Thursday, April 28, 2016

"Impulses"--282

"Impulses"

"छै चीजे संग्रह करने योग्य नहीं हैं यानि वायु, जल, धन, भोजन, प्रेम और ज्ञान।यदि इन सभी को लंबे समय तक के लिए रोका गया तो:-

i) वायु दुर्गन्ध उत्पन्न कर देगी।

Ii) जल में कीड़े पड़ जाएंगे।

iii) धन विभिन्न प्रकार के ऐब रूपी विकृतियों को उत्पन्न कर देगा।

iv) भोजन स्वास्थ्य को खराब कर देगा।

v) प्रेम घृणा का रूप ले लेगा।

vi) और ज्ञान अहंकार में परिवर्तित हो स्वम् को भी तकलीफ देगा और दूसरों का अपमान भी करेगा।"



(Six things are not supposed to be stored for a long time like, Air, Water, Money, Fresh Food, Love and Knowledge.

If we could not channelize these six things and retain them with us then:-

i) Air will get stale.

ii) Water will get bacteria.

iii) Money will ruin people by generating distorted addictions.

iv) Old Food will create health hazards.

v) Love will convert into hatred.


vi) And Knowledge will make us Ego-Eccentric and creat lots of troubles for ourself and it will try to insult others.")

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"Jai Shree Mata ji"

Tuesday, April 26, 2016

"Impulses"---281--"सोचना केवल एक जटिल समस्या"

"सोचना केवल एक जटिल समस्या" 

"हम सभी का आम बाह्य जीवन वर्तमान में घटित होने वाली किन्ही घटनाओं के आधार पर चलता रहता है जिसके कारण बीती हुई बातों के आधार पर हम कुछ कुछ 'तथाकथित भविष्य' के लिए निरंतर सोचते रहते हैं।और अपने द्वारा सोचे गए को सही मानकर भीतर ही भीतर कभी खुश हो जाते हैं तो कभी दुखी जिसके कारण हमारे स्नायू तंत्र पर बुरा असर पड़ता है और हम धीरे धीरे विभिन्न किस्म के रोगों के शिकार होने लगते हैं।

यदि गहनता से चिंतन करके देखा जाये तो हम पाएंगे कि हम वास्तव में मात्र 'भविष्य' के विषय में सोचने के कारण ही बीमार होते जा रहे हैं और दुखी भी हो रहे हैं। ये नहीं समझ पा रहे कि जिस भविष्य की चिंता में हम चिंतित है वो तो केवल और केवल भूतकाल की घटनाओं पर ही आधारित है जो कभी भी पुनः ठीक वैसे ही घटित नहीं होने वाला।

जो वास्तव में घटित होगा उसे हम ग्रहण नहीं कर सकते क्योंकि हम "ईश्वर" नहीं हैं जिन्होंने हमारा जीवन रचा है।यानि घोर अज्ञानता के कारण हम "ईश्वर" बनने का प्रयास कर रहे हैं और अपने भीतर "अहंकार" को ही बढ़ाते जा रहे हैं, क्योंकि भविष्य की घटनाओं को हम स्वम् ही रचने का प्रयास कर रहे हैं।

"माँ आदि" ने पांच तत्वों की सहायता से हमारे शरीर का निर्माण किया है और हमारे भीतर करोङो देवी देवताओं को स्थापित किया है जो हमारे द्वारा केवल वर्तमान को 'सत्य' के रूप में स्वीकार कर आनद के साथ जीने के लिए अपनी विभिन्न शक्तियों से हमारी मदद करते हैं जिससे हमारे अंग प्रत्यंग संचालित होते हैं।

और साथ ही नव-ग्रहों को हमारे ही भीतर स्थित नौ मुख्य केंद्रों पर स्थापित किया है जो हमारे पूर्व जीवनों के कार्मिक व्यवस्था के परिणाम स्वरूप प्राप्त हुए इस वर्तमान जीवन को कभी पुरूस्कार व् कभी सजा देकर संतुलित करते हैं।

