Thursday, August 9, 2018

"Impulses"--457--"सहजियों के बीच व्यापारिक/व्यावसायिक सम्बन्ध"


    "सहजियों के बीच व्यापारिक/व्यावसायिक सम्बन्ध" 

"ये अक्सर देखने में आता है कि कुछ सहजी आपस में एक दूसरे के साथ व्यापारिक/व्यावसायिक सम्बन्ध बनाने को तत्त्पर रहते हैं। वो सोचते हैं "श्री माँ" के बच्चे होने के कारण व्यापारिक/व्यवसायिक विश्वसनीयता के साथ साथ पैसे का लेनदेन भी अच्छे से चलेगा।

साथ ही कुछ आर्थिक लाभ भी हो जाएगा क्योंकि सहजी होने के कारण कुछ कुछ रियायत भी औरों के मुकाबिले ज्यादा मिलेगी। यदि कोई वस्तु/सेवाओं में कोई कमी/दिक्कत भी जाती है तो भी उसका समाधान आपसी समझ के कारण आसानी से हो जाएगा।

क्योंकि दोनों ही सहजी होने के नाते एक दूसरे की इच्छाओं भावनाओं का सम्मान भी अवश्य करेंगे। कुछ सहजी बीमा कराने का कार्य करते है, तो वे तो यही देखते रहते कि किस सहजी से मिले जिससे वो बिना मेहनत दिक्कत के उनका बीमा कराकर अपने टारगेट पूरा करें।

क्योंकि वो जानते हैं कि जिस सहजी से भी वो बीमा कराने के लिए कहेंगे वो शर्म शर्म में आवश्यकता होते हुए भी उसका मान रखने उसकी मदद करने के लिए करा लेगा।

कोई कोई सहजी तो डायरेक्ट सेलिंग कम्पनी के मैम्बर/डीलर बन कर उस कम्पनी के प्राडक्ट सहजियों के बीच ही बेचना प्रारम्भ कर देते हैं और लाभ का लालच देकर उन्हें भी उक्त कम्पनी का मैम्बर/डीलर बना डालते हैं।

जिसकी परिणीति अंत में अधिकतर आपसी सम्बन्धों में खटास के रूप में ही होती है। और कुछ सहजी सहज का खूब कार्य करते हैं जिसके कारण अनेको नए लोग उनसे सहज ध्यान के द्वारा जुड़ जाते हैं और उन सहजियों के नजदीक भी हो जाते हैं।

बाद में वो सहजी कोई व्यावसायिक/ व्यापारिक कार्य प्रारम्भ करके उन नए सहजियों के साथ आर्थिक लेनदेन भी शुरू कर देते हैं और मन चाहा लाभ कमाते हैं।

और तो और कुछ सहजी अपने प्राडक्ट को सहजियों के बीच सुगम तरीके से बेचने के लिए 'सहज योग' का उपयोग एक विज्ञापन की तरह करते हैं जिससे उनका ज्यादा से ज्यादा समान ज्यादा से ज्यादा लाभ पर बिक जाए।

क्योंकि उनका समान खरीदने वाले सहजी उनके समान को बिना मोल भाव के बड़ी ही श्रद्धा से खरीदते हैं। उस श्रद्धा की भावना के कारण समान बेचने वाला सहजी बाजार की तुलना में काफी ज्यादा लाभ कमाता है।

और कुछ लोग "श्री चरणों" मे आने के उपरांत "श्री माँ" के द्वारा जागृत किये गए स्वाधिष्ठान चक्र के कुछ गुण रूपी कला को सहजियों के बीच बेच कर लाभ कमाते देखे जाते हैं।

वास्तव में "श्री माँ" सहज ध्यान के माध्यम से हमें इस सांसारिक जीवन चक्र से मुक्त ही करना चाहती हैं। हमें अच्छे ये तथ्य जानना चाहिए कि "वो" जिन लोगों को भी "अपने" "श्री चरणों" में लाई हैं वो अपने अपने पूर्व प्रारब्ध के अनुसार एक दूसरे के प्रति आपसी लेनदेन से मुक्त हैं।

