Saturday, January 19, 2019

"Impulses"--478--"सामूहिक-ध्यान-उत्थान कैसे हो ? " (भाग-1)


"सामूहिक-ध्यान-उत्थान कैसे हो ? " 
(भाग-1)

हममें से बहुत से साधकों के हृदय में ये देखकर बड़ी पीड़ा होती है कि हमारे देश के अधिकतर सहज योग ध्यान केंन्द्रों में सामूहिक ध्यान का स्तर अत्यंत शोचनीय है।

लगभग हर ध्यान सेंटर में वही प्रार्थमिक तौर तरीके ही अपनाए जा रहे हैं जो सहज योग के प्रारंभिक काल में अपनाए गए थे।

क्या हम सभी को ये कमी नहीं खलती कि "श्री माता जी" ने ध्यान की अत्यंत गूढ़ बाते बताई हुई हैं आखिर हम सब उन अनुभवों से सामूहिक रूप में कब गुजरेंगे।

यूं तो कुछ सहजियो ने व्यक्तिगत स्तर पर कुछ गहनता प्राप्त कर ली है किंतु 'जड़-संस्था-व्यवस्था' के कारण उन सहजियो का लाभ सेंटर्स में सामूहिक स्तर पर नहीं मिल पा रहा है।

क्योंकि संस्था को चलाने वाले पदाधिकारियों ने अपनी समझ अनुभव के आधार पर साप्ताहिक सेंटर में होने वाले ध्यान के ऐसे नियम बना दिये हैं प्रक्रियाएं सुनिश्चित कर दी हैं। जिसके कारण सेंटर के स्तर पर ध्यान- उन्नति की कोई भी गुंजाइश शेष नहीं रह गई है।

यदि कोई अच्छे स्तर का सहजी प्रयास भी करना चाहे तो साप्ताहिक सेंटर के सीमित सिस्टम के कारण उनका प्रयास निष्क्रिय हो जाता है।

बड़ा ही अफसोस होता है यह महसूस करके कि हमारे ज्यादातर सेंटर पर ध्यान के नाम पर मात्र कुछ क्रियाएं ही होकर रह जाती हैं।

जैसे कि सभी जानते हैं कि सेंटर के प्रारम्भ में ध्यान की शुरुआत:-

1.सामूहिक रूप से कुंडलिनी उठाकर बांधने बंधन लेने से होती है।

2.उसके बाद 'महामंत्र' लिया जाता है,

3.फिर कुछ भजन हो जाते हैं,

4.और फिर "श्री माता जी" के वाणी सुनी जाती है,

5.और उसके बाद 5-7 मिनट का ध्यान,

6.फिर आरती के बाद पुनः महामंत्र,

7.फिर पुनः बंधन लेना,

8.और फिर कुछ अनाउंसमेंट,

9.और फिर प्रसाद वितरण के बाद ध्यान का समापन।

यानि बरसों से लगभग भारत के सभी सेंटर्स में यही प्रक्रिया ही दोहराई जाती जा रही है।

इस उपरोक्त ध्यान व्यवस्था की स्थिति में इस चेतना के हृदय में कुछ प्रश्न अक्सर उठते हैं कि:

जब समस्त सहजी कुंडलिनी उठाने की प्रक्रिया करते हैं तो क्या वो ये महसूस कर पाते हैं कि उनकी कुंडलिनी उस वक्त कहाँ है ?

और यदि वो ये पाते हैं कि उनकी कुंडलिनी सहस्त्रार पर मौजूद है तो फिर भी वो कुंडलिनी उठाने की प्रक्रिया क्यों करते है ?

या तो उनकी संवेदन शक्ति इतनी क्षीण है कि उन्हें अपनी कुंडलिनी की स्थिति का आभास नहीं होता,

या फिर उन्होंने कुंडलिनी उठाना और बंधन लगाना एक प्रक्रिया बना लिया है,

या फिर वह सभी की देखा देखी बिना आवश्यकता के कुंडलिनी उठाने की प्रक्रिया दोहराते है,

क्या सहजी ये बात जानते हैं कि कुंडलिनी के सहस्त्रार पर होने के वाबजूद भी कुंडलिनी उठाने की प्रक्रिया करना 'माँ' कुंडलिनी को कितना कष्ट देता है।

क्योंकि सहस्त्रार पर 'वह' "माँ आदि शक्ति" के सानिग्ध्य का आनंद उठा रही होती हैं और उनसे 'ऊर्जा' रूपी भोजन प्राप्त कर रही होती हैं।
और जब हम अपने हाथ को चित्त के साथ मूलाधार तक लाते हैं तो उन्हें भी मजबूरी में सहस्त्रार से नीचे आना पड़ता है।

ये बिल्कुल ऐसा होता है एक माँ के द्वारा फीड करते बच्चे को एक झटके से माँ से अलग कर दिया जाए तो बच्चे माँ को कैसा महसूस होगा सोच लीजिये।

ऐसा करने सहजियो की चेतना चित्त आगन्या चक्र पर पुनः जाता है जिसके कारण आगन