Saturday, August 25, 2018

"Impulses"--460--"धर्म/अधर्म"


"धर्म/अधर्म"

"आजकल हमारे देश में चारों तरफ व् मिडिया में धार्मिक भेद-भाव व्  वाद-विवाद बढ़ते ही जा रहे हैं। 

कोई सारे संसार के लोगों को मुसलमान बनाने के लिए 'जेहाद' के नाम पर 'काफिरों' का कत्लेआम करता है,

कोई 'ईसाई' बनाने के लिए पैसा बरसा कर गरीबों को खरीदता है,

कोई 'निस्वार्थ सेवा भाव' में 'गुरुबानी' के जरिये 'सिख' होने के लाभ गिनाता है,

कोई 'साधना तपस्या' के द्वारा 'बौद्ध' बनाने की इच्छा रखता है,

कोई विभिन्न प्रकार के त्यागों 'स्व-पीड़न' के द्वारा 'जैन' के रास्ते पर चलाना चाहता है,

तो कोई 'सनातन प्रथा' प्रचलित कर 'हिंदुओं' में शामिल करने की सोचता है।

पर इन सबमें कोई भी ऐसा नहीं जो इंसान को वास्तव में 'इंसान' बनाने की बात करता हो।

जबकि जिन 'महान' विभूतियों ने वक्त की जरूरत के मुताबिक अलग अलग काल में स्थापित इन रास्तों पर चलकर "ईश्वर" से जुड़ने की व्यवस्था की।  

'उन्होंने' कभी इन सभी को धर्म का दर्जा नहीं दिया।

बल्कि 'उन सभी' ने तो केवल और केवल मानव-धर्म की ही बात की।

क्या कभी भी इन सबने ये चिंतन किया है कि,

'जीवात्मा'(रूह=Soul) खुद ही अपने लिए 'घर' और 'बाहरी धर्म' चुनती है उस 'इंसान' को जीने के लिए।"


-----------------------------------Narayan

"Jai Shree Mata Ji"  🤔

Tuesday, August 21, 2018

"Impulses"--459--"कुछ निर्थक प्रश्न"


"कुछ निर्थक प्रश्न"


"ये बहुतायत में देखा जाता है कि नए सहजी जब भी पहली बार पुराने सहजियों से आपस में मिलते हैं तो पूर्व कंडीशनिंग के कारण कुछ प्रश्न एक दूसरे से अक्सर पूछते हैं।

जो वास्तव में सहजी होने के नाते बिल्कुल निर्थक होते हैं।क्योंकि हम सभी इस सहज रूपी आंदोलन में "श्री माँ" के द्वारा किसी भी प्रकार के लौकिक कार्यों लाभ के लिए जोड़े ही नहीं गए हैं। वो मुख्य प्रश्न हैं:-

1.आप क्या करते हैं ? :-

जब भी दो सहजी आपस में मिलते हैं वो ये वो ये प्रश्न एकदूसरे से अक्सर पूछते हैं। जिसकी वास्तव में कोई जरूरत ही नहीं होती है।
यदि हम "श्री चरणों" में शरणागत हैं तो हम सबके तीन मुख्य कार्य होते है,

i) अन्य लोगों की कुण्डलिनी उठाना।

ii) जिनकी कुण्डलिनी उठाई जा चुकी है यदि वो लोग सहज में स्थापित होना चाहते हैं उनकी सहायता करना।

iii) जो भी पुराने/नए लोग ध्यान में गहनता प्राप्त करना चाहते हैं उन सभी से अपने अपने अनुभव, चिंतन अनुभूति को शेयर करना ताकि यदि कहीं पर भी वो अटके हैं तो उससे मुक्त हो जाएं और आगे बढ़ें।

अतः हमें किसी भी सहजी से उसके जीविकोपार्जन के बारे में जानने की कोई आवश्यकता ही नहीं है।

क्योंकि अक्सर किसी सहजी के आर्थिक स्तर को जानने के उपरांत या तो हम अज्ञानतावश मानसिक रूप से हीनभावना से ग्रसित हो सकते हैं।

अथवा स्वम् को उक्त सहजी से श्रेष्ठ समझने की भूल कर सकते हैं। या सम आर्थिक स्थिति के कारण उसे अपने समकक्ष समझ कर उससे बाहरी मित्रता बढ़ाने के उत्सुक हो सकते है।