यानि समस्त सहजी आपस में एक दूसरे के ऊपर पूर्व जीवनों के किसी भी प्रकार के आर्थिक सांसारिक ऋणों के भारों से मुक्त हैं। हम सभी को समझना चाहिए कि जो भी अन्य सहजी हैं जिनसे हम आर्थिक सम्बन्ध जोड़ने जा रहे हैं वो भी मुक्ति की ओर ही अग्रसर हैं।

अतः उनसे आर्थिक सम्बन्ध जोड़कर पुनः एक नए सांसारिक प्रारब्ध का निर्माण कर इन लेनदेन को उतारने के लिए अगला जन्म लेने की बाध्यता में स्वम् उलझ कर अन्य को भी उलझाना एक दूसरे की मुक्ति के मार्ग में रोड़ा ही डालना होगा।

हमें उन्ही लोगों से व्यापारिक/व्यावसायिक सम्बन्ध बनाने चाहिए जो लोग सहज से जुड़े हों क्योंकि हम सभी को अपने पूर्व जीवनों के पैंडिंग आर्थिक लेन देन को संतुलित/समाप्त कर मुक्त होना है।

क्योंकि ये बात सुनिश्चित है कि सम्पूर्ण विश्व के सभी मानव सहज योग में नहीं आने वाले। अतः जिन लोगों के पूर्व जीवनों के ऋण हम पर होंगे अथवा हमारे पूर्व जीवनों के ऋण उनपर होंगे, 'माँ प्रकृति' स्वतः ही उन लोगों से हमारे व्यवसायिक/व्यापारिक सम्बन्ध बनवा देंगी।

हम सभी को ज्ञात होना चाहिए कि सहज ध्यान के जरिये आध्यात्मिक उत्थान की व्यवस्था "श्री माँ" ने एक दूसरे के साथ 'निर्वाजय प्रेम पोषण' के द्वारा ही रखी है।

एक दूसरे के हृदय से एक दूसरे के लिए प्रवाहित होने वाला 'आत्मिक प्रेम' ही एक दूसरे की शक्ति बन कर एक दूसरे के उत्थान की व्यवस्था करता है।

जब अज्ञानता वश हम एक दूसरे सहजी के साथ व्यापारिक/व्यावसायिक सम्बन्ध बना लेते हैं तो सबसे पहले कुठाराघात इसी 'दिव्य प्रेम ऊर्जा' के प्रवाह पर ही होता है जिस कारण यह 'प्राणदायिनी शक्ति' अवरुद्ध होने लगती है।

जिसके कारण एक दूसरे के प्रति हृदय में रहने वाला प्रेम घटना प्रारम्भ हो जाता है क्योंकि अब उन दोनों की चेतना लाभ/हानि के चक्कर में पड़ जाती है और उस पर 'मन' का शासन हो जाता है।

जब हम किसी के बारे में अपने हृदय से सोचते हैं तो दोनों के ही हृदय में नवीन ऊर्जा का संचार होता है। और इसके विपरीत जब हम एक दूसरे सहजी के लिए अपने आगन्या का उपयोग करते हैं तो हृदय में स्थित 'पवित्र ऊर्जा' का सागर शुष्क होने लगता है।

जिसके कारण एक दूसरे के प्रति आत्मिक प्रेम सम्मान में भी कमी आने लगती है उक्त दोनों यंत्र एक दूसरे को ऊर्जा प्रवाहित करने के स्थान पर एक दूसरे की ऊर्जा शोषित करने लगते हैं।

परिणाम स्वरूप दोनो पक्ष एक दूसरे को आध्यात्मिक सांसारिक रूप से अधोगति की ओर ही ले जा रहे होते हैं। वास्तव में जो भी सहजी ऐसा सोचकर एक दूसरे के साथ व्यापारिक/व्यवसायिक सम्बन्ध बनाना चाहते हैं या बना चुके हैं।

तो उन्हें कुछ बातों पर अवश्य गम्भीरता पूर्वक विचार चिंतन अवश्य करना चाहिए अन्यथा अनंत काल जन्मों तक अनेको प्रकार की मानसिक आर्थिक पीड़ाओं से गुजरना होगा।

और यदि हो सके तो उपरोक्त सम्बन्ध बनाये ही जाएं तो बहुत ही अच्छा होगा। क्योंकि सहजियों के बीच व्यापारिक/व्यवसायिक सम्बन्ध अंततः एक दूसरे के लिए मानसिक यंत्रणा/आर्थिक हानि का ही कारण बनेंगे।

