Thursday, September 21, 2017

"Impulses"--403--"सतर्कता"

"सतर्कता"

"हममे से अधिकतर लोग अक्सर ध्यान के विषय में अपने अपने चिंतन या अनुभव के माध्यम से किसी भी तथ्य या बात पर लिखते हैं या बोलते हैं।

तो हमें लिखते हुए या बोलते हुए अपने सहस्त्रार व् मध्य हृदए में 'दिव्य ऊर्जा' को महसूस करते हुए पूर्ण जागरूक रह कर ये सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि हमारी चेतना कहीं 'आत्मा' से प्रभावित होने के स्थान पर 'मन' की जकड़न में तो नहीं है।

यदि हमारी चेतना मन के अधीन रहेगी तो निश्चित रूप से 'असत्य' की ओर ही ले जाएगी और यदि 'आत्मा' की ओर उन्नमुख होगी तो केवल और केवल 'सत्य' का ही प्रसार करेगी।

अगर हम जाने अनजाने में सत्य के साथ चिंतन के दौर से गुजर रहे हैं तो चिंतन के परिणाम स्वरूप हमें स्वम् को एवम पढ़ने/सुनने वालों को भीतर में आनंद, उल्लास व् सुकून प्राप्त होने के साथ साथ समाधान भी प्राप्त होंगे।


इसके विपरीत यदि लिखते या बोलते हुए किसी भी नकारात्मक भावना के वशीभूत होकर हमारी चेतना असत्य के आवरण में लिपटी होगी तो स्वम् हमें व् अन्य पढ़ने/सुनने वालों को अपने हृदए में घुटन व् असंतोष महसूस होगा जो इस बात का प्रतीक होगा कि हमारी चेतना दूषित हो गई है।"

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".Jai Shree Mata Ji"

Monday, September 18, 2017

"Impulses"--402--"चक्र-पकड़-भ्रम"

"चक्र-पकड़-भ्रम" 


"एक बहुत ही हास्यपद मजेदार बात सारे सहजियों में प्रचलित है। वो है, दूसरे के चक्रों की पकड़ के बारे में अन्य सहाजियों के बीच जोर-शोर से चर्चा करना। वास्तव में अक्सर होता ये है कि ज्यादातर सहजी किसी अन्य सहजी के बारे में इधर उधर से कुछ नकारात्मक सुन लेते है। और बिना जांचे परखे उसे सच मान लेते हैं जबकि वो सूचना अक्सर झूठ ही होती है।

फिर इसी झूठ को बिना सत्य की कसौटी पर परखे वो अन्य सहाजियों से शेयर कर कर के आगे बढ़ाते जाते हैं। धीरे धीरे उस झूठ की यात्रा आगे बढ़ती ही जाती है और वो झूठ सत्य के रूप में कुछ सहाजियों के बीच स्थापित हो जाता है। हकीकत में वो झूठ किसी ईर्ष्यालु के मन की ही उत्पत्ति होता है, और ज्यादातर ईर्ष्या करने वाला सहज संस्था में किसी किसी पद पर बना होता है या कोई काफी पुराना सहजी होता है।

वो ईर्ष्या भाव रखने वाला सहजी किसी अच्छे व् सच्चे सहजी से उसके द्वारा किये गए अनेको जागृति के कार्यों के कारण चहुँ ओर अनेको सहाजियों के द्वारा की गई प्रशंसा के कारण हींन भावना से ग्रसित हो जाता है। और हींन भावना से घिरकर वो उस "माँ" के अच्छे बच्चे को सभी की नजरों में गिराने के लिए उसके बारे में झूठी अफगाहें फैलाने में लग जाता है।

ये झूठ, सुनने वाले अनेको सहज साधक/साधिकाओं के मन-मस्तिष्क में माने गए सत्य के रूप में सुरक्षित हो जाता है। जब भी अनेको सहजी उस अच्छे सहजी के बारे में नकारात्मक चर्चा करते है तो सर्वप्रथम सभी का चित्त अनजाने में अपने ही में मन में संचित हुई झूठी सूचना पर ही जाता है।

जिसके कारण उनको अपने स्वम् के चक्रों में पकड़ महसूस होती है और अज्ञानता में उस पकड़ को वो उस सहजी के चक्र की पकड़ के रूप में ले लेते हैं।चक्र की पकड़ को महसूस करते हुए वो ये भूल जाते हैं कि उनके खुद के चक्र ही झूठी सूचना के कारण पकड़ का शिकार हो गए हैं। क्योंकि हम सभी का सूक्ष्म यंत्र केवल और केवल सत्य को ग्रहण करने से ही ठीक प्रकार से संचालित होता है और असत्य को धारण करने के कारण चक्रो व् नाड़ियों में पकड़ को प्रगट करता है।

