Monday, July 31, 2023

"Impulses"--649-- "माया/"भ्रांति देवी"/"महामाया"/ "सहस्त्रार-ए-महामाया"

"माया/"भ्रांति देवी"/"महामाया"/ "सहस्त्रार--महामाया"


"ये चारों उपरोक्त शब्द हममें से अधिकतर सहज साधक साधिकाओं ने "श्री माँके मुखारविंद से कई बार सुने होंगे।

ऊपरी तौर पर यह चारो ही शब्द अपने शाब्दिक अर्थों में एक दूसरे के पर्यायवाची जान पड़ते रहे होंगे।

जिस कारण से हममें से अधिकार सहज अभ्यासियों ने इन पर अधिक ध्यान  दिया होगा।

किन्तु जब हम इन चारों पर ध्यानस्थ अवस्था में अपनी चेतना को केंद्रित कर अपने अंतःकरण में इनको रखकर इनके वास्तविक मायनों को आत्मसात करने की ओर चलेंगे।

तब ही जाकर इनकी भिन्नता हमारी चेतना  समझ के सामने परिलक्षित हो पाएगी।

वास्तव में ये चार शब्द मात्र शब्द नहीं वरन "श्री परमेश्वरी" की चार भिन्न भिन्न अवस्थाएं हैं जो इस संसार के कार्यों के संचालन में मदद करती हैं।

तो अब हम इन चारों अवस्थाओं को समझने के लिए चलते हैं:-

सर्वप्रथम हम सभी अपनी चेतना को अपने मध्य हृदय रखकर, मध्य हृदय रूपी 'सिंहासन' पर आसीन "श्री माँ" को पूर्ण हॄदय, भक्ति, इच्छा, श्रद्धा समर्पण के साथ मिनट दो मिनट तक ऊर्जा के रूप में अनुभव करेंगे।

उसके बाद अपने चित्त के माध्यम से "उनके" "श्री चरणों" के स्पर्श को अपने सहस्त्रार पर ऊर्जा की हलचलों के रूप में अगले 2-3 मिनट तक एहसास करेंगे।

और फिर इन दोनों स्थानों पर ऊर्जा की अनुभूति करते हुए विचार रहित शून्यता में प्रवेश कर जाएंगे और शून्यता को बनाये रखते हुए "परमेश्वरी" के इन चारों अस्तित्वों को आत्मसात करने के लिए तैयार हो जाएंगे।

1."माया":- यह शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है, यानि माँ + या, इन दो शब्दों से ही जाहिर है,

कि कोई भी मानव या तो "माँ" की ओर चलेगा या फिर "माँ" ने जो भी रचना की है वह उस ओर चलेगा।और जब कोई "श्री माँ" से हटकर "उनके" द्वारा रचित संसार का चुनाव करता है तो वह 'या' में उलझ जाता है।

यानी कि "श्री माँ" के द्वारा रचे संसार में लिप्त हो जाता है और उसे ही सत्य मान कर केवल उसके लिए ही जीना-मरना प्रारम्भ कर देता है।

"श्री आदि शक्ति" ने 'अपनी इच्छा' से अपने संसार की रचना की और "श्री पारब्रह्म" के अंशों यानि उनके 'प्रकाशित कणों', यानि 'आत्माओं' को, मानव की 'जीवात्मा' में अपने 'अंश' यानि 'कुंडलिनी' के साथ स्थापित किया।

साथ ही "उन्होंने" इस संसार के साथ अनेको प्रकार के भ्रमों को भी इस संसार के साथ जोड़ दिया, ताकि "उनका" यह संसार निर्बाध गति से चलता रहे।

जब पहली बार "उन्होंने" मानव को इस धरा पर जन्म दिया तो उसके चारों ओर अनेको प्रकार के भ्रम, जो अपना,पराया, तेरा, मेरा के रूप होते हैं, स्थापित किये।

ताकि मानव इन चारों प्रकार के भ्रमों का शिकार होकर नकारात्मक कर्म फलों में उलझ कर छै शत्रुओं को भी आमंत्रित कर ले।

