Wednesday, October 30, 2019

"Impulses"--509--"रोग निवारण व्यथा व उपक्रम"


"रोग निवारण व्यथा उपक्रम"


"देखने में अक्सर आता है कि हमारे ज्यादत सहजी अपनी अपने परिजनों की बीमारियों को लेकर अत्यंत आशंकित चिंतित रहते हैं।

जिनसे पीड़ित होकर वे अपने सम्पर्क में आने वाले सभी सहजियों से बारम्बार "श्री माता जी" से प्रार्थना करने के लिए कहेंगे।

और कभी सामूहिक बंधन लगाने के लिए गुहार करते नजर आते हैं और अक्सर फेस बुक व्हाट्स एप्प पर भी इन बातों को करने के लिए निवेदन करते रहते हैं।

कभी कभी अपने किसी नजदीकी सहजी से जिसको वह बेहतर मानते हैं उनसे बीमारियों को दूर करने के लिए किसी सहज टेक्नीक अथवा चित्त शक्ति के प्रयोग की जानकारी भी हांसिल करना चाहते हैं।

और जब उनको आशातीत सफलता नहीं मिलती तो तुरंत सन्देह ग्रस्त हो जाते हैं। और अनेको प्रकार की बाधाओं से बाधित होने की शंका भी अपने भीतर में पाल कर उनका इलाज भी जानने पूछने का प्रयत्न भी करते हैं।

और यदि कोई सहजी इस प्रकार की समस्या की तरफ अनजाने में इशारा भर करदे तो उसके निराकरण के लिए कुछ भी क्रिया करने किसी भी प्रकार की प्रक्रिया को अपनाने को तैयार भी हो जाते हैं।

चाहे वह क्रिया प्रक्रिया सहज के विरोध में भी क्यों हो, और "श्री माता जी" ने किन्ही बातों के लिए मना ही क्यों कर रखा हो।

अधिकतर सहजियों की एक बात देखकर बहुत ही आश्चर्य होता है, कि साधारण से साधारण शारीरिक पीड़ा को भी किसी किसी सहज पद्दति सहज टेक्निक से ही दूर करने का प्रयास करेंगे।

चाहे वह शारीरिक कष्ट छोटी मोटी दवाई, किचिन में पाई जाने वाली औषधियों, उचित खान-पान, साधारण परहेज, संतुलित व्यायाम, योगासनों, प्राणायाम, सोने-जागने के सही नियम, उचित ऋतुचर्या को अपनाने से ही क्यों ठीक हो जाने वाली हो।

किन्तु ऐसी मानसिकता के सहजियों को दवाइयों के प्रयोग उचित शारीरिक देखभाल की सलाह से बिल्कुल भी तसल्ली नहीं होती है।

उनको तो एक ऐसा तरीका चाहिये कि उनकी उनके परिजनों की शारीरिक समस्या तुरंत चमत्कारिक रूप से ठीक हो जाय।

और यदि आपने कोई सीधा सरल प्राकृतिक इलाज बता दिया तो ऐसे सहजी कई बार बुरा मान जाते हैं और उनकी नजरों में तुरंत आप बेकार सहजी में तब्दील हो जाते हैं।

यह देखकर अत्यंत आश्चर्य होता है कि कई बार तो कुछ सहजी "श्री माता जी" की शक्तियों "उनके" अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगा देते हैं।

मानो उनकी उनके परिजनों की समस्त बीमारियों को ठीक करने का ठेका "श्री माता जी" उनके सहजी बच्चों ने ले रखा हो।

ऐसे सहजियों से अच्छे तो आम साधारण लोग हैं जो किसी भी बीमारी के होने पर अपनी क्षमता समझ के अनुसार उचित इलाज कराते हैं।

और बीमारी को ठीक करने से सम्बंधित अपने प्रयत्नों के प्रतिफलों को "ईश्वर" की इच्छा पर छोड़ देते हैं और सुगम समाधान को प्राप्त होते हैं।

