Wednesday, May 11, 2011

चिंतन---33---माँ आदि की मौन अभिव्यक्ति----5

"दांया आगन्या चक्र"  

ii) दाहिने आगन्या चक्र में जलन या गर्मी की अनुभूति:- यह अनुभूति जब हमें होती है तो हम अनजाने में असत्य की धारणा के साथ जीवन जी रहे होते हैं यानि जो भी हम भविष्य के लिए सोच रहे हैं या सोचने की एक प्रवृति रखते हैं वो सत्य नहीं है. ये हमारी नकारात्मक भविष्य के बारे में सोचने के आदत को दर्शाता है. जब हम विचार कर रहे होते है तो प्रारंभिक अवस्था में गरम-गरम महसूस होगा और यदि उसी विचारी हुई बात पर निर्णय ले लेते है तो जलन की अनुभूति होती है. 


इसका मतलब 'आदि माँ' हमें गर्मी देकर बताना चाहतीं हैं की जो भी तुम सोच रहे हो वह गलत है. असत्य धारणा के कारण 'आदि शक्ति' की पवित्र ऊर्जा हमारे मस्तिष्क में प्रवाहित नहीं हो पाती,और यदि फिर भी हम उनकी बातों को न समझ कर उसी बात पर अपना निर्णय ले लेते हैं तो 'वो' जलन देकर अपना विरोध प्रगट करतीं हैं और साथ में चेतावनी भी देना चाहतीं हैं की यदि इसी विचार पर रहोगे तो तुम्हारे मस्तिष्क में गंभीर रोग हो सकता है जो की बांये दिमाग के द्वारा संचालित अंगो को नुक्सान पहुंचा सकता है. और इसके कारण ही हमारी दाहिनी नाडी यानि 'पिंगला नाडी' की समस्या उत्पन हो जाती है. 


भविष्य के असत्य विचारों के अत्याधिक घर्षण के कारण इस नाडी का ताप मान सामान्य से ज्यादा हो जाता है और खून का दौरा भी बढ़ जाता है जिसके कारण हाई-बी.पी की शिकायत हो जाती है और इसी के साथ हाई-पर-टेंशन और इन्ग्जाईटी भी बढ़ जाती है. जरुरत से ज्यादा तापमान से हमारी सूक्ष्म नसों व् नाड़ियों में लोच समाप्त हो जाता है और वे सख्त हो जाती हैं जिसके  कारण जगह-जगह दर्द भी हो सकता है. पिंगला नाडी जिस-जिस चक्र को भी प्रभावित करती है उन सभी चक्रों में कोई न कोई समस्या उत्पन्न अपने आप ही हो जाती है,अनेकों प्रकार की शारीरिक बीमारियाँ अपने आप ही लग जाती हैं. 


जो भी तकलीफ लेफ्ट आग्न्या चक्र के द्वारा हो सकती है लगभग इसी की उलट प्रकार की परेशानी राईट आग्न्या में भी इन लक्षणों के कारण हो सकती है.या हम ये भी कह सकते है की हम इस चक्र के मालिक 'श्री बुध" के वीपरीत सोच रहे हैं या भविष्य में करने की सोच रहे है.अत्यधिक भविष्य की  योजना बनाना इनके खिलाफ होता है. यानि कि हमारा सूक्ष्म शरीर 'माँ आदि शक्ति' के साथ जुड़कर इतना सक्षम हो जाता है की वो सत्य-असत्य दोनों को ही अपनी विभिन्न संवेदनाओं के द्वारा व्यक्त कर सकता है. 


iii) दाहिने आगन्या चक्र में भारीपन  का होना:- ये लक्षण तब ही उत्पन्न होते हैं जब हम कभी सत्य व् कभी असत्य के साथ चल रहे होते है. ये अक्सर तब होता है जब हम भविष्य-गत योजना बनाने के बारे में सोच रहे होते हैं और वह सोच परम सत्य के विपरीत हो तो इस प्रकार का भारी पन हमारे दाहिने आगन्या में प्रारंभ हो जाता है. यानि की 'परम शक्ति' हमें योजना बनाने से पहले ही आगाह कर रही हैं. यानि असत्य में फंसने से पूर्व ही हमें संकेत मिलने लग रहे हैं. 


यदि हमारा चित्त किसी इसी प्रकार की सोच रखने वाले व्यक्ति पर भी जायगा तो भी हमारा दाहिना आगन्या हमें भरी-पन दे कर तुरंत बता देगा और हम जान जायेंगे की फलां व्यक्ति की सोच प्रकृति व् परमात्मा के वीपरीत है. और जब हम अपने को ही जरुरत से ज्यादा महत्व देना शुरू कर देते हैं, हर समय केवल और केवल अपने फायदे के बारे में ही सोचते रहतें हैं, केवल अपनी जरूरतों को येन-केन-प्रकारेण पूरा करने के बारे में ही योजना बनाते रहतें हैं, और कभी-कभी तो इतना निम्न स्तर पर आ जाते हैं की किसी को भी कष्ट देकर अपना स्वार्थ पूरा करने पर उतारू हो जाते हैं तो निम्न लक्षणों के कारण भी ये बढ़ता जाता है तो हमें कभी-कभी चक्कर भी आने लगते हैं. जब ये हमारे स्वभाव में शामिल हो जाता है तो दाहिने आगन्या चक्र में दर्द की शिकायत बनने लगती है. 

iii) दाहिने आगन्या में दर्द का होना:-धीरे-धीरे कभी-कभी होने वाला दर्द अत्यधिक स्वार्थी  मन-स्थिति के कारण स्थाई होने लगता है. जो आगे चल कर 'आधा सीसी का दर्द'(माइग्रेन) बन जाता है. इस प्रकार के दर्द में व्यक्ति को बहुत तकलीफ होती है, वो सदा अँधेरे कमरे में ही रहना चाहता है, यदि सुई गिरने की आवाज भी हो तो उसे काफी पीड़ा होती है. ऐसी स्थिति में अक्सर उसे उल्टियाँ आने लगती हैं.जो उल्टी होती है वो दिमाग को नुक्सान से बचाने के लिए ही होती है. दिमाग की नसें पूरी तरह तन जातीं हैं. उसे ऐसा लगने लगता है मानो दिमाग फट जाएगा. यदि ऐसी विकट स्थिति लम्बे समय तक रहने लगे तो बाएं दिमाग के 'ब्रेन-स्ट्रोक' या ब्रेन-हैमरेज' के चांस भी बन जाते है. 