जिनके प्रभाव के कारण वह अपने अस्तित्व को भूल कर बारम्बार जन्म लेता रहे और "श्री माँ" की रचना इन भ्रमो से ग्रसित मानव के कारण निर्बाध रूप से चलती रहे।

तो मानव के द्वारा विभिन्न प्रकार के भ्रमों का शिकार होना ही 'माया' में उलझना है, या यूं कहें कि जीवन-मरण के चक्र में अटक जाना ही 'माया' है।

यह "माया" भी एक दैवीय अस्तित्व है जिसके प्रभाव के कारण यह संसार गतिमान रहता है।

2."भ्रांति देवी"-"माया" जनित संसार में जीता हुआ मानव जब अपनी भौतिक तुष्टियों की मृग मरीचिका के जाल में फंस कर मानवता, 'प्रकृति' "परमात्मा" के विरोध में कार्य करते हुए सृष्टि के नियमों की सभी सीमाएं लांघता ही चला जाता है।

*तो ऐसी अवस्था में "भ्रांति देवी" उसके मस्तिष्क में जागृत हो जातीं हैं और "वे" उसको और भी ज्यादा नकारात्मक कार्य करने के लिए निरंतर इस हद तक उकसाती रहती हैं।*

*जब तक कि इस सृष्टि की रक्षा करने वाली समस्त शक्तियां उस मानव के कार्यों से अत्यंत कुपित होकर उसका सर्वनाश करने के लिए चल पड़ें।*

तो एक प्रकार से हम यह भी कह सकते हैं कि "भ्रांति देवी" इस संसार में बुराई से आच्छादित मानवों के बुरे कर्मों के प्रतिफलों को 'विधि के विधान' के द्वारा सुनिश्चित कराने में एक सहायक का कार्य करती हैं।

जैसे हमारे मानव जाति के इतिहास में ऐसे बहुत से अत्यंत क्रूर तानाशाह हुए हैं जिन्होंने अपनी अनियंत्रित महत्वाकांशाओं के कारण मानवता को कलंकित किया है।

उन सभी नराधमों को उनके द्वारा किये गए समस्त नकारात्मक कार्यों के लिए समस्त गणों रुद्रों के कोप का भाजन बनवाने की व्यवस्था इन्ही "भ्रांति देवी" ने ही की थी।

"श्री माता जी" ने बताया है कि कैसे हिटलर के क्रूरतम अस्तित्व को समाप्त करने के लिए "भ्रांति देवी" ने उसके झंडे पर उल्टा 'स्वास्तिक' का चिन्ह बनवा कर उसके जीवन में अशुभता का प्रारम्भ करवा कर उसे युद्ध में हरवाया अंततः उसे आत्म हत्या करने पर मजबूर कर दिया।

हमारे देश में भी पिछले 5 वर्षों से हमारे देश की सत्ता पर काबिज 'शैतानी' अस्तित्वों ने सत्ता धन की कभी तृप्त होने वाली भूख के चलते हमारे देश को पूरी तरह से रसातल में धकेल दिया है।

अपने खूनी षड्यंत्रों के द्वारा हमारे देश हमारे देश के नागरिकों का अत्यंत बुरा हाल ही नही किया वरन, एक तुच्छ से विषाणू के नाम पर लाखों लोगों के जीवनों को भी लील लिया।

इनके अत्याचारों से मानवता त्राहि त्राहि करती रही, जिसके कारण हमारे देश में चारों ओर चिताएं ही चिताएं धधकती रहीं।

हर प्रकार की अराजकता चारो ओर परिलक्षित होती रही, प्रति दिन स्थान स्थान पर लाशों का अम्बार लगता रहा।

और इंसानों को तेजी से मरते देख 'मानव देह धारी गिद्ध' चारों ओर मंडराने लगे जिनको सत्ता प्रशासन में बैठे कुछ 'नरपिशाचों' का पूर्ण सौरक्षण प्राप्त था।

ये गिद्ध लोगों के मरने की प्रतीक्षा नहीं कर रहे थे बल्कि लोगों के मरने से पहले ही जिन्दे इंसानों के गोश्त को नोच नोच कर खाने लग रहे थे।