किन्तु हमारे कुछ सहजी तो बीमारियों को ठीक कराने के लिए "श्री माता जी" सहजियों के पीछे ही पड़ जाते हैं।

और यदि कोई सहजी बीमारियों को ठीक करने के लिए बाह्य आंतरिक रूप से अपने अनुभव के आधार पर कोई उचित सलाह दे दे।

तो नाराज होकर उसकी बातों को अन्य सहजियों के समक्ष अपने अनुसार नकारात्मक रूप में तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं।

जिससे सुनने वाले सहजी को ऐसा प्रतीत हो कि सलाह देने वाला सहजी गलत तरीके से गलत बात ही बता रहा है। और उन परिवर्तित की गई बातों को सुनने वाले सहजी अक्सर उनसे भी महान होते हैं।

जो बिना सही तथ्यों को जाने तुरंत प्रतिक्रिया देकर सलाह देने वाले सहजी तो तत्क्षण गलत ठहरा देते हैं। साथ ही स्वयं निर्णायक बन कर उस सहजी की बातें आगे से आगे फैलाना भी प्रारम्भ कर देते हैं।

यह तो शुक्र है कि एक दो सहजी ऐसे भी होते हैं जो कभी भी सुनी सुनाई बातों पर विश्वास नही करते। वरन सुनकर अपने विवेक का उचित इस्तेमाल करते हुए सही बात मालूम करते हैं और फिर किसी तथ्य पर पहुंचते हैं और शिकायत करने वाले सहजी को उचित सलाह भी देते हैं।

हमें आज तक यह समझ नहीं पाया है कि अधिकतर सहजियों को "श्री माता जी" की एक बात क्यों नहीं समझ आती।

***कि यह 'ध्यान-मार्ग' हमारी चेतना को उन्नत करने के लिए हमें मिला है कि अपनी शारीरिक बीमारियों सांसारिक समस्याओं के निराकरण के लिए।***

चाहे बीमारी किसी भी कारण से लगी हो किन्तु उसका इलाज तो 'जैविक स्तर' पर ही होगा।

वह बात और है कि हम इन बीमारियों को ठीक करने के लिए ऐलोपोथी/होम्योपैथी/आयुर्वेद/घरेलू नुक्से/नेचुरोपैथी अथवा पंचतत्वों का उपयोग बीमारी के प्रकार को मद्देनजर रखकर कर सकते हैं।

मेरी चेतना व्यक्तिगत अनुभव के अनुसार यदि हम किसी भी बीमारी के इलाज के लिए चलें।

तो हमें कोशिश करनी चाहिए कि हमें इलाज 'धरती माता' के गर्भ से उत्पन्न होने वाली जड़ी-बूटियों, वृक्षों पौधों, फलों, तरकारियों प्राकृतिक खनिजों आदि से ही करना चाहिए  क्योंकि हमारा शरीर पंचतत्वों से निर्मित है और 'माता वसुंधरा' हमें पांचों तत्वों की कमी में लाभ पहुंचाने वाली सभी चीजें हमें प्रदान करती हैं।

और साथ ही हमें यह भी समझना होगा कि यदि हमारे स्थूल शरीर पर कोई रोग लग गया है तो उसका इलाज भी स्थूल चीजों से ही होगा यानी जिन्हें हम देख सकते हैं।

वास्तव में ज्यादातर रोग हमें मन की विकृति जड़ता के कारण ही लगते हैं यानि मन के रोग तन पर दिखाई देते हैं।

क्योंकि हमारे मन में जिस चक्र के गुणों से सम्बंधित विकृति आयी है, उस चक्र से सम्बंधित अंगों पर रोग लगने की संभावना बन जाती है। 

इसीलिए सही प्रकार से किये जाने वाले 'ध्यान' से मनुष्य निरोगी रह सकता है। क्योंकि "प्रभु" का ध्यान मन के समस्त विकारों को दूर करता है जिसके कारण बहुत ही कम रोग लग पाते हैं।