इसीलिए असत्य को सत्य मान लेने के कारण उन्ही के ही तो चक्र पकड़ें जा रहे है। किन्तु इस सूक्ष्म तथ्य को उनके द्वारा समझ पाने के कारण वो सभी सहजी उसी अच्छे सहजी को ही पकड़ का दोषी ठहराने लगते हैं।और वे अपने चक्र को ठीक करने के बजाय दूसरे को आरोपित करके व् उसके बारे में नकारात्मक चर्चा करके अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री कर लेते हैं।

तथा असत्य तथ्य को अपने भीतर सदा के लिए धारण कर लेते हैं।जिससे उनका सूक्ष्म यंत्र बाधित हो जाता है और उन्हें बार बार क्लीयरिग करते रहना पड़ता है।

इसके विपरीत यदि वास्तव में किसी सहजी के चक्र पकडे हो और हमें अपने यंत्र में उन पकडे हुए चक्रों की प्रतिक्रिया महसूस हो रही हो।तो ये हमारी जिम्मेदारी बन जाती कि अपने मध्य हृदए व् सहस्त्रार से जुड़कर "माँ" की ऊर्जा को महसूस करके उस सहजी के चक्रों पर चित्त रखकर अपने मध्य हृदए से प्रेममई ऊर्जा को प्रवाहित करें ताकि "श्री माँ" की 'शक्ति' उनके चक्रो को पकड़ से मुक्त कर सके।

या फिर उक्त सहजी पर चित्त रखते हुए अपने सूक्ष्म यंत्र पर प्रगट होने वाले पकडे गए उनके चक्र विशेष की उंगलियों के पोरवों पर अपने अंगूठे को गोल गोल घुमा कर चक्र को बाधा मुक्त करें। ऐसा करने पर ही हमें अपने चक्रो की पकड़ से मुक्ति मिल सकती है। क्योंकि हम सभी आत्मसाक्षात्कार के बाद "श्री माँ" के विराट शरीर के अभिन्न अंग बन चुके हैं।

अतः हमें किसी भी सहजी की नकारात्मक चर्चा करने के बजाय प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में कम से कम एक बार पूर्ण हृदए से उसकी सहायता अवश्य करनी चाहिए। तभी हम "श्री माँ" के वास्तविक बच्चे कहलाने के अधिकारी बन सकते हैं।"

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"Jai Shree Mata Ji"


Thursday, September 14, 2017

"Impulses"--401--"साकार पूजा / निराकार पूजा"

"साकार पूजा / निराकार पूजा"

हम सभी मुख्यतः दो प्रकार से ही "श्री माँ आदि शक्ति" की पूजा करते हैं, एक है साकार पूजा दूसरी है निराकार पूजा दोनों ही प्रकार की पूजा में हमारी स्थिति अलग- अलग होती है।

यानि प्रथम प्रकार की पूजा में हम "उन्हें" "श्री माँ निर्मला" के रूप में साक्षात् "उनके" सामने उपस्थित होते हैं या "उनके" 'प्रेममयी स्वरूप' को अपने स्वम् के मध्य हृदए में स्थापित करते हैं।

प्रथम साकार पूजा, साकार शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है, यानि सा+कार्य, "सा" जो स्वर है वह मूलाधार से प्रगट होता है यानि "श्री गणेश "का प्रतिनिधित्व करता है। और "श्री गणेश" को "शरीर"(आकार) का वरदान मिला है , यानि "श्री गणेश" बन कर "श्री माँ" की पूजा करना। यानि शारीरिक स्थूल अंगो के द्वारा।

दूसरी है 'निराकार पूजा', ये शब्द भी दो शब्दों का संयोग है, यानि नीरा+अकार, 'नीरा' शब्द जल का पर्यायवाची है, जो जल के स्वभाव मृदुता, शीलता, जीवंतता व् आकार रहितता को प्रगट करता है।

इसके अतिरिक्त 'निराकार' शब्द की हम एक और तरीके से संधि विच्छेद कर सकते हैं, यानि नि++कार्य, "नि" शब्द सहस्त्रार का स्वर है, एवम '' जो "माँ आदि शक्ति"की 'शक्ति' का प्रतिनिधित्व करता है। यानि, जो 'शक्ति' बिना रूप, रंग आकार की है, किन्तु जल के समस्त गुणों व् स्वभाव से परिपूण है। 