यानि जीवन रक्षक दवाओं उपकरणों की भयानक स्तर तक कालाबाजारी करते रहे।जो दवा मात्र 1000-2000 की थी ये गिद्ध उसको 1-1 लाख में बेच रहे थे।

नवम्बर 2016 से अब तक यह सत्ता लगातार एक के बाद एक ऐसे काम करती जा रही हैं जिससे हमारे देश की रीढ़ की हड्डी हर स्तर पर पूरी तरह से चकना चूर होती जा रही है।

यह देखकर बेहद अफसोस हो रहा है कि हमारा देश हर स्तर पर पूरी तरह से बर्बादी की ओर तेजी के साथ अग्रसर होता जा रहा है।

सत्ता में मुख्य पदों पर बैठी जोंकों ने अपने घृणित उद्देश्यों के चलते इस देश का धन,अमन-चैन,आपसी सौहार्द, सामंजस्य प्रेमभाव खून की तरह चूस चूस कर लगभग समाप्त ही कर दिया है।

चारो ओर बदहाली,गरीबी,भुखमरी,बेरोजगारी,महंगाई,मजबूरी,गुलामी,अभाव,अनिश्चितता,अराजकता लूट का वातावरण बढ़ता ही जा रहा है।

सत्तासीन लुटेरों को "भ्रांति देवी" उनके हर 'दुरुदेश्य' षड्यंत्रों में सफलता प्रदान करते हुए इनको अहंकार अत्याचार की चरम सीमा तक ले जाती जा रहीं हैं,ताकि इनके पापों का घड़ा जल्दी से भर सके।

और इनके साथ ही "भ्रांति देवी" इनके समस्त सहयोगियों,अनुकरणियों अंधभक्तों यहां तक कि इनकी अंध चाहत की गिरफ्त में आये अनेको सहज अनुयाइयों को भी उजागर कर भ्रांति में निरंतर जकड़ती जा रहीं हैं जिनके भीतर इन जैसी वृतियां मनोवृत्तियां हैं।

जिसके कारण इन अन्धानुयाईयों को इस सत्ता के मानवता, प्रकृति "परमात्मा" विरोधी कार्य दिखाई ही नहीं पड़ रहे।

"श्री कल्कि" इन सभी के कुकृत्यों का पर्दाफाश कर अंततः इनकी इनका अनुसरण करने वाले सभी भ्रमित मानवों की संहार प्रक्रिया प्रारम्भ कर हमारे देश में पुनः सतयुग की स्थापना निश्चित रूप से करने जा रहे हैं।

3."महामाया":-जब जब भी "परमात्मा" ने मानव के रूप में जन्म लिया है "वे" सदा 'अपने' विशिष्ट कार्य काल के प्रारम्भ होने तक "महामाया" के आवरण में लिपटे रहे हैं।

ताकि नकारात्मक शक्तियां सुप्त साधारण मानव "उनको" पहचान सके और "उनके" कार्यों की शुरुआत से पूर्व किसी भी प्रकार का व्यवधान उत्पन्न हो सके।

क्योंकि "वे" अवतार हैं और "वे" चाहते हैं कि केवल "उनके" वास्तविक भक्त उपासक ही "उनको" पहचाने "उनके" आशीर्वादों के अधिकारी बनें।

जिन्होंने अपने पूर्व जन्मों में सच्चे हृदय से अपने "उपास्यों" को प्राप्त करने के लिए कठोर साधनाएं,तप भक्ति की है।

"श्री माता जी" भी ऐसे समस्त मानवों के लिए "महामाया" के रूप में ही मौजूद रहीं जो "उनके" सांसारिक रिश्तों रिश्तेदारों,मित्रों,परिचितों करीबी लोगों के रूप में मौजूद रहे।

यहां तक कि "श्री माँ" अधिकतर सहज अनुयाइयों के लिए "महामाया" के रूप में अभी भी निरंतर कार्यरत हैं जिनके चित्त आज भी किसी किसी कारण से आज भी संसार में लिप्त हैं।

फिर भले ही ऐसे सहज अनुयाइयों को सहज से जुड़े 20-30 साल ही क्यों हो गए हों।

"श्री महामाया" का खिलवाड़ तो सबसे ज्यादा उन सहजियों के साथ चला जो सहजी, सहज संस्था में किसी किसी पद पर रहते हुए "श्री माँ" के साथ बाह्य रूप में जुड़े रहे।