जब से हमारा "श्री चरणों" में आना हुआ है हमने अपने अथवा अपने परिवार के किसी भी सदस्य की किसी भी शारीरिक सांसारिक समस्या के लिए "श्री माता जी" आज तक कभी भी तो कोई प्रार्थना की है और ही कभी बंधन ही लगाया है।

और ही कभी अपनी अपने परिजन की किसी भी शारीरिक पीड़ा सांसारिक तकलीफ के लिए किसी सहजी से 'अटेंशन' डालने बंधन लगाने के लिए कोई निवेदन ही किया है।

जब भी कभी कोई शारीरिक सांसारिक पीड़ा आयी है पूर्ण समर्पित भाव में अपने विवेक अपनी समझ के मुताबिक उसका इलाज किया है, चाहे परिणाम कुछ भी आया हो।

*हमारा तो सदा यह मानना रहा है कि जो भी होता है हमारी चेतना के उत्थान कल्याण के लिए ही सदा "परमात्मा" की इच्छा से ही होता है।
तो भला "उनसे" किसी भी सांसारिक कष्ट को दूर करने के लिए क्यों कहा जाय।*

*यह सर्वविदित है कि यह देह नश्वर है और इसका नष्ट होना हमारे जन्म से पूर्व ही निर्धारित हो चुका है।*

*हमारे पूर्व जन्मों के परिणाम स्वरूप संचित प्रारब्ध के कारण यह किस प्रकार से नष्ट होगी, कब नष्ट होगी, कितने काल तक चलेगी।*

*इसमें किस किस प्रकार के रोग होंगे, किस प्रकार से ठीक होंगे अथवा ठीक नहीं होंगे यह सब पूर्व सुनिश्चित है।*

पूर्व प्रारब्ध के नकारात्मक कर्मफलों को देखना हो तो नवजात शिशु को होने वाले शारीरिक कष्टों से लगाया जा सकता है।

जिसके पैदा होते ही डॉक्टर उसकी जान बचाने की खातिर उसकी गंभीर शारीरिक व्याधियों को दूर करने के लिए उसके नाजुक जिस्म को इंजेक्शन की सूइयों से कभी कभी छलनी तक कर देते हैं।

और वह बेचारा नवजात शिशु ठीक प्रकार से रो कर अपनी पीड़ा तक किसी को प्रगट नहीं कर पाता। उसने कौनसे पाप गर्भावस्था में कर डाले हैं जिसके परिणाम स्वरूप उसको पैदा होते ही इतनी पीड़ाओं से गुजरना पड़ रहा है।

इसका सीधा सा अर्थ यह निकलता है कि ये कष्ट उसको, उसके पूर्व जन्मों के नकारात्मक प्रतिफल के रूप में ही मिल रहे हैं।

*"श्री चरणों" से जुंडने के उपरांत इन उपरोक्त घटनाकर्मों में इतना परिवर्तन आता है। कि जो रोग या पीड़ाएँ आम हालात में हमारे अगले जन्मों में पहुंचते, वे सभी इसी जन्म में तेजी के साथ उभरने प्रारम्भ हो जाते हैं।

क्योंकि "परमेश्वरी" हमारे इसी जन्म में हमारी मुक्ति की व्यवस्था कर रहीं हैं। और हमारे पूर्वजन्मों के कर्मगत जितने भी सकारात्मक नकारात्मक प्रतिफल हैं उन्हें इसी जन्म में संतुलित कर रही हैं।*

*जिसके कारण अक्सर सहजी तीव्रता से उत्पन्न होने वाली व्याधियों से घबड़ा जाते हैं तो कभी यकायक मिले सकारात्मक प्रतिफलों से खुशी से फूले नहीं समाते हैं। और अक्सर यकायक प्राप्त हुई उपलब्धियों के परिणाम स्वरूप अहंकार से ग्रसित भी हो जाते हैं।*