ये हालत तब भी पैदा हो सकते हैं जब कोई व्यक्ति बहुत ही ज्यादा अपने 'अहम्' से ग्रसित होकर दूसरे पर शासन करने की चाह रखने वाला, दूसरे से ईर्ष्या करने वाला, केवल अपनी ही प्रशंसा सुनने वाला, दूसरों को नीचा दिखाने की योजना बनाने वाला व् दूसरों को अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करने वाला हो जाता है. वो जब केवल अपने को ही श्रेष्ठ व् अन्यों को निम्न समझने लगे, बात-बात में अन्य लोगों पर अपनी श्रेष्ठता लादने लगे, पीठ पीछे लोगों की निंदा करने लगे , बिना किसी आधार के दूसरों पर झूठे आरोप लगाने लगे व् उनको सबके सामने बदनाम करने लगे, तो समझ लेना चाहिए की वह व्यक्ति बुरी तरह से "अहंकार" के चंगुल में फंस चुका है. 


ऐसे लोग 'शार्ट-टेम्पर्ड" हो जाते हैं, वो हर बात पर रिएक्ट करते और गुस्सा ही गुस्सा करते रहते हैं. इस प्रकार की उपरोक्त खूबियाँ, छमा कीजियेगा, अक्सर हमारी सहज संस्था के कुछ अधिकारीयों व् बड़े-कोर्डिनेटर में दृष्टि-गोचर होती हैं, और इन्ही लोगों से प्रभावित इसी प्रकार 'शासक' की प्रवृति रखने वाले अन्य सहजियों में भी दिखाई देती हैं, धीरे-धीरे इसी प्रकार की प्रवृति रखने वालों का एक समूह स्वत: ही विकसित हो जाता है जो सदा दूसरों पर शासन करने की ही सोचते रहते हैं और सच्चे हृदय से कार्य करने वाले साधकों के पीछे पड़ जाते हैं.  

कभी- कभी तो ऐसे लोगों का गुस्सा और आलोचना देख कर बहुत ही हंसी आती है और दुःख भी होता है. हंसी इसलिए आती है कि वो ये भी नहीं समझ पा रहा है कि दूसरा यदि तरक्की कर रहा है और वो आलोचना कर रहा है तो एक तरीके से वो उसी की बड़ाई ही कर रहा है. बुराई कर-कर के वो उन लोगों का भी ध्यान आकर्षित कर रहा है जो लोग उसे जानते भी नहीं है, और जब लोग बुराई सुनेगें तो जिज्ञासा वश उसके बारे में जानना भी चाहेंगे और जब वास्तविकता को जानेंगे तो बुराई करने वाले को ही'महा मूर्ख' कहेंगे, अक्सर वो लोग यही कहेंगे कि जिसकी ये व्यक्ति निंदा करता था वो कितना अच्छा है और कितना ईर्षालू है की इतने अच्छे इंसान से चिढ़ता है. यानि की बुराई करने वाला स्वम ही उन सबकी नजरों में गलत साबित हो जाएगा. और जो लोग उसकी निंदा को सुनकर बिना सही तथ्य को जाने निंदा करने में शामिल हो जायेंगे वो सभी 11 के 11 रुद्रों व् गण देवताओं  की "Hit List" में स्वत: ही आ जायेंगे. और बाद में इन सभी की नाराजगी के शिकार हो जाते हैं. और उन सभी को भारी कष्टों का सामना करना पड़ता है

और ऐसे लोगों को देख कर दुःख इसलिए होता है कि "श्री माता जी' ने हम सभी को अपने सहस्त्रार से जन्म दिया और न जाने कितने प्रकार की हम लोगों की गंदगी को अपने शरीर के भीतर खींच-खींच कर साफ़ करते हुए निरंतर कष्ट उठाती रहीं  और लगातार देवताओं के क्रुद्ध होने के वाबजूद भी हमें क्षमा दान दिलवाती रहीं. फिर भी कुछ लोग अपने अहम्-भाव के कारण 'उसी' माँ' के बच्चो को गिराने की चेष्टा करते रहते है. जो स्वम उन्ही के सहज साथी हैं. 'जिस विलक्षण माँ' ने कभी भी किसी के भी साथ किसी भी प्रकार का भेद-भाव नहीं किया  सभी को सामान रूप से प्रेम देते हुए सभी को उठाना चाहा 'उसी' 'श्री माँ' के प्रेम का ये लोग अज्ञानता की  गर्त में 'गर्क' होकर निरंतर अपमान करते रहते हैं. 


एक तरफ तो हर स्थान  पर खड़े होकर जोर-जोर से जयकारे  लगातें है,"बोलो आदि शक्ति माता जी श्री निर्मला देवी की जय" और दूसरी ओर उनके सामने ही (निराकार रूप ) प्रेम-मई, सीधे-सादे, भोले-भाले व् रात-दिन सहज कार्य में लगे,लोगों की तकलीफों को बांटने वाले,बड़े प्रेम से 'श्री माँ' से जोड़ने वाले, घर-घर में 'श्री माँ' के चित्र के रूप में 'श्री आदि माँ' को पहुँचाने वाले व् ध्यान की अनंत गहराईयों में साधकों को ले जाने वाले सुन्दर-सुन्दर सहजियों का ये लोग अपमान करने का व् गिराने का प्रयास करते हैं, हालांकि करने का सामर्थ्य नहीं रखते हैं

कायरों की तरह पीठ पीछे निंदा ही कर पाते हैं. और जब सामने होते हैं तो झूठे प्रेम का मुखोठा ओढ़ कर 'प्लास्टिक इस्माइल' के साथ 'जय श्री माता जी' बोलते हैं और तुरंत बाद किसी न किसी से बुराई में लग जाते हैं और या उस अच्छे सहजी के लिए नए-नए षड्यंत्र  रचते रहते हैं. यदि कुछ कहना ही चाहते हैं तो सामने नाम लेकर ही बोले तो बहुत ही अच्छा हो और यदि कोई चीज समझ नहीं आ रही है तो बातचीत से सुलझाई जा सकती है. अक्सर इस प्रकार की माइक पर उद्घोषनाएँ की जाती रहती है,"कुछ लोग सामूहिकता को खराब कर रहे हैं, कुछ लोग अपना ग्रुप बना कर लोगों को सम्मोहित कर रहे हैं, कृपया सभी सहजी बच कर रहें, कुछ लोग लेफ्ट-साइड का ध्यान करा रहे हैं, कुछ लोग गलत ध्यान करा रहे हैं, कुछ लोग 'तांत्रिक ध्यान' कराते हैं, कुछ लोग लेफ्ट- साइड-इड हैं, किसी भी अच्छे सहजी से चिढकर झूठी अफगाहें फैलाना शुरू कर देंगे कि फलां-फलां सहजी को 'श्री माता जी' ने सहज योग से निकाल दिया है, इत्यादि-इत्यादि."