तीनो ही दशाओं में हम आंतरिक रूप से आध्यात्मिकता से हटे ही रहते हैं।क्योंकि हम इन तीनो ही स्थितियों में केवल और केवल एक आम लौकिक परिपाठी ही अपना रहे हैं।

वास्तव में सहज-साधना से जुड़ा होने पर हमें किसी भी सहजी के चेतना से जुड़े कार्यो को ही महत्व देना चाहिए।

दुर्भाग्य से आजकल अधिकतर सहजियों के बीच आर्थिक स्तर को अधिक महत्च दिया जा रहा है इसका असर सहज-सेंटर में होने वाले ध्यान-कार्यक्रमों में अक्सर देखा जा सकता है।

ज्यादातर आर्थिक रूप से अधिक सम्पन्न सहजी ही "श्री माता जी" को फूलों का हार पहनाते नजर आएंगे।

या वो सभी हवन/पूजा को सम्पन्न कराने के लिए उपलब्ध होंगे मानों अधिक आर्थिक संपन्नता ही "श्री माँ" को प्रसन्न करने का एक मानक बन गई है।

किन्तु यदि ध्यानस्थ अवस्था में गहन चिंतन करके देखा जाय तो ये अनुभव होगा कि जो सहजी धन को अधिक महत्व देते हैं उनके इस मानसिक विकार को दूर करने के लिए ही "श्री माँ" उन्हें अग्रणी बना कर उनसे ये सब कराती रहती हैं।

क्योंकि जब वो सभी सबसे आगे बैठते हैं तो सभी सहजियों का चित्त उन पर जाता है और उनकी सामूहिक ऊर्जा उन के यंत्र में जाती है और उनके आंतरिक विकारों को दूर करने की प्रक्रिया घटित होती है।

2.आप किस बिरादरी के हो ?:-

ये दूसरा, सबसे अधिक पूछा जाने वाला प्रश्न है, क्योंकि अभी भी अनेको सहजी जात-पात, गोत्र, बिरादरी प्रथा में विश्वास करते है।

ये विकार भी उनके अहंकार को पोषित करने आपस में भेदभाव करने का एक और मध्यम बन उनकी चेतना को अधोगति की ओर धकेलता जाता है।

विशेष तौर से सहज-विवाह में भी बिरादरी देखने का विकार अभी भी अधिकतर सहजियों के मन-मस्तिष्क में विद्यमान है जो केवल और केवल हानि ही पहुंचाता है।

जबकि "श्री माँ" सदा यही कहती हैं कि तुम सब समान हो एक ही "माँ" की संतान हो फिर भी ज्यादातर सहजी पूर्व कुसंस्कारों के कारण बिरादरी वाद में फंसे ही रहते हैं।

3.आपके घर में कौन कौन पारिवारिक सदस्य सहज में हैं ?

ये तीसरा सबसे ज्यादा पूछा जाने वाला प्रश्न है कि एक सहजी के घर में कितने सहजी बन गए है।

यदि पूछने पर किसी सहजी से उत्तर मिले कि उसके घर के सभी सदस्य सहज में हैं तो पूछने वाले सहजी के मन में दो प्रकार की प्रतिक्रियाएं होती हैं।

पहली प्रतिक्रियावश अक्सर पूछने वाला सहजी अंदर ही अंदर उदास हो जाता है कि वो कितना अभागा है जो उसके घर के लोग सहज में नही पाए हैं।जरूर तेरे भीतर कोई कमी है जिसके कारण "श्री माँ" की कृपा दृष्टि तेरे परिवार पर नहीं पड़ रही।

और दूसरी प्रतिक्रिया वश पूछने वाला अपने आप को अन्यों के मुकाबिले अत्यंत गौरान्वित श्रेष्ठ महसूस करता है कि "श्री माँ" उस पर अत्यंत मेहरबान हैं जो उसके परिवार के समस्त सदस्य सहज में गए है।

मानो एक सहजी के लिए अपने घर के सभी सदस्यों को सहज में लाना अत्यंत आवश्यक हो। ऐसा होने पर अन्य सहजी उसे बड़े ही शक की निगाह से उसे देखते हैं मानो वो सहजी सहज में स्थापित ही नहीं है।