क्योंकि इनमें से एक आध अपवाद को छोड़कर लगभग ऐसे सभी सहजियों के भीतर "श्री माँ" के सानिग्धय में बने रहने का अहंकार उत्पन्न हुआ जिसके चलते इन लोगो में आम सहजियों के ऊपर शासन करने प्रवृति पाई गई।

और ज्यादातर आम सहजियों ने भी घोर अज्ञानता वश इन सभी को "श्री माँ" के ज्यादा नजदीकी मानते हुए इन सभी के अहम को बढ़ाने में भरपूर योगदान दिया।

यानि सहज पदाधिकारी इस धारणा से युक्त आम सहजी भी "महामाया" के चंगुल में अच्छे से फंसे जिसका सिलसिला आज भी जारी है।

आज भी बहुत से सहज संस्था पदाधिकारी,जो ट्रस्टी स्टेट कॉर्डिनेटर सिटी कॉर्डिनेटर यहां तक कि सहज वालिंटियर भी अपने को अन्य सहजियों से विशिष्ट मान कर अपना शासन चलाने में कोई कसर नहीं छोड़ते।

और इन सभी महान विभूतियों को विशेष दर्जा देने वाले कुछ भ्रांति से ग्रसित सहजी भी इनको और भी ज्यादा विशिष्ट महसूस कराने में अपनी भूमिका अच्छे से निभाते हैं।

"श्री महामाया" एक और भ्रांति सहज अनुयायियों के बीच प्रसारित करती रहती हैं जिसमें अधिकतर सहजी फंसे हुए हैं।

और वह है ऐसे सहजियों की सांसारिक इच्छाओं/आवश्यकताओं की पूर्ति विभिन्न प्रकार की सांसारिक परेशानियों का निराकरण करने में इनको उलझाए रखना।

जिसके चलते अधिकतर सहजी अपनी चेतना को विकसित करने ध्यान में अपनी गहनता को बढ़ाने के स्थान पर सहज तकनीकों के जरिये अपनी सांसारिक आवश्यकताओं की पूर्ति अपनी अपने पारिवारिक सदस्यों की पीड़ाओं को दूर करने में ही अपना बेशकीमती समय जाया करते रहते हैं और अंततः अधोगति को प्राप्त होते हैं।

वैसे जागरूक सहज अनुयाइयों के लिए "श्री महामाया" एक सख्त शिक्षिका के रूप में कार्य करती हैं।

जो अच्छे से पढ़ाने के बाद समय समय पर सहजियों के स्तर को अपने द्वारा फैलाई गई महामाया के जरिये चैक भी करती रहती हैं।

ताकि कोई भी सहजी बिना सच्ची मेहनत,लगन, निष्ठा,भक्ति,समर्पण ईमानदारी के "श्री माँ" के विभिन्न आशीर्वादों का लाभ उठा सके।

4."सहस्त्रार--महामाया":-"इनका" रोल तो वास्तविक सहज अनुयाइयों के जीवन में अत्यंत ही अनूठा है।

जो सहजी सत्य से हट कर सहज के नाम पर अपनी प्रतिष्ठा,मान,सम्मान,व्यापार,व्यवसाय किन्हीं सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति में लिप्त होने लगते हैं।तो "ये" उनको सहस्त्रार से नीचे धकेलना प्रारम्भ कर देती हैं।

और जब ऐसा घटनाक्रम "इनके" द्वारा घटित कराया जाने लगता है तो ऐसे सहजी अपना सदविवेक सुबुद्धि इस हद तक खोना प्रारम्भ कर देते हैं कि उन सब की गतिविधियों को देख कर अत्यंत आश्चर्य होता है और हम यह विचारने के लिए बाध्य हो जाते हैं कि क्या ये लोग सहज अनुयायी हैं ?