जबरदस्ती तथ्य-हीन बाते करना, ऐसे लोग इस प्रकार का अनर्गल प्रचार इसलिए करते हैं कि कहीं दूसरे का प्रभाव हमसे ज्यादा न पड़ जाए, सहजी ऐसे अच्छे लोगों की बात न सुनने लग जाएँ. उन्हें सबसे ज्यादा चिंता अपने सहज-संस्था में अपने पद की होती है, वे केवल अपनी मान-बड़ाई के फेर में ही पड़े रहते हैं और अपना बेश-कीमती समय इन्ही जोड़-तोड़ में गवां देते हैं और अन्य सहजियों को भी सताते रहतें हैं. 


हम सभी की 'माँ' सभी मानवों को सहज में लाने के लिए ही आईं हैं सहज से बाहर निकलने के लिए नहीं, और यदि ऐसा है भी तो ये 'श्री माँ' और उस बच्चे के बीच का मामला है हम सभी बच्चों को इसमें पड़ने की जरुरत ही क्या है. यदि किसी को निकाला भी गया है तो 'श्री माता जी' का साइन किया हुआ पत्र  जरूर संस्था के पदाधिकारियों के पास होगा. तो जो किसी के भी बारे में बिना किसी के आधार के बोल रहे हैं तो हम उनसे जरूर पूछना चाहते हैं कि क्या उन्होंने ऐसा कोई पत्र देखा है. ऐसे पत्रों को तो सार्वजनिक किया जाता है. 

एक सच्चे सहजी को तो कुछ भी नहीं चाहिए वो केवल 'श्री माँ' की इच्छा के अनुसार नए लोगों को सहज से जोड़ता जा रहा है और पुराने सहजियों को ध्यान की गहनता में उतारता जा रहा है. उसको तो केवल एक ही धुन है की घर-घर में 'श्री माँ' कैसे पहुँच जाएँ. वो संस्था से कुछ भी नहीं लेता. जो भी उसे कार्य के लिए बुलाता है सहर्ष सारे सांसारिक कार्य छोड़-छाड़ कर दौड़ कर वहां पहुँच जाता है. आने-जाने का खर्च भी अपनी ही जेब से करता है. नए सहजियों को बांटने वाले 'श्री माँ' के चित्र  व् पेम्पलेट भी अपने पैसों से छपवाता है. किसी से कुछ भी नहीं चाहता केवल और केवल 'श्री माँ' का प्रेम ही लोगों तक पहुंचता है. 


ऐसे इमानदार सहजियों से भी संस्था के कुछ पदा-धिकारी व् कोर्डिनेटर बड़ी ईर्ष्या करते हैं और उसका बिना किसी आधार के  विरोध करते रहते हैं, यदि कहीं सहज का कार्य फिक्स भी हो गया है तो कोशिश करते हैं कि न हो पाए. उसके बारे में झूठी-सच्ची बाते उड़ाते रहतें हैं. हमारी चेतना के मुताबिक वास्तव में ऐसे ही लोग सहज-विरोधी होते हैं ये ही वो लोग हैं जो पूर्णत: 'श्री माता जी' के विरोधी हैं.

यदि ऐसे लोगों को किसी का कोई कार्य या ध्यान का तरीका गलत लगता है तो क्यों न एक दिन 'चैतन्य लहरी पत्रिका' को साथ लेकर सभी के सामने 'श्री माता जी' के समस्त लेक्चर्स के समस्त पहलुओं पर खुले दिल से बात चीत की जाए और एक दूसरे का ज्ञानवर्धन किया जाए तो कितना अच्छा हो. 


सहज योग व् ध्यान के तकनीकी व् तार्तिक पक्ष को डिस्कस किया जाए ताकि किसी भी प्रकार का कोई संशय शेष न रह पाए और ना ही कोई विवाद हो पाए. क्यों न एक वास्तविक सेमीनार रखा जाए व्  'श्री माता जी' के द्वारा प्रदत्त ज्ञान पर एक सामूहिक 'शास्त्रार्थ' किया जाए ताकि 'श्री माँ' के द्वारा बताई गई सभी बातों पर चर्चा हो सके और पूरा का पूरा सहजी समूह उस चर्चा में अपनी भागीदारी रख सके और साथ ही किस-किस ने किस प्रकार से 'श्री माँ' के ज्ञानं को महसूस किया, क्या-क्या अनुभूति की, इस पर एक गोष्ठी की जाए, और इसमें सभी सहजियों को अपने-अपने विचार रखने का अवसर मिले तभी तो यह सेमीनार कहलायगा. अभी सेमीनार शब्द बड़ा ही हास्य-पद लगता है, क्योंकि जो सेमीनार होते हैं उनमें सेमीनार जैसी तो कोई भी बात नजर नहीं आती है.

ये तो वास्तव में एक 'स्टेज-शो' होता है, या तो कई घंटे तक भजन ही चलते रहतें हैं, या फिर हस्पताल खुल जाता है और या फिर सहज संस्था के पदा-धिकारी 'श्री माता जी' के साथ कहाँ-कहाँ गए, क्या-क्या 'श्री माता जी' ने उनसे कहा, क्या-क्या चमत्कार उन्हें दिखाई दिए, कितने साल वे 'श्री माता जी' की सेवा में 'उनका' आशीर्वाद उठाते रहे,या फिर एक-दो घंटा तक 'प्रोटोकाल' को समझाया जाता रहेगा और खास तौर से जो हमारी 'युवा-शक्ति है, को मर्यादा में रहने का लेक्चर हर हाल में  दिया जाएगा मानो हमारी सहज की युवा-शक्ति बिलकुल पथ-भ्रष्ट हो गई है, और उनको सुधारना जरूरी है. 