ऐसा प्रतीत होता है कि समस्त घर के सदस्यों को सहज में लाने वाले सहजी को ही ज्यादातर सहजी गहन उच्च मानते हैं। जबकि वास्तविकता में किसी भी सहजी की गहनता उसके पारिवारिक सहजी सदस्यों से मापी ही नहीं जा सकती।

बल्कि इसके विपरीत मेरी चेतना के मुताबिक वो सहजी अत्यंत गहन उच्च स्तर का है जो अपने समस्त पारिवारिक सदस्यों के भारी विरोध के वाबजूद भी पूर्ण धैर्य प्रेम के साथ 'चेतना जागृति' के कार्यों को बिना किसी 'शिकायत बहाने' के निरंतर संलग्न है।

क्योंकि इस स्थिति में उसका "श्री माँ" के प्रति अडोल विश्वास, अगाध श्रद्धा, तीव्र लगन समर्पित भक्ति ही प्रगट हो रही है जो अमूमन समस्त सहजी परिवार के 'सहजी' में परिलक्षित नहीं होती है।

ये अक्सर देखा गया है कि जिन सहजी के परिवार के समस्त सदस्य सहज में होते हैं वो ध्यान में उच्च स्तर को प्राप्त नहीं हो पाते।

क्योंकि वो हर सहज के आयोजन कार्यक्रम को मात्र एक रीति-रिवाज के रूप में ही लेते हैं।उन विशेष अवसरों पर गहन ध्यान में उतर ही नहीं पाते।

ऐसे सहजी जरा सी भी विपरीत परिस्थितियों स्थितियों के आते ही भीतर से पूर्णतया छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और उनका "श्री माँ" के प्रति विश्वास भी तुरंत गड़बड़ा जाता है।

वो अधिकतर अपने अपने परिवार के सदस्यों के लिए अन्य सहजियों से 'बंधन' 'प्रार्थना' का निवेदन करते नजर आते हैं।

जबकि इसके विपरीत वह सहजी जिसके परिवार में सहज या "श्री माँ" का विरोध होता है, विपरीत हालातों में बिल्कुल भी नहीं घबराता बल्कि उसका "श्री माँ" के प्रति समर्पण विश्वास हर तकलीफ में बढ़ता ही जाता है।

ऐसा सहजी विपत्ति के समय किसी से भी बंधन प्रार्थना की याचना नहीं करता वरन उन विरोधी विकट परिस्थितियों को "श्री माँ की इच्छा मान कर सहर्ष स्वीकार करता है।

वही ही तो, "श्री माँ" का सच्चा सिपाही बनता है क्योंकि "श्री माँ" शक्तिशाली आत्म-बल से लबरेज सहजियों को ही अपनी भारी भरकम शक्तियां प्रदान करती हैं।

क्योंकि आत्मिक रूप से कमजोर सहजी तो उन शक्तियों को धारण करने योग्य ही नहीं होते। हम सभी को ये अच्छे से अपनी चेतना में उतारना है कि' 'कुण्डलिनी' तो "श्री माँ" समस्त मानवों की हम सभी से उठवा सकती हैं।

किंतु सहज में वही आएगा जिसका 'प्रारब्ध' वर्तमान काल में 'सहज-साधना' के अनुकूल तैयार हो चुका है। यानि यदि किसी व्यक्ति ने कक्षा 10 उत्तीर्ण की है केवल वही कक्षा 11 में प्रवेश पाने योग्य हो सकता है।

4.आप कितने साल से सहज कर रहे हैं:?

ये प्रश्न भी सहजियों के बीच आपस में अत्यदिक पूछा जाता है कि आप कितने वर्षों से सहज में स्थित है। कई बार तो ऐसा प्रतीत होता है कि सहज में बिताए गए अनेको वर्ष ही किसी सहजी की गहनता का प्रमाण बनने जा रहे है।

इस धारणा के चलते ज्यातर नए सहजी बिना अपने हृदय की अनुमति के किसी भी पुराने जड़ सहजी का अंधानुकरण करना प्रारंभ कर देते हैं और अपने आध्यात्मिक विकास को अवरुद्ध कर अनेको प्रकार की यंत्रणाओं के भागी बनते हैं।

उदाहरण के लिए यदि किसी सहजी को "श्री माँ" अब से 30-35 बर्षो पहले लाई है तो उस काल में जितनी उसकी चेतना विकसित थी उसी के मुताबिक ही "श्री माँ" ने उनके भीतर उस काल में सहज-ज्ञान उतारा।

