेब,लालच,चालाकी,गुलामी,धूर्तता,हिपोक्रेसी,डिप्लोमेसी,हानि-लाभ समझ नहीं आते।

 ये लोग एक प्रकार से असत्य,अन्याय,दमन,उत्पीड़न,जड़ता,कंडीशनिंग  मानवता/प्रकृति/"परमात्माकी खिलाफत करने वालों के शत्रु होते हैं।

इसीलिए चित्त चेतना के अतिरिक्त बाह्य रूप से भी इनका संघर्ष निरंतर चलता रहता है जिसकी वजह से इनका सांसारिक जीवन सामान्य नहीं रह पाता।

वास्तव में ये लोग पूर्णतया हर प्रकार के बाह्य आंतरिक बन्धनों से मुक्त होते हैं जिनके व्यक्तित्व को आसानी से कोई समझ ही नहीं पाता।

इनका बाह्य आंतरिक रूप से केवल एक ही लक्ष्य है और वो है सुपात्रों के अंतःकरण में आंतरिक जागृति,शांति,वात्सल्य प्रेम की स्थापना के द्वारा इस धरा पर स्थित समस्त प्रकार की बुराइयों का अंत।

26."सद गुरु:-यह वर्ग 'राजा जनक' से लेकर 'साईं नाथ' तक केवल और केवल 10 'आदि गुरुओं' के लिए ही सुनिश्चित हैं।

"सद्गुरु" केवल वही हो सकते हैं जिनको अपने जन्म लेने से पूर्व ही अपने जन्म लेने के बाद करने वाले जागृति के कार्यो को पूर्ण करने का लक्ष्य मालूम हो।ये केवल और केवल देवताओं के गुरु "श्री दतात्रेय" के अवतार ही हो सकते हैं।

यदि "परमेश्वरी" ने मानव की नाभि चक्र में मानव के 10 से ज्यादा धर्मो की स्थापना करने की सोची तो यह तब ही सम्भव हो पायेगा अन्यथा यह सम्भव ही नहीं है।

आज आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कोई मानव चाहे कोई कितना भी बड़ा महाज्ञानी गुरु क्यों हो जाय वह 'सद्गुरु' नही बन सकता।

क्योंकि यदि "माँ आदि शक्ति" एक और सद्गुरु को इस धरा पर लाना भी चाहें तो उस महान चेतना को अपने वर्तमान जीवन की मृत्यु के उपरांत फिर से किसी स्त्री के गर्भ में कर पुनः जन्म लेना पड़ेगा।

यानि कोई भी उच्चतम कोटि की चेतना भी इसी जीवन काल में सद्गुरु की श्रेणी में कभी भी नहीं सकती।

"श्री माँ" ने अपने एक लेक्चर में बताया है कि "श्री साईं नाथ" के बाद कोई भी 'सद्गुरू' मानव देह में उपस्थित नहीं है।

इस चेतना का उद्देश्य किसी मानव को हतोत्साहित करना नहीं वरन हर मानव की चेतना की उन्नति में मदद करना ही है।"

-----------------------Narayan

"Jai Shree Mata Ji"


20-08-2021