यह देख कर अक्सर बेहद हैरानी होती है कि कुछ तथाकथित महान सहजी किन्ही राजनैतिक नेताओं की मानवता/प्रकृति/परमात्मा/नैतिकता विरोधी निकृष्टतम,विचारधाराओं के चंगुल में फंस कर उनका अंधानुकरण करते हुए उनको "ईश्वर" के अनेकों अवतारों का दर्जा तक दे डालते हैं।

किंतु एक समय ऐसा आता है जब वे अपनी ही आगन्या के जाल में बुरी तरह जकड़ कर अधोगति की ओर तीव्रता से जाना प्रारम्भ कर देते हैं और उनको पता ही नहीं चलता वे आखिर जा किधर को रहे हैं।

किंतु फिर भी वे स्वयं को अत्यंत उच्च गहन प्रदर्शित करते हुए सहज के कर्णधारो के रूप में समाज में अपने को स्थापित करने में निरंतर व्यस्त रहते हैं।

इनके साथ साथ सहजियों का एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो सहज योग को एक त्योहार उत्सव के रूप में निरंतर परिवर्तित करता जा रहा है।

जब भी कोई सहज सामूहिकता होती है तो उसमें भव्यता उड़ेलने के लिए जी जान एक करते हुए भारी भरकम रकम व्यय की जाती है।

और इन सबकी देखा देखी स्थान स्थान पर भव्यता बढ़ती ही जाती है मानो भव्यतापूर्ण कार्यक्रमो की कोई प्रतियोगिता चल रही हो।

जबकि "श्री माता जी" कई बार 'जन्म दिवस पूजा' के अवसरों पर फिजूल खर्ची के लिए सदा मना करती रही है।

और कुछ सहजी तो पूजा/हवन/ध्यान आदि करवाने अन्य सहजियों के चक्र नाड़ियां सन्तुलित करवाने/ शारीरिक बीमारियों को ठीक करने/सहज तकनीक सिखाने/चक्रों की पकड़ भूत बाधा बताने/प्रोटोकॉल सिखाने अथवा किसी विशिष्ट कला में अपने को पारंगत करने तक ही अपने को सीमित कर लेते हैं।

और वे इनमें से किसी भी एक विशिष्ट कार्य के विशेषज्ञ होने का अपने ऊपर स्वयं ही टैग लगा कर सन्तुष्ट हो जाते हैं कि हम तो बहुत ही महान कार्य को अंजाम दे रहे हैं।

किंतु वे यह भूल जाते हैं कि इन सभी तक सीमित रह जाने के कारण उनकी स्वम की आंतरिक ध्यान यात्रा पूरी तरह अवरुद्ध हो गयी है जो उनके आंतरिक विकास में मदद कर उनको मुक्त अवस्था प्राप्त करने में सक्षम बनाती।

इनके अतिरिक्त एक और अत्यंत रोचक वर्ग सहजियों का है जिनका शोशल मीडिया पर केवल एक ही कार्य है और वह है जन्म दिवस/विवाह आदि की वर्ष गांठ पर निरंतर बधाइयां देते/लेते रहना।

चलिए एक बार को छोटे छोटे बच्चों को उनके जन्म दिवस पर खुश होते हुए उत्साहित होते हुए देखकर समझ आता है कि ये बच्चे इसलिए प्रसन्न हैं कि इनको अनेको गिफ्ट मिलेंगे।

किंतु जो अपनी आयु का लगभग आधा जीवन जी चुके हैं उनको इन सब बातों में लिप्त देख कर अत्यंत हैरानी होती है कि आखिर इनकी चेतना आत्मसाक्षात्कार के बाद ध्यान की गहराइयों में जाने के बजाय किधर को चल रही है।

इन सभी उपरोक्त बाह्य झुकावों/रुझानों/प्रलोभनों आकर्षणों से ध्यान में गहनता प्राप्त करने की तीव्र इच्छा रुचि रखने वाले सहज अभ्यासियों को बचना चाहिए अन्यथा "सहस्त्रार--महामाया" के द्वारा निश्चित रूप से नीचे लुढ़का दिए जाएंगे।

यह सब देख कर हम जैसे मामूली चेतना वाले 'साधक' यह चिंतन करने पर विवश हो जाते हैं।

कि आखिर इस धरती पर जन्म लेकर हमने किस पर एहसान किया अथवा ऐसा कौनसा महान कार्य हमने किया है जिसके लिए हम अपने जन्मदिवस पर बधाइयां स्वीकार करते हुए इसका रस लें।