जो बच्चे भाग-भाग कर सारे समाज में नए-नए तरीके खोज-खोज कर सहज योग को विकसित कर सकते हैं वे बेचारे हीन-भावना व् कन्फ्यूजन  का शिकार होकर रात-दिन अपने आप से ही संघर्ष करते रहते हैं. कोई भी उनकी पीड़ा को समझने को तैयार नहीं है.दुःख का विषय ये है की जो हमारे वास्तविक सहज योग के कर्ण-धार हैं उनके लिए कोई भी गहनता में उतारने का  कार्य नहीं कराया जाता है. जिसकी आज बेहद आवश्यकता है. इससे पीड़ित होकर हमारी युवा शक्ति अपनी कीमती उर्जा को भजनों व् डांस में लगाती रहती है. या फिर युवा-शक्ति की उर्जा का नकारात्मक इस्तेमाल कुछ  बड़े-बड़े कोर्डिनेटर के द्वारा होता है, खास तौर से सेमीनार के दौरान उनको कहा जाता है,


"देखो वहां जो गोल घेरा लगाकर कुछ सहजी बैठे हैं और उनको जो ध्यान कराया जा रहा है वो सहज-विरोधी है, जाओ जाकर पता लगाओ और उस सहजी को उठा कर बाहर कर दो." मानो 'हिटलर' राज आ गया हो कि इतनी दूर-दूर से आये लोग एक दूसरे से अपने अनुभव शेयर भी नहीं कर सकते, एक-दूसरे को ध्यान के नए-नए तरीके भी नहीं बता सकते, अपनी भावनाओं को एक-दूसरे के सामने भी नहीं रख सकते, एक-दूसरे से अपने-अपनी परेशानियाँ भी नहीं व्यक्त कर सकते, एक-दूसरे की पीडाओं को दूर करने के लिए कोई सलाह नहीं दे सकते. अरे ये कैसा सेमीनार है ? 


युवा शक्ति से अपने ही सहज साथियों की जासूसी कराइ जाती है. उनके कोमल हृदयों को 'विषाक्त' किया जाता है. और अक्सर धीरे-धीरे युवा शक्ति को भी इसमें मजा आने लगता है. और फिर इन्ही 'महान आत्माओं' के द्वारा इसकी-उसकी बुराई की जाती  है और 'श्री माँ' के द्वारा प्रदान किये गए 'प्रेम' का घोर अपमान किया जाता है. और ये सभी कूटनीति करने के बाद माइक पर खड़े होकर बड़े जोर-शोर से कहा जाता है कि "हम सभी को प्रेम बढ़ाना चाहिए, हम सब एक ही  'माँ' की संताने हैं, हमें रिलाईजेशन  के कार्य को आगे बढ़ाना  चाहिए," और दूसरी ओर इसी कार्य को आगे बढ़ाने में नित नए-नए अवरोध लगाये जाते रहेंगे. 


यदि कोई सहजी कहीं भी जाकर जाग्रति देने लगता है तो ईर्ष्या से ग्रसित होकर पुराने व् प्रभावशाली कोर्डिनेटर द्वारा  उस स्थान के कोर्डिनेटर को फोन करके कहा जाएगा कि "सहज का कार्य-क्रम करने के लिए 'परमिशन' क्यों नहीं ली, जिससे आप जाग्रति दिलवा रहे हैं वो लेफ्ट-साइड का ध्यान करते हैं वो गलत ध्यान सभी को सिखा रहे हैं. उसका चरित्र खराब है." उस अच्छे सहजी को किसी भी तरह बदनाम करना है चाहे झूठ-मूठ कुछ भी कहना पड़े. यह देख कर घोर आश्चर्य होता है कि जब सभी नए-पुराने सहजियों को ध्यान करने में बहुत अच्छा लग रहा होता है, उनको अच्छे वायब्रेशन आ रहे होते हैं और वो ध्यान की गहनता का आनंद ले रहे होते हैं तब भी ऐसे लोग उल्टा-सीधा बोलने में ही लगे होते हैं. 


कितने ही अच्छे सहजियों को ऐसे निम्नता से घिरे लोगों ने आंसुओं से रुलाया है और उनका जी भर के दिल तोडा है हमारे सामने ऐसे ढेरों उदहारण हैं, और वो भी पक्के सबूतों के साथ, अगर नाम लेना प्रारंभ करें तो लम्बी लिस्ट बनेगी और सभी ऐसे लोग बुरी तरह सभी के सामने शर्म-सार हो जायेंगे, परन्तु नाम इसी लिए नहीं ले रहे हैं कि हम सभी एक ही'माँ' की संताने हैं.  


इतना सब कुछ इन लोगों के द्वारा उल्टा-सीधा करने के वाबजूद भी उन पीड़ित सहजियों के हृदयों में अभी भी 'श्री माँ' के प्रेम की करुणा ऐसे लोगों के लिए बहती हैं और सोचते हैं कि एक न एक दिन 'श्री माँ' ऐसे लोगों का हृदय जरूर परिवर्तित कर देंगी लेकिन इस करुणा का मतलब 'कायरता' बिलकुल भी नहीं है. हम सभी साधकों को 'श्री माँ' ने 'संत-सिपाही' बनाया है. सच्चों के लिए हृदयों में अथाह प्रेम व् करुणा व् बुराइयों से घिरे हुओं के लिए बुराइयों को काट कर फेंकने के लिए ज्ञान व् शक्ति रूपी तलवार भी है. कभी भी एक जागरूक सहजी  इतना  नीचे  नहीं गिर सकता  जितना ये लोग अज्ञानता में गिरे हुए हैं. 


हम सब 'श्री माँ' से प्रार्थना करते हैं कि 'श्री माँ' ऐसे सभी लोगों को सच्चा ज्ञान प्रदान करें जिससे ऐसे लोग सहज को बढ़ाने में 'अवरोध न बनकर  सहायक सिद्ध हों. जैसा ये लोग कर रहे हैं ऐसा तो साधारण समाज में भी कोई करने का अधिकारी नहीं है. यदि कोई साधारण समाज में भी  जबरदस्ती 'किसी के चरित्र पर कीचड उछालता तो उस पर  सीधा मान-हानि का दावा ठोक कर केस कर दिया जाता. किसी को भी दीन-हीन समझने की भूल न ही की जाए तो अच्छा है. 