इसके विपरीत हम जब अपनी सोचो पर आधारित भविष्य को सत्य मान कर व्यवहार करना प्रारम्भ कर देते हैं जिससे एक ओर तो ये समस्त गण-देवता 'निस्तेज' होने लगते हैं जिसके कारण शरीर के उन स्थानों को ऊर्जा मिलनी बंद होने लगती है और वो अंग रोगी होने लगते हैं।

दूसरी ओर ये नव-ग्रह हमारे द्वारा भविष्य-निर्धारण-कर्ता बनने के कारण हमसे क्रोधित हो जाते है और ये हमारे जीवन में अनेको विपरीत परिस्थितियों को जन्म देकर हमारे जीवन के लिए अनेको बाधाएं उत्पन्न कर हमे कष्ट पहुंचाते हैं ताकि हम सोचना छोड़ दें।

क्योंकि ये तो ईश्वरीय विधान से चलते है, ये हमारे द्वारा सोचों पर आधारित इस 'नए विधान' से नहीं चल सकते।क्योंकि यदि ऐसा होने लगे तो पूरी पृथ्वी पर हर मानव अपनी सोचो के मुताबिक एक नए विधान का निर्माण करके पूर्व-कर्म-परिणामों की व्यवस्था पूरी तरह बिगड़ देगा और विधि का विधान गड़बड़ा जाएगा।

अतःजब भी मानव 'भगवान्' बनने का प्रयास करता है तब' माँ प्रकृति', पंच-तत्व, समस्त गण-देवता व् समस्त ग्रह-नक्षत्र मिलकर उसको विभिन्न प्रकार के रोगों व् अन्य विधियों के द्वारा उसके जीवन को अंतत: पूर्णतया नष्ट कर ही देते हैं।

इस प्रकार से मानव को उसके "आध्यात्मिक उथान" के लिए मिले मानवीय जीवन रूपी "सुनहरे-अवसर" का भी अंत हो जाता है और उसकी "जीवात्मा" अनंत काल तक अनेकनेक कष्टो की भागी बनती है।"
-------------------Narayan

"Jai Shree Mata ji"

Friday, April 15, 2016

"Impulses"-280-"चित्त का विलक्षण कार्यान्वन"

"चित्त का विलक्षण कार्यान्वन" 

"यह अक्सर देखा गया है कि बहुत से "श्री माँ" के जागृत बच्चे अन्य सहजियों को 'आत्मसाक्षातकार' देने के कार्यों को करते देख कभी कभी असन्तोष से भर जाते हैं।क्योंकि किसी किसी वास्तविक कारणवश वो ये कार्य नहीं कर पाते।और सोचने लगते हैं कि हम किसी भी काम के नहीं हैं हमारे अंदर जरूर कोई बड़ी भारी कमी व् बाधा है जिसके कारण "श्री माँ" हमसे नए लोंगों को जागृति दिलवाने का कार्य नहीं ले रही हैं।

यह सब सोच सोच कर भीतर ही भीतर पीड़ा से कुम्हलाने लगते हैं जबकि उनके सहस्त्रार व् हृदय में "श्री माँ" लगातार प्रेम दे रही होती हैं और उनके सहस्त्रार व् हृदय में खिंचाव की बड़ी सुन्दर अनुभूति हो रही होती है।इतनी अच्छी स्थिति महसूस होने के वाबजूद भी उनके मन में एक अजीब सी कशमकश व् बैचेनी बनी ही रहती है जिसके कारण वो अक्सर उदास रहने लगते हैं और बार बार "माँ" से कार्य देने के लिए प्रार्थना करते रहते हैं।

वास्तव में ऐसी स्थिति से गुजरने वाले सहजी केवल बाहरी कार्य कर पाने के कारण अपने को निम्न समझने की भूल कर बैठते हैं जबकि ऐसी सुन्दर स्थिति प्रदान कर "माँ" उनसे सूक्ष्म कार्य संपन्न करा रही होतीं हैं। क्योंकि जब भी सहस्त्रार में तीव्र या हल्का खिंचाव होता है तब "माँ आदि" हमारे चित्त को इस खिंचाव की अनुभूति करा कर हमारा चित्त "अपनी" ओर ले जाती हैं और फिर किन्ही लोगों के विचार हमको देकर उन सभी लोगों के यंत्रों पर हमारे चित्त के माध्यम से कार्य करा रही होती हैं।