इसीलिए जब तक हमें फेस बुक की अनेको सेटिंग्स पता नहीं थी तो हमारी 'प्रारब्ध जनित जन्म तिथि' स्वतः ही प्रदर्शित हो जाती थी और हमको अनेको बधाइयां मिलने लगती थीं।

किंतु एक दिन इसकी सैटिंग के साथ माथा पच्ची करते हुए हम अपनी जन्म तिथि को लॉक करना सीख गए तो उसी दिन से हमने जन्म तिथि को लॉक कर रखा है।

ऐसा करके बहुत चैन पड़ा अन्यथा हर वर्ष बहुत सारी बधाइयों के संदेशो का उत्तर देते देते 7-8 दिन तो निकल ही जाते थे।

हम सभी को तो अब केवल और केवल वही तिथि स्मरण रखनी चाहिए जिस दिन "श्री माँ" ने हम सभी को अपने "श्री चरणों" में स्थान दिया क्योंकि कुंडलिनी जागरण के बाद अब हमारा नया जन्म है।

और इस नए जन्म की वर्ष गांठ यदि हम वास्तव में मनाना चाहते हैं तो *अपने मध्य हृदय में उतर कर "श्री हृदयेश्वरी" के समक्ष उपस्थित इस संसार की समस्त जाग्रत-सूक्ष्म चेतनाओं' की दिव्य सामूहिकता के बीच गहन ध्यान की स्थिति में अपने चेतना पटल पर गहराती हुई 'अविचारिता' की अवस्था में अपनी ओर दृष्टि डाल कर यह 'अन्तरवलोकन' करें।

कि पिछले वर्ष से अब तक मेरी 'अंतःप्रज्ञा' में क्या कुछ बढ़ोतरी हुई है?

क्या "श्री माता जी" की 'अमृतवाणी' पहले से अब और भी अच्छे तरीके से मेरी चेतना आत्मसात कर पाती है ?

क्या मेरा अंतःकरण पिछ्ले वर्ष से और भी ज्यादा स्थिर शांत रहने लगा है ?

क्या मैं अब सत्य/असत्य को आसानी से पहचान पता हूँ ?

क्या मेरी अंतरात्मा की आवाज मुझे पहले से और भी अच्छे से सुनाई देने लगी है ?

क्या मुझको इस रचना के कण कण में "परमेश्वरी" की उपस्थिति का अनुभव हो पाता है ?

क्या मेरा चित्त मेरी चेतना हर पल हर घड़ी "परम" की ओर उन्नमुख रह पाती है ?

क्या मेरा अंतःकरण भोले-भाले सीधे-सच्चे मानवो के साथ होने वाले अन्याय को देख कर पीड़ा क्रोध से भर जाता है ?

क्या मेरे हृदय से हर पल संसार के कल्याण दुष्टों के संहार के लिए प्रार्थनाएं स्वतः ही निकलती हैं ?

क्या मेरे सम्पूर्ण अस्तित्व का रोम रोम मानवता,'प्रकृति' "परमात्मा" के विरोध में किये जाने वाले कृत्यों के प्रति तीव्र प्रतिक्रिया करता है ?

क्या मैं वास्तविक सत्य के खोजियों के आध्यात्मिक उत्थान में उनकी सहायता के लिए तैयार रहता हूँ ?

क्या मेरी चेतना में बाह्य जगत के प्रति रुझान निरन्तर घटता जा रहा है ?

क्या मैं अक्सर अपने सहस्त्रार मध्य हृदय में "श्री माँ" को 'दिव्य ऊर्जा' के रूप में अनुभव कर पाने में समर्थ होने लगा हूँ ?

क्या मैं अपनी 'आत्मा' को अपनी चेतना में महसूस कर पाने में सक्षम हूँ ?

क्या सांसारिक हानि-लाभ, मान-अपमान मेरे अंतः करण को प्रभावित करने में असफल रहते हैं ?

क्या मैं धीरे धीरे एकांतप्रिय होता जा रहा हूँ ?

क्या मैं इस संसार को साक्षी भाव में देख पाने की क्षमता हांसिल कर पा रहा हूँ ?