किसी भी ध्यान करने वाले या सहज संस्था में आने वाले को ये बिलकुल भी अधिकार नहीं है की वो किसी के व्यक्ति-गत जीवन या चरित्र के बारे में नकारात्मक टिप्पड़ी भी करे. जाने सभी लोग कितनी ही परेशानियों से घिरे होते हैं, जाने किस-किस तरह से अपना जीवन यापन करते हैं. हम सभी लोग अलग- अलग प्रकार के प्रारब्ध को साथ लेकर इस धरती पर जन्मे हैं, और श्री माँ' की अनुकम्पा से सहज योग में आये हैं. जब स्वम 'श्री माँ' ने हमें अपने 'श्री चरणों' में स्थान दिया है और 'वो' हमारे प्रारब्ध,वर्तमान और भविष्य के बारे में अच्छी तरह से जानती हैं, जो भी हमसे वो करवा रही हैं 'वो' सब जानती हैं, तो फिर क्यों ये बात ऐसे लोगों को समझ नहीं आती.

एक सहज साधक की तो बात ही छोड़ दीजिये, यदि एक 'वेश्या' भी 'श्री माँ' के शरणा-गत  होती है और वो यदि सेंटर भी आना  चाहे तो भी कोई भी उसे रोकने का अधिकारी नहीं है.सहज संस्था तो 'श्री माँ' का मंदिर है ये भगवान् को महसूस करने का पवित्र स्थान है.यहाँ आने के लिए किसकी हिम्मत है जो किसी को रोक दे. भगवान् के दरबार में जाने का तो हर प्रकार के मानवों का अधिकार है. सहज योग और सहज संस्था किसी की व्यक्ति-गत जागीर नहीं है, यदि कोई ऐसा समझता है तो कृपा करके अधिकार पत्र सबके सामने दिखा दे.

11 वर्ष हो गएँ हैं इन सभी मूर्खताओं से संघर्ष करते-करते, अब समय गया है इन सभी बेवकूफियों को रोकने का, अब यदि किसी ने भी ऐसा दुस्साहस किया किसी भी सहजी के निजी-जीवन या चरित्र के बारे में नकारत्मक प्रचार तो ऐसे इंसान को सेमीनार के बीचो-बीच या भरे चौपाल पर खड़ा करवा दिया जाएगा और उनसे वास्तविक तथ्यों के आधार पर अच्छी प्रकार से बात की जायेगी चाहे वो कोई भी होअत: किसी भी सहज साथी को रुलाने या सताने का प्रयास करें ये हम बच्चों की पहली व् आख़री चेताविनी है.

क्योंकि ऐसी घटिया सोच रखने वाले व्यक्ति सहजी तो छोड़ो इंसान कहलाने भी लायक नहीं हैं. जो वास्तविक सहजी होता है उसे तो बस रात-दिन अपने को स्वच्छ कर और ऊंचा और ऊंचा उठने की ललक होती है, वो स्वम बड़ी ही सुन्दरता से उठता है और अपने साथ औरों को भी उठाता है. उसको तो किसी का पद दिखाई देता है, उसे किसी की सांसारिक हैसियत दिखाई देती है, वो किसी के चक्र पकड़ कर किसी को बताता है और ही किसी के निजी जीवन में दखल देता है और ही किसी की बुराई की तरफ ही देखता है. वो तो बस केवल किसी का हृदय ही देखता है कि इसके हृदय में 'श्री माँ' के समाने की स्थिति बन रही है या नहीं. यदि कोई 'माँ' को अपने हृदय में बसाने को तैयार होता है तो वो जी-जान से उस पर मेहनत करता है और उसकी भीतर की पीडाओं से उसे मुक्त कराने में उसकी मदद करता है.
एक बात और यदि कोई भी किसी के लिए कुछ भी नकारात्मक कहना ही चाहता है तो मेहरबानी करके अपनी बात या ओब्जेक्शन लिखित में दें और जिससे शिकायत है उसको सभी के सामने बुलवाएँ ताकि उस समस्या पर सभी बैठ कर विचार कर सकें. ये नहीं की कायरों की तरह पीठ पीछे बुराई या बिना नाम लिए माइक पर उद्घोषनाएँ की जाएँ जिससे ये भी पता लग पाए कि किसके लिए बातें कहीं जा रहीं हैं. यदि एक ही परिवार के सदस्य हैं तो फिर गोल-मोल तरीके से क्यों उल्टा-सीधा प्रचार किया जा रहा है.
i) यदि किसी को हमारा चित्त की सहायता से चक्रों को साफ़ करना,व् सभी चक्रों के  भीतर 'माँ आदि' को महसूस करना, 
ii) चित्त की सहायता से किसी की भी कुण्डलिनी को जागृत करना, 
iii) आकाश व् अन्तरिक्ष में 'माँ आदि शक्ति की शक्तियों को ग्रहण कर के अपने सूक्ष्म शरीर को प्लावित करना, 
iv) चित्त की सहायता से दूसरों को 'माँ' का प्रेम देना,दूसरे सहजियों की तकलीफों में चित्त की सहायता से उन्हें मदद करना, 
v) चित्त की मदद से 'विश्व्यापी' समस्याओं को दूर करने के लिए चैतन्य को प्रवाहित करना, 
vi) चित्त की सहायता से सदा एक-दूसरे से जुड़ कर वास्तविक सामूहिकता का आनंद उठाना, 
vii) चित्त की सहायता से किसी भी स्थान पर 'श्री माँ' के प्रेम को बहा कर उस स्थान को पवित्र कर उस स्थान के स्थान देवताओं को 'श्री माँ' का प्रेम देकर उन्हें जागृत करना, 
viii) चित्त की सहायता से कण-कण में व्याप्त 'माँ आदि' को अपनी भीतर में ग्रहण कर ध्यान की गहराई में उतरना और शून्यता का आनंद उठाना,
ix) सभी मानवो के हृदय में 'श्री माँ' को महसूस करना  व् सभी सहजियों  को भी इन सभी स्थितियों का अनुभव कराना का तरीका यदि गलत लगता है तो


कृपया पधारिये आपका हृदय से स्वागत है,या फिर हमें आदेश दीजिये हम कुछ बच्चे सहर्ष सभी सहजियों के बीच आयेंगे खास तौर से सेमीनार में और ध्यान के अनेको तरीकों, जो स्वम 'श्री माँ' ने समय-समय पर बताएं हैं, उनकी आप सबके साथ चर्चा करेंगे, अनुभूतियाँ करेंगे,उनके लक्षण प्रस्तुत करेंगे ताकि समस्त प्रकार के विरोधा-भास् समाप्त हो सकें और यह प्रेम-मई 'सहज-धारा' जन-जन को लाभान्वित करती रहे और  'श्री माँ' के महान 'अवतरण' को सार्थक बनाती रहे