और यदि उक्त सहजी ने अपनी चेतना को अपने सहस्त्रार मध्य हृदय से जुड़कर अपडेट नहीं किया है तो वह निश्चित रूप से वर्तमान काल में उन्नत होने के लिए प्राप्त होने वाली 'आत्मज्ञान' में डूबी प्रेरणाओं से वंचित होकर आत्मिक प्रगति में पिछड़ जाएगा अन्य नए सहजियों की आंतरिक प्रगति को बाधित ही करेगा।

क्योंकि वह केवल और केवल अपने पूर्व काल की मन के कोष में संचित सूचनाओं पर ही आश्रित रहेगा और जड़ता के साथ नए सहजियों को भी केवल वही सहज के तौर तरीके अपनाने के लिए बाध्य करेगा।

अतः नए सहजियों को अपने स्वम् के ध्यान में मध्य हृदय सहस्त्रार की अनुभूति को महसूस करते हुए जो हृदय से प्रेरणाएं प्राप्त हों उन्ही का अनुसरण करते हुए इस 'सहज-यात्रा' पर अग्रसर रहना चाहिए अन्यथा ध्यान में उत्थान ठीक प्रकार से घटित नहीं होगा।

यदि हम अपने मोबाइल कम्प्यूटर को निरंतर अपग्रडे करते रहें तो आज के वर्तमान काल के लिए उपयुक्त नए नए सॉफ्ट वेयर का लाभ हम नहीं उठा पाएंगे

वास्तव में जो भी लोग आज के काल में "श्री माँ" के शरणागत हो रहें हैं उनकी चेतना 30-35 साल पुराने सहजी से निश्चित रूप से उन्नत है।

अतः हमें उन नए लोगों को आज के अनुसार सरल सुगम ध्यान के तरीके ही बताने कराने चाहियें केवल तभी ही उन नए लोगों को उचित लाभ हो पायेगा।

5.क्या आप "श्री माता जी" से साक्षात मिले हैं ?:-

ये भी एक बड़ा ही कॉमन प्रश्न है जो नए सहजियों के द्वारा एक दूसरे से अक्सर पूछा जाता है। जब भी कभी किसी सहज कार्यक्रमों में नए सहजियों को जाने का अवसर मिलता है तो ये उपरोक्त प्रश्न भी उनकी जिज्ञासाओं में शामिल होता है।

बड़े ही चाव जिज्ञासा से नए सहजी, पुराने सहजियों से ये प्रश्न पूछते हुए मिल जाते हैं। उनको ऐसा लगता है कि जिन सहजियों ने "श्री माँ" को साक्षात देखा है वो बहुत ही भाग्यशाली उच्च अवस्था के हैं।

ये बात सोच सोच कर नए सहजी अक्सर भीतर ही भीतर व्याकुल हो जाते हैं और सहज में देर से आने के लिए स्वम् को कभी कभी कोसते भी हैं।
क्योंकि बताने वाले बड़े ही गर्व से "श्री माँ" के सानिग्ध्यय में बिताए पलों की चर्चा अक्सर करते भी रहते है।

साक्षात "श्री माँ" के साथ कार्य करने वाले सहजी अक्सर सहज कार्यक्रमों में स्टेज पर खड़े होकर "माँ" की गतिविधियों बातों को बड़े उल्लास आनंद के साथ बताते हुए मिल जाते हैं।

कि कैसे कैसे "श्री माँ" ने स्वयम उनको ज्ञान प्रदान किया, किस किस प्रकार से उनकी बाधाओं को स्वम् "अपने" द्वारा दूर किया उन्हें "अपने" "श्री चरणों"में स्थापित भी किया।

वास्तव यदि ऊपरी तौर से देखा जाय तो है भी ये आनंद गौरव की बात कि स्वयं "श्री माँ" ने कुछ सहजियों को अपने साथ रखा। निश्चित रूप से वो समस्त चेतनाएं अत्यंत भाग्यशाली ही है जिन्हें "श्री माँ" के साक्षात दर्शन "श्री माँ" का साथ प्राप्त हुआ है।