क्या मेरे भीतर पद, पैसा, प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि,प्रशंसा पहचान के प्रति अरुचि होनी प्रारम्भ हो गयी है ?आदि आदि।

यदि हमारी अंतरात्मा में उपरोक्त प्रकार के सूक्षम घटना क्रम घटित होने प्रारम्भ हो गए हैं।

तो हम निश्चित रूप में अपने हृदय के भीतर "श्री माँ" के प्रति कृतज्ञता को प्रगट करते हुए अपने इस 'पुनर्जन्म दिवस' को मनाने 'ध्यान यात्रियों' की शुभकामनाएं स्वीकार करने की योग्यता हांसिल कर चुके हैं।

वास्तव में "सहस्त्रार--महामाया" का कार्य स्वच्छता प्रेम से परिपूर्ण हृदय धारी सहज साधकों/साधिकाओं को उनके सहस्त्रार मध्य हृदय में स्थापित कर "परमपिता" के "श्री चरणों" में स्थापित होने की योग्यता प्राप्त करने में मदद करने का है।

जो पूर्ण मुक्त अवस्था की स्थिति में "श्री पारब्रह्म परमेश्वर" के हृदय में बैठने के अधिकारी बन अपने मोक्ष/निर्वाण को सुनिश्चित करने के प्रति कटिबद्ध हैं।

ऐसी सच्ची कामना रखने वाले गहन ध्यान अभ्यासियों के यंत्र को "अपने" प्रेम शक्तियों से पोषित करते हुए उनके सहस्त्रार मध्य हृदय में सदा के लिए स्थित रहने में "ये" मदद करती हैं।

*जिनके जीवन में 'आत्मिक उन्नति' 'चेतन' की सेवा ही सर्वोच्च प्रार्थमिकता पर होती है।*

यानि जो सहज ध्यान अभ्यासी "श्री निराकारा" के साथ एकाकारिता स्थापित कर पूर्ण समर्पण,भक्ति,लगन,इच्छा प्रेम के साथ सत्य के वास्तविक खोजियों के आंतरिक विकास आध्यात्मिक उत्थान में सहायता करते हैं।

"उनकी" सम्पूर्ण रचना का सम्मान करते हुए अत्यंत प्रसन्नता,उल्लास,आनंद स्वेच्छा के इस रचना को सुंदर बनाए रखने में अपना योगदान प्रदान करते हैं।

हम सभी को एक तथ्य अच्छे से आत्मसात कर लेना चाहिए कि,*हमारा सहस्त्रार, "सहस्त्रार--महामाया"द्वारा संचालित एक लांड्री है।जिसमें हमारे मन,चित्त,चेतना,जागृति,अंतर्चेतना,अंतःकरण रूपी वस्त्रों की धुलाई होती है।

जिससे हमारा आंतरिक अस्तित्व स्वच्छ हो सके और हम "परमपिता परमेश्वर" की गोद में बैठने "उनका" प्रेम पाने की योग्यता हांसिल कर सकें।

और "सहसत्रार--महामाया" हमारी धुलाई अच्छे से तभी कर पाएंगी जब हम सहस्त्रार मध्य हृदय में निरंतर बने रहते हुए।

इस लौकिक जगत के प्रति निर्लिप्तता बनाये रखने के लिए तीव्र इच्छा को धारण कर निरंतर चिन्तनरत रहते हुए समाधानी अवस्था में स्थित रहने लगेंगे।*

इस 'प्रवाह' के अंत में यह चेतना आप सभी के आध्यत्मिक उत्थान के लिए अनेकानेक शुभकामनाएं प्रेषित करते हुए "श्री माँ" से प्रार्थना करती है।

कि "वे"आप सभी को "सहस्त्रार--महामाया" की कसौटी पर खरा उतरने की सक्षमता प्रदान करें ताकि आपका यह अनमोल 'पुनर्जन्म' सफल हो सके।

और आप सभी अपने सहस्त्रार हृदय के प्रज्वलित दीपकों के प्रकाश में वास्तविक 'दीवाली' मना सकें।"


----------------------Narayan

"Jai Shree Mata Ji"


04-11-2021