ये सुझाव हमने लग-भग दो वर्ष पूर्व एक पत्र के माध्यम से श्री सुरेश कपूर जी(कार्यकारिणी सेक्रेटरी सहज योग नेशनल ट्रस्ट) व् ले.जनरल श्री वी. के. कपूर जी(चेयरमैन सहज योग प्रचार प्रसार समिति इंडिया) को दिया था और आप लोगों ने इस पर काफी प्रयास किया और इसके सुधार के लिए कई पत्र समस्त राज्यों के कोर्डिनेटर के पास भी भेजे, परन्तु कुछ ऐसे पुराने तथा-कथित शासक हैं जिनके कानो पर जू नहीं रेंगती है और वो अपने को परिवर्तित करने को शायद बिलकुल भी तैयार नहीं हैं

हमारा तो ये मानना है कि सहज योग के रूप में 'श्री माँ' ने एक विश्व्यापी 'लौंड्री'(धोबी-घाट) खोली हैं और बड़े ही प्रेम से हमको स्वच्छ करती जा रहीं हैं और मानो कह रहीं हो,"चुप-चाप, आराम से बिना किसी हील-हुज्जत के  अपने को प्रेम धुलवाते चलो, स्वम भी धुलो और अन्य सभी की भी धुलने में एक-दूसरे की मदद करो,अभी तो 'मैं' आराम से धो रहीं हूँ वर्ना फिर 11 रुद्रों के द्वारा जोर-जोर से पटक-पटक कर धो दिए जाओगे. धुलना तो हर हाल में पड़ेगा ही." 'श्री माँ' ने अपने एक लेक्चर में कहा है,"You were in problem that's why you are here."



हमारी सभी ऐसे लोगों से विनम्र प्रार्थना है कि कुछ तो 'श्री माँ' का लिहाज करें. हम सभी सहज में अपना-अपना उद्दार करने के लिए आयें हैं और उद्दार का रास्ता 'आत्म-साक्षात्कार' देने से होकर ही जाता है बिना इसके सुधार संभव ही नहीं है, कृपया यदि कुछ भी नहीं कर सकते तो किसी को आरोपित न करें, आरोपित करने से पहले अपने-अपने गिरेबान में सच्चे हृदय से झांकें और फिर किसी के लिए भी बोलने का साहस करें. 


"श्री जीसस" के काल में एक स्त्री को समाज के लोग पापिन कह कर जब पत्थर मारने वाले ही थे तो 'जीसस' ने कहा था कि, "पहला पत्थर वो मारे जिसने आज तक कोई भी पाप न किया हो" और लोग जहाँ के तहां रुक गए थे किसी की भी हिम्मत उसके बाद पत्थर मारने की नहीं हुई. बेहद अफ़सोस की बात है कि यहाँ तो पाप और पुन्य की समस्या ही नहीं है केवल सहज का कार्य करने पर पाबंदी लगाने की बात है, यानी सर्वोत्तम कार्य करने पर भी आरोप लगाना. किसी भी 'श्री माँ' के बच्चे को  अपमानित व् प्रताड़ित न करें वर्ना बहुत ही कष्ट उठाने पड़ेंगे.
  
हृदय के इस प्रवाह को महसूस कर  बुरा मानने की जगह अपने-अपने हृदय पर सच्चे भाव से जरा हाथ रख कर चिंतन करके देखिये तो सही इनमे सच्चाई नजर आएगी. ये कोई आलोचना या शिकायत नहीं है बल्कि ये हमारे हृदय से फूटने वाली एक सामूहिक 'वेदना' ही है.हमने न जाने कितने ही सहजियों के साथ इस प्रकार का अत्याचार होने के बारे में जाना व् उन सभी की अनंत पीड़ा को महसूस किया है. और उस समय भी हमारे सामने यदि कोई भी "श्री माँ" या  सहज विरोधी कोई भी कार्य होता दिखा और यदि उस सहजी ने हमसे मदद लेनी चाहि तो हमने उसे नहीं होने दिया और न ही आज होने देंगे. 


हम आप सबसे विनम्र आग्रह करते हैं की कृपया सहज के तौर-तरीकों में सभी मिलकर  कुछ अच्छा सा परिवर्तन लायें ताकि 'हम सबकी माँ' जो हम सभी से आशा करतीं हैं वो हम सबके माध्यम से पूरा हो सके. सहज योग का रूप बिगाड़ने से कुछ भी हासिल न होगा बल्कि केवल और केवल पतन ही प्राप्त होगा और पीड़ा की पराकाष्ठ ही हाथ आएगी. 


लगभग 11 वर्ष पूर्व 'श्री माँ' ने हमें अपनी शरण में लिया था 'उनका' प्रेम पाकर हृदय धन्य हो गया था और साथ ही सहज परिवार ने जो प्रेम दिया उसका वर्णन करने के लिए हमारे पास शब्द नहीं हैं. ऐसा लगता था मानो हम स्वर्ग में रह रहे हों, उत्साहित होकर तुरंत ही जाग्रति के कार्य में लग गए और कुछ ही दिन में ये सभी समस्याएं आने लग गईं, पहले लीडर हुआ करते थे और उनमें से कुछ तो बहुत ही बड़े ताना-शाह थे, और आज उन्हें कोई भी पूछने वाला नहीं है, उनकी बहुत ही मिटटी खराब हो चुकी है.


उस समय तो ये हालत थी यदि किसी ने बिना उन साहब से पूछे किसी को जाग्रति दे दी या कोई भी जाग्रति का कार्य कर लिया तो बस उसकी खैर नहीं, उसके बारे में लोगों को डराया जाता था, अन्य सहजियों को धमकी दी जाती थी की यदि किसी भी सहजी ने उसके साथ कोई सम्बन्ध भी रख लिया तो उन लोगों को सहज से निकाल दिया जाएगा, उस बेचारे पर पूजा में जाने से भी रोक लगा दी जाती थी, अब ये सब थोडा कम हो गया है पर बहुत से स्थानों पर अभी भी वही हाल है. 