ऐसी दशा में हमें कुछ भी बाह्य रूप से करने की आवश्यकता नहीं होती है बल्कि पूरी एकाग्रता के साथ इस घटित होने वाले खिंचाव पर ही चित्त रखने की जरूरत होती है।चाहे ऐसे समय में हम कोई सांसारिक जीवन से सम्बंधित कोई काम ही क्यों कर रहे हों। हमें तो बस केवल और केवल हर स्थिति व् परिस्थिति में लगातार इस प्रगट होने वाली ऊर्जा को ग्रहण ही करते जाना है और अपनी चेतना की इस "अमृत पान" के सुन्दर अवसर का लाभ उठाते रहने में मदद ही करनी है।

आखिर समस्त सुयोग्य पात्रों को जागृति देने व् पाने का उद्देश्य क्या है ? यही , कि वो अपने मोक्ष व् निर्वाण के अधिकारी बनें व् साथ ही अपने अनुभवों को अन्य लोगों के साथ बांटते हुए उनको भी इस अप्रितम मार्ग पर चलाने में मदद करें। "प्रभु साधना" में रूचि रखने वालों की सूक्ष्म या स्थूल रूप में सहायता करने से उनके यंत्र में स्थित देवी-देवता प्रसन्न होकर हमें अपना प्रेम बढ़ती हुई ऊर्जा के रूप में प्रदान करते हैं जिसके कारण हमें अपने यंत्र में कई स्थानों पर तीव्र हलचल या खिंचाव की अनुभूति होती है।

और स्वत् ही हमारा चित्त उन स्थानों पर पहुँच कर हमें "श्री माँ" की 'दिव्य धाराओं' के आनंद में डुबोता जाता है, ऐसे दुर्लभ अवसरों का हमें पूर्ण एकाग्र होकर भरपूर लाभ उठाना चाहिए। बाह्य रूप से जागृति के कार्य में लग पाने की चिंता में ये अनमोल क्षण कभी नहीं गवाने चाहियें, बल्कि ये समझना चाहिए कि बाहरी रूप से आत्मसाक्षात्कार के कार्य करके भी तो हमें इसी आनंददायी अवस्था से गुजरना होता है।

ये सब भी तो "श्री माँ" के प्रेम का ही परिणाम है, ये उनकी मर्जी है की वो हमसे किस प्रकार से कार्य लेंगी। ऐसे 'दिव्य ऊर्जा' से भरे अवसर ऐसे ही होते हैं जैसे एक माँ अपने नन्हे से बच्चे को अपने हृदय से लगाती है, दुलारती है, और अपने आँचल में छुपा कर भरपूर प्रेम देती है। तो भला ऐसी स्थिति में बच्चे को बाह्य रूप से कुछ भी करने की क्या जरुरत है।बल्कि उसे तो चुपचाप "माँ" की गोद में लेटकर उनके प्रेम का भरपूर आनंद उठाना ही होता है।

पर यदि हम पाते हैं कि हमारे सहस्त्रार पर व् मध्य हृदय में ऊर्जा या खिंचाव नगण्य है या बिलकुल भी नहीं है तो कम से कम 5 नए लोगों की कुण्डलिनी चित्त की सहायता से जरूर उठायें व् विश्व की किसी भी समस्या पर भी कम से कम 5 मिनट के लिए चित्त जरूर डालें। और साथ ही किसी अच्छी स्थिति के सहजी के सहस्त्रार व् मध्य हृदय से कम से कम 3 मिनट के लिए चित्त की सहायता से जुड़ाव महसूस करें, तभी इस प्रकार की सुन्दर अनुभूतियाँ हमारे यंत्र में प्रगट होंगी और आपसी प्रेम भी बढ़ेगा "

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"Jai Shree Mata Ji"