किन्तु ये बात बिल्कुल भी उचित नहीं हैं कि "श्री माँ" के दर्शन सानिग्ध्यय पाने वाले सहजी ही ऊंचे दर्जे के सहजी हैं। क्योंकि तकनीकी आध्यात्मिक रूप से सत्य बिल्कुल इस धारणा के विपरीत है।

इस चेतना के चिंतन के अनुरूप "श्री माँ" ने केवल उन्ही "जीवात्माओं" को उनके आध्यात्मिक उत्थान के लिए "अपने स्थूल शरीर" के निकट रखा जिनकी आंतरिक स्थिति अत्यंत शोचनीय थी।

यानि कि जो सहजी अपने स्वम् के ध्यान के द्वारा उन्नत होने का सामर्थ्य नहीं रखते थे।

यानि जिनके चक्रों नाड़ियों की स्थिति अत्यंत क्षीण थी, उन्ही सहजियों को "श्री माँ" ने अपने साक्षात स्वरूप के साथ रख कर "अपने" बाह्य स्वरूप के 'ऊर्जा क्षेत्र' के द्वारा उन सहजियों के 'आध्यात्मिक/शक्ति केंद्रों को खोल कर उन्हें अपना "प्रेम" प्रदान किया ताकि उनका ये जीवन सार्थक हो जाये।

क्योंकि वो समस्त पुराने सहजियों के यंत्र उस काल में "श्री माँ" के "निराकार" स्वरूप की शक्तियों को ग्रहण करने योग्य ही नहीं थे। जैसे कि त्रेता युग में 'पाषाण' बनी 'अहिल्या' को "श्री राम" ने अपने "श्री चरणों" के स्पर्श से तारा।

यानि अहिल्या का सूक्ष्म यंत्र इस कदर क्षीण जड़ हो चुका था कि उसकी स्वयम की अथक साधना भी उसको 'चेतना' की मुख्य धारा से जोड़ने में अक्षम थी।

अतः जिन सहजियों को "श्री माँ" के साक्षात दर्शन हो पाए हो अथवा "श्री माँ" का सानिग्ध्यय प्राप्त नहीं हुआ है वो सभी दुखी पीड़ित हों।

बल्कि ये सोच कर आनंदित प्रसन्न हों कि उनका यंत्र इस इतना उन्नत रहा है कि "श्री माँ" को उन्हें "अपने" नजदीक रखने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी।

ऐसे नए सहजियों को "श्री माँ" ने डायरेक्ट अपने "वास्तविक निराकार स्वरूप" से जोड़कर उन नए सहजियों का उद्धार ही किया है।

ध्यान में तीव्रता से उन्नत होने के लिए उनकी आंतरिक गहनता क्षमता के आधार पर ही इस वर्तमान काल में "अपने" "श्री चरणों" में आने का अवसर प्रदान किया है।

ऐसे समस्त नए सहजियों को भीतर ही भीतर आनंदित प्रफुल्लित रहना चाहिए कि "श्री माँ" ने अपने कण कण में व्याप्त "सर्व्यापी" स्वरूप से उन्हें जोड़ा है।

अपने वास्तविक भक्तों को यही स्थिति को प्रदान करने के लिए ही तो "उन्होंने" "माँ निर्मालां" के रूप में अवतार लिया।

यदि हम "उनके" "निराकार" स्वरूप के सानिग्ध्यय का आनंद अपने सहस्त्रार मध्य हृदय में उठाने के अभ्यस्त हो जाएंगे तभी तो हम "उनके" अगले 'अवतरणों' में "उन्हें" आसानी से पहचान पाएंगे।

अन्यथा "उनके" साक्षात स्वरूप तक सीमित होकर हम कभी भी किसी भी जन्म में "उनका" प्रेम आशीर्वाद नहीं पा पाएंगे। वो बात और है कि "श्री माँ" अपने तक हम सबको पहुंचाने पहचानने की कोई नई व्यवस्था कर दें, ये "उनकी" अपनी इच्छा होगी।

किन्तु हमें पूर्ण गंभीरता श्रद्धा के साथ गहन ध्यान में स्थित रहकर अपने सहस्त्रार मध्य हृदय से जुड़कर वर्तमान काल के लिए प्राप्त होने वाले सूक्ष्म मौन प्रेरणा रूपी संदेशों के अनुसरण के द्वारा अपना कर्तव्य कर्म पूर्ण करना ही चाहिए।"

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."Jai Shree Mata Ji"