जो 'शक्ति' द्रव्य-रूप धारण कर गहन ध्यान-अवस्था में हमारे सहस्त्रार के माध्यम से हमारे सूक्ष्म यंत्र में प्रवेश कर हमारे समस्त 'ऊर्जा केंद्रों', सूक्ष्म नाड़ियों को प्लावित कर उन्हें पोषित करती है। व् हमारे हृदए को 'निरानंद' प्रदान कर उसे प्रफुल्लित करती है व् हमारे समस्त प्रकार के भव-बंधनों से हमें मुक्त कर हमें 'मोक्ष' का अधिकारी बनाती है।


ऐसी 'प्राण-दायिनी', प्रेम-दायिनी एवम मोक्ष-प्रदायिनी "माँ आदि शक्ति" की 'शक्ति' को हम, ऊर्जा रूप में, अपने सहस्त्रार के जरिये, अपने सम्पूर्ण सूक्ष्म यंत्र में, अपने चित्त के माध्यम से, प्रवाहित होने का अनुभव करते हुए, पूर्ण श्रद्धा, भक्ति व् समर्पित भाव से 'निराकार रूप' में उपासना करते है।"

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"Jai Shree Mata Ji"

Saturday, September 9, 2017

"Impulses"--400--"चित्त एक नटखट बालक"

"चित्त एक नटखट बालक"

"ध्यान के दौरान हममे से बहुत से सहजी ठीक प्रकार से ध्यान लगने के कारण सदा परेशान होते हैं।  अक्सर कहते सुने जाते हैं कि चित्त बहुत भटकता है जब भी सहस्त्रार पर इसको टिकाने की कोशिश करो तो ये जल्दी ही जाने कहाँ-कहाँ भाग जाता है और ध्यान में मजा नहीं आता।

वास्तव में यदि हम गौर करें तो हम पाएंगे कि हमारा सहस्त्रार हमारे सूक्ष्म यंत्र रूपी 'घर' का मुख्य प्रवेश द्वार है और हमारा मध्य हृदए हमारे इस 'विलक्षण घर' की लॉबी है जहाँ हमारी 'परम प्रिय' "श्री माँ" उपस्थित हैं। 

वास्तव में हमारा चित्त एक बहुत ही नटखट" बच्चे जैसा है जो सदा कुछ कुछ करता रहता है।यदि हम इसे प्रवेश द्वार पर छोड़ दें तो ये कहीं कही जरूर भाग जाएगा। इसीलिए इसको मध्य हृदय में रखा जाए तो यह कहीं नहीं भागेगा, क्योंकि "माँ" मध्य हृदय में रहतीं हैं ये बच्चा सदा अपनी माता के इर्द-गिर्द बना ही रहता है, अन्यंत्र कहीं जाता नहीं है।

अतः गहन ध्यान में उतरने के लिए अपने चित्त को अपने मध्य हृदए में "श्री माँ" के साथ रखा जाए और "माँ आदि" की उपस्थिति का आनंद लेने के साथ साथ असंख्य उच्च दर्जे की चेतनाओं व् अनेकों देव-शक्तियों का स्वागत करने के लिए अपनी 'चेतना' को सहस्त्रार में रखा जाए तो बहुत आनंददायी ध्यान घटित होगा।

क्योंकि जब हमारे हृदए में "श्री माँ" जागृत हो जाती हैं तो जाने कितने गण, देवी-देवता, शक्तियां व् उच्च चेतनाएं सूक्ष्म रूप में "उनसे" मिलने के लिए निरंतर आते ही रहते हैं। 

जिनके आगमन के परिणाम स्वरूप हमारा सहस्त्रार व् मध्य हृदए अपनी प्रसन्नता को प्रगट करने के लिए विभिन्न प्रकार की ऊर्जा-युक्त्त प्रतिक्रिया करते ही रहते हैं और हम अपने सहस्त्रार व् मध्य हृदए में अनेको प्रकार की अनुभूतियाँ महसूस करते रहते हैं।


जिनको एहसास करते रहने मे हमारी चेतना व् चित्त निरंतर अपने सहस्त्रार व् मध्य हृदए में बने रहते हैं और लगातार सशक्त विकसित हो रहे होते है।"

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"Jai Shree Mata Ji"