घोर आश्चर्य तो तब होता है कि कोर्डिनेटर के पद से हटने के वाबजूद भी वही 'महानुभाव' सत्ता चलातें हैं क्योंकि जो भी नया कोर्डिनेटर बना है वो भी उन्ही का ही हिस्सा है, अगला कोर्डिनेटर बनने के लिए नाम भेजना पड़ता है तो अगले कोर्डिनेटर का नाम भी वही शख्सियत भेजती है और बाद में कहा जाता है कि 'श्री माँ, ने उन्हें चुना है. क्योंकि यदि कोई भी सहज संस्था के लिए कार्य करना चाहता है तो 'श्री माँ' कभी भी किसी को मना नहीं करतीं हैं वो तो बल्कि यही चाहतीं हैं कि कोई भी सच्चे हृदय से संस्था का कार्य देखे, 


'आम' सहजियों को इन सब बातों से कोई मतलब नहीं होता है वो तो आते हैं और बैठ कर ध्यान करते हैं, भजन गाते हैं, ताली बजाते हैं, अपने चक्र साफ़ करते हैं, 'श्री माँ' का लेक्चर सुनते हैं, घडी देखते हैं, आरती के बाद जल्दी-जल्दी बंधन लगाते हैं, और तुरंत प्रशाद की लाइन में लगते हैं, लाइन में लगे-लगे सभी से "जय श्री माता जी" कहते हैं उनके हाल-चाल लेते हैं, कहते हैं की उन्हें देर हो रही है, और कुछ देर बाद चले जाते हैं. अक्सर हर पूजा व् सेमीनार अटेंड करते हैं, अपने-अपने घरों में जाकर समस्त प्रकार की क्लियरिंग करते हैं, कभी-कभी हवन व् पूजा इत्यादि अपने घरोँ में रखते हैं और सोचते हैं कि बस अब 'श्री माता जी' हमारा सब कुछ ठीक कर देंगी. 


परेशानी तो केवल उन्ही साधकों को है जो समाज के बीच में जाकर रात-दिन सहज का कार्य करना चाहते हैं और नित नई-नई खोज करके ध्यान के अनेकों तरीके विकसित करते हैं और अन्य लोगों को लाभान्वित करते रहते हैं, और हर समय यही सोचते रहते हैं की,"और कौनसा तरीका ध्यान या जाग्रति देने का रिसर्च कर स्थापित किया जाये की आसानी से नए लोग सहज को प्राप्त हों, और किस प्रकार से ध्यान किया व् कराया जाए की अन्य सहजी सरलता से गहनता को पायें." पर ऐसे ही जागरूक सहजियों से ही अक्सर संस्था चलने वाले लोगों को दिक्कत होती है. 


क्योंकि उनका 'अहम्' टकराता है, वो सभी सदा यही सोचते रहते हैं कि 'सहज योग' तो हम ही चलातें हैं, ये हमसे पूछ-पूछ कर व् हमारा  मान-मन्नोवल करके क्यों नहीं कार्य करते. और इसी शासन के कारण वे अपना कीमती समय गहराई बढाने के स्थान पर व्यर्थ कर देते हैं और लगातार पिछड़ते जाते हैं और हीन-भावना से ग्रसित होकर कर्मठ लोगों को ही तकलीफ देते रहते हैं. और ये सच्चाई वो भूल जाते हैं की सर्व-प्रथम सभी सहजी 'श्री माँ' के कोर्डिनेटर हैं, और बाद में कुछ सहजी सहज संस्था के कोर्डिनेटर या पदाधिकारी बनते हैं. अत: कहीं-कहीं तो पिछले 15-20 वर्षों से उन्ही महानतम लोगों के द्वारा शासन किया जा रहा है.ऐसे भ्रमित शासकों को हम बच्चे याद दिलाना चाहते हैं की,"जरा वो पहला 'शुभ दिवस' याद करें जिस दिन 'श्री माँ' ने उनको अपने 'श्री चरणों' में स्थान दिया था उस समय वो कैसी अवस्था में थे."

जब हम सभी नई से नई सुविधाओं वाली कार, व् अच्छी से अच्छी  सुविधा युक्त मोबाईल खरीदना चाहतें हैं तो ध्यान के नए व् आसान तरीके क्यों नहीं खोजना चाहते, यदि कोई खोजता है तो क्यों उसे नकारते हैं. यदि पुराने तरीके ही आजमाने हैं तो फिर 'आष्टांग योग' में ही क्या बुराई है, वो भी तो उस काल के मुताबिक ठीक ही था, इसी प्रकार से काल के परिवर्तन के साथ-साथ सहज योग में भी परिवर्तन लाने होंगे और इसको आसान बनाना होगा तभी ये विश्व्यापी हो पायेगा. अगर हम सभी 'श्री माता जी' के लेक्चर्स का ही गहनता से अध्यन करें तो पायेंगे कि 1970 से लेकर इस काल तक "श्री माता जी" ने अपने लेक्चर्स के माध्यम से कितना सहज-योग को परिवर्तित कर दिया. 5 मई 2008 की 'गुरु-पूजा में 'श्री माँ' ने कितने संकेत आगे बढ़ने के हमें  दिए हैं, और यदि हम उन संकेतों को न उतार पायें तो हम वास्तव में पिछड़ जायेंगे. 

जिस प्रकार के ध्यान का  कुछ लोग विरोध कर रहे हैं उस प्रकार के ध्यान के बारे में तो 'श्री माता जी' बरसों पहले कह चुकीं. यदि हम उन तरीकों को न अपना पायें तो इसमें हमारी ही कमी है. ये तो वही बात हो गई कि हम तो अपनी पुरानी एम्बेसेडर कार ही चलाएंगे, हम तो यात्रा के लिए घोडा बग्गी ही चुनेंगे, हम तो अपने कंप्यूटर पर अभी भी Window 95 ही चलाएंगे, हम तो अभी भी मेंडक की तरह टर्राने वाला फोन ही इस्तेमाल करेंगे. अरे भाई ये तो अपनी- अपनी पसंद है कि कौन क्या तरीका इस्तेमाल करता है, कौन क्या साधन इस्तेमाल करता है. इसके लिए नाराजगी या झगडे जैसी कोई बात ही नहीं है. 


ध्यान का कोई भी तरीका अपनाया जाए उसका तो एक ही मकसद होना चहिये कि किसी न किसी तरह लोगों की  'माँ कुण्डलिनी" लगातार उठती ही रहें. यदि 'कुण्डलिनी माँ' उठ पा रहीं हैं तो वो तरीका ठीक ही है. आटा-चावल तो वही हैं न अब चाहे उनसे कोई भी डिश अपनी पसंद से बनाये  मकसद तो खाने से ही है न. और ये तो कोई बात नहीं होती है यदि लोग इसपे भी पाबंदी लगा दें कि बस केवल रोटी ही खाओ या चावल ही खाओ. ध्यान का कोई भी तरीका दवाई की तरह पेटेंट नहीं किया जा सकता. ये तो सरा-सर अप्राकृतिक बात है. 