हम तो "परमपिता" से सदा यही कहते हैं कि,

*जब "आपने" हमें "अपनी" इच्छा से इस धरा पर जन्म दिया है तो हमारे जीवन से सम्बंधित समस्त घटनाक्रमों आवश्यकताओं को "आप" ही देखो, यह "आप" ही कि जिम्मेदारी बनती है।*

*यदि उन आवश्यकताओं को पूरा कर देते हैं तो अच्छा होता है और यदि नहीं भी करते हैं तो बहुत अच्छा होता है।*

*जो भी "आप" हमें प्रदान करते हैं वह हमारे लिए "आपके" "श्री चरणों" से आया हुआ "चरणामृत" ही होता है जिसे हम सदा सहर्ष ग्रहण करते हैं।*

*जब "आप" हमें भूखा रखते हैं अथवा भरपेट खिलाते हैं, कभी कोई 'क्यों' का विचार नहीं करते हैं।*

*हम तो बस अपने समस्त प्रकार के कर्तव्यों को निभाने के लिए पूर्ण निष्ठा, ईमानदारी, लगन जागरूकता के साथ प्रयत्न शील रहते हैं।*

*जो भी हमसे कराना होता है "आप" उसकी प्रेरणा हमारे हॄदय में निरंतर देते रहते हैं और हम उस पर सदा चलते रहते हैं।

फिर चाहे सारी दुनिया उन कार्यों को गलत ठहरा कर उनकी भतर्सना करती है अथवा सही ठहरा कर उनकी सराहना करती है, हम दोनों का ही कोई विचार नहीं करते। *

*क्या सही है और क्या गलत है, क्या पाप है और क्या पुण्य है यह हम नहीं जानते।*

*क्या मर्यादा है और क्या सीमा है इसकी हमें शायद उचित समझ नहीं है। क्योंकि पूर्व संस्कारों से आच्छादित सभी चीजें नियम इन वर्तमान 'चेतन कार्यों' के लिए व्यर्थ हैं।*

*चाहे हमें सजा दिलवाओ, चाहे हमें पुरुस्कृत करवाओ, यह "आप" ही जानो हम इन दोनों का ही विचार नहीं करते।*

*चाहे हमारा अपमान करवाओ, चाहे हमारी प्रशंसा करवाओ यह हमारी सिरदर्दी नहीं है।*

*चाहे हमें बदनाम करवाओ, चाहे हमारा नाम करवाओ, ये "आपकी" मर्जी है, इससे हमारा कोई सरोकार ही नहीं है।*

*चाहे हमें 'ज्ञानी' बनाओ, और चाहे हमें 'अज्ञानी' कहलवाओ, यह "आप" ही का निर्णय है।*

हम तो बस "आपके" द्वारा ह्रदय में दी गई प्रेरणा से ही संचालित हैं और सदा रहेंगे क्योंकि हमारा कोई "आपसे" प्रथक अपना कोई अस्तित्व ही नहीं है।

●"हमारी देह को अमरत्व का वरदान प्राप्त नहीं है। किन्तु यदि हम ह्रदय से "प्रभु" भक्ति 'चेतन कार्यों' में लीन रहने लगें तो हमारी चेतना अमरत्व को प्राप्त हो सकती है।

इस नश्वर देह पर 'माता प्रकृति' का सिद्धान्तजैसे तो तैसालागू होता है। 'जो' हमारे कर्मो के परिणाम स्वरूप हमें शारीरिक कष्ट देती भी हैं।
और उनसे निजात दिलाने में हमारी मदद भी करती हैं।

यदि हम 'इनकी' भी "माता", "माँ आदि शक्ति" के साथ एकाकार होने लगते हैं। तो हम पर 'माता प्रकृति' का नियम निष्क्रिय होने लगता है और हम अनेको रूपों में लाभान्वित होते जाते हैं।"●
---------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"