यदि ये संबंध पहले ही बन चुके हों तो कोशिश करनी चाहिए कि एक दूसरे से लाभ प्राप्त करने के स्थान पर एक दूसरे के प्रति 'निर्वाजय-प्रेम-पूरित' आत्मीयता बनाये रख सकें।

उक्त सहजी के साथ व्यापार/व्यवसाय यदि करना ही पड़े तो 'नो प्रॉफिट नो लॉस' वाले सिद्धान्त का पालन करते हुए केवल और केवल सेवा भाव ही रखें।

क्योंकि "श्री महा माया" एक दूसरे सहजी को एक दूसरे सहजी से लाभ कमाने ही नहीं देंगी।अंततः इस प्रकार के व्यवसायिक/व्यापारिक सम्बन्धों में कई प्रकार का नुकसान ही उठाना होगा।

"माता प्रकृति" ने हम सभी के लालन पालन के लिए धन-उपार्जन की व्यवस्था 'सच्ची लगन, पूर्ण ईमानदारी हृदय से किये गए श्रम के द्वारा कर रखी है।

यदि हम इन तीनो विभूतियों में से किसी एक का अथवा इन तीनो का उपयोग किये बिना कमाना चाहेंगे तो हम पर निश्चित रूप से अनेको प्रकार के आर्थिक/शारीरिक/मानसिक संकट बनें ही रहेंगे।

क्योंकि "परमात्मा" के द्वारा सुनिश्चित हमारे कर्म का सिद्धांत ठीक प्रकार से कार्यान्वित नहीं हो पायेगा। जब हम सहजियों से व्यापार/व्यवसाय करते हैं तो ये हमारे कर्म-सिद्धान्त' के प्रतिकूल कार्य करता है।

क्योंकि सहजियों के साथ कोई भी व्यापारिक/व्यावसायिक गतिविधियों में हम बिना श्रम लगन के ही लाभ प्राप्त करते हैं जो प्रकृति की कर्म- सन्तुलन व्यवस्था को बिगाड़ देता है।

जिसके परिणाम स्वरूप कुछ देवी देवता हमसे रुष्ट होने लगते हैं और वो हमें अनेको प्रकार की पीड़ाएँ देकर हमें समझाना चाहते है।

सहजियों के आपसी व्यवसाय/व्यापार के कारण उनके 'महा लक्ष्मी तत्व' के सिद्धांत में भी बाधा उत्पन्न होने लगती है।जिसके फलस्वरूप एक सहजी 'दाता' वाले अस्तित्व से वंचित ही रहता है।

और दाता भाव जागृत होने के कारण उसका 'शिव तत्व' भी जागृत नहीं हो पाता जिसके फलस्वरूप 'आत्मिक ज्ञान' का सदा अभाव बना ही रहता है और उसका बेश कीमती समय जो आध्यात्मिक उत्थान में लगना था पूर्णतया व्यर्थ हो जाता है।

जब हम अपने सांसारिक नजदीकी रिश्तों से किसी भी प्रकार का लाभ कमाने की इच्छा नहीं रखते अपितु उनको किसी किसी रूप में लाभान्वित करना ही चाहते है।

तो फिर सहजियों से, जो "श्री माता जी" के अनुसार हमारे सच्चे भाई-बहिन हैं, उनसे क्यों कर लाभ कमाना चाहते हैं ? इस चेतना का आप सभी से विनम्र आग्रह है कि एक बार गहन ध्यान अवस्था में अवश्य चिंतन करके देखें।

सहजियों में आपसी व्यापार/व्यवसाय करने के लिए तो "श्री माता जी" भी अपने एक लेक्चर के माध्यम से पहले ही मना कर चुकी हैं। इस चेतना के इस 'आत्मप्रवाह' का उद्देश्य आपस में व्यापार/व्यवसाय करने वाले सहजियों को भयभीत करना दुख पहुंचना नहीं है।

बल्कि बड़े प्रेम, आत्मीयता अपनेपन से इन सूक्ष्म तथ्यों को आप सभी के बीच रखकर आप सभी के 'आत्मिक विकास' में उन्नत होने की हृदय से कामना करना ही है।"

--------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"


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