गाडी कोई सी भी ले लो मकसद तो यात्रा करने से ही है. और ये आपकी अपनी पसंद है कि पुरानी तकनीक की गाड़ी ले या लेटेस्ट 'हाई-ब्रिड' कार लें. और ये भी आपकी अपनी ही इच्छा है कि आप पुरानी Window 95 पर काम करें इससे आप को कोई भी नहीं रोक सकता, हां; इतना अवश्य है कि पुरानी 'विंडो' पर नए सॉफ्ट-वेअर लोड नहीं किये जा सकते. अत: हम सभी एक-दूसरे का सम्मान करें,और 'श्री माँ' के द्वारा दिए गए अति-सुन्दर मार्ग को और भी आसान-सुलभ व् जन-जन का हितेषी बना दें जिससे सारा विश्व इस दिव्य मार्ग से लाभान्वित हो सके.और हम सभी एक सुन्दर परिवार के रूप में विकसित हो सकें. जब अपने ही सांसारिक परिवार में भी सभी व्यक्ति विभिन्न रुचियों वाले होते हैं तो इस 'विलक्षण परिवार' में क्यों नहीं हो सकते.

छमा चाहूँगा, कि दाहिने आगन्या चक्र का  ये भाग थोडा विस्तृत हो गया, आप सभी सोच रहे होंगे कि हम कहीं और ही तो नहीं बह गए. ऐसा बिलकुल भी नहीं है, ये सारा का सारा पक्ष ही राईट आगन्या का ही अंग-प्रत्यंग है, यदि हम पूरी तरह से सूक्ष्मता को अनुभव करना चाहतें हैं तो इसकी सभी बारीकियों व् प्रतिक्रियायों से भी गुजर कर  देखना होगा ताकि इसको अच्छी प्रकार से समझ सकें. और साथ ही एक जागरूक साधक होने के नाते हमारा कर्तव्य भी है कि अपनी अनुभूतियों को आप सभी के सामने रख सकें और जो भी इनमे से आपकी मतलब की हों ले ले और जो समझ न आये तो न अपनाएँ. हम आज, एक 'श्री माँ' का बच्चा होने के नाते आप सभी व् 'श्री माता जी' से ये वादा भी करतें हैं कि इस जागरूकता की 'मशाल' को यथा-संभव जलाये रखने का प्रयास करते रहेंगे चाहे हमारा ये शरीर रहे या न रहे. 

वास्तव में 'अहंकार' सदा सीमित ज्ञान के परिणाम स्वरुप ही जन्मता है. जब भी कभी किसी भी साधक का संपर्क वैचारिक जड़ता के कारण 'माँ आदि शक्ति' से कट जाता है और उसको सहस्त्रार व् मध्य हृदय के माध्यम से ताजा-ताजा ज्ञान(ऊर्जा) मिलना बंद हो जाता है तभी ये 'अहंकार रूपी' रोग प्रगट होता है. जैसे कि एक 'तालाब' का संपर्क उसके स्रोत से कट जाए तो उसका पानी 'सड़ने' लगता है और उसमें से दुर्गन्ध आने लगती है, ठीक इसी प्रकार से दाहिने आगन्या चक्र का जब  'माँ आदि शक्ति' से प्लावित नहीं हो पाता तब ही और सडन व् दुर्गन्ध के रूप में 'अहंकार' ही प्रगट होता है.


क्योंकि जो भी कुछ एक साधक ने पाया और उसके बाद उसका सम्बन्ध 'तकनीकी रूप ' से 'माँ आदि' के साथ नहीं रहा, और पुराना ज्ञान उसके बांये आगन्या चक्र में सुरक्षित  हो गया, और इसी सुरक्षित ज्ञान के आधार पर राईट आगन्या प्रतिक्रिया करता है तो इस प्रकार से जड़ता ही  उत्पन्न होती है. क्योंकि जो भी आपके पास साधन होता है केवल उसी का ही तो आप इस्तेमाल कर पाते हैं.

जैसे कि यदि किसी कंप्यूटर में लोड 'एंटी-वायरस' को यदि 'इंटरनेट' के जरिये अपडेट न करें तो वह कुछ ही दिनों तक कार्य करता है और उसके बाद वो बेकार हो जाता है,और बाद में बिना डिलीट करे हुए नया एंटी-वायरस ड़ाल दें तो वही पुराना एंटी-वायरस खुद एक वायरस बन जाता है और कंप्यूटर को नुक्सान पहुंचाता है. ठीक यही घटना सहज संस्था में अत्यधिक कर्म-कांडो में 'जड़' सहजियों के कारण घटित होती है और ऐसे लोगों के कारण सभी अच्छे सहजियों, सहज संस्था व् सहज योग को काफी नुक्सान होता है. तो ऐसे लोगों को चाहिए की अपने ज्ञान को सदा तारो-ताजा रखे, स्वम भी लाभान्वित हों व् औरों को भी लाभ उठाने दें.   


ये सभी कुछ जो लिखाया गया है किसी की भी भावना को चोट पहुचाने के लिए नहीं है वरन चोटिल हृदयों व् अनियंत्रित आगन्या को राहत देकर उन्हें वास्तविकता से जोड़ने व् इस सहज-ज्ञान रूपी 'अदभुत रथ' को बड़े प्रेम के साथ आगे बढ़ाने के लिए ही है. जो भी हमारी चेतना सबके लिए उडेलना चाहती है वही इसमें घोला गया है यदि ठीक लगा हो तो अपना लेना और यदि पसंद न आये तो अज्ञान समझ कर छोड़  देना. इसके लिए मुझे कोई खेद नहीं होगा., क्योंकि ये भीतर की आवाज है.  


हम सभी बच्चे 'श्री रोमिल जी' के हृदय से आभारी हैं जो वास्तव में एक सच्चे खोजी हैं, जो सहज में न होते हुए भी वास्तव में सहज योगी ही हैं, क्योंकि 'श्री माता जी' की समस्त इच्छाओं  और 'माँ' की बातों की सूक्ष्मताओं को सभी के सामने बार-बार लाते रहते हैं और वास्तविक सहजियों का 'मनोबल' बढ़ाते रहतें है.
  
अहंकार शब्द वास्तव में दो शब्दों से मिल कर बना है. 

"अहम् +ओंकार , अहम् कहता है कि मैं ही 'ओंकार' हूँ."


........to be continued

....................Narayan


"Jai Shree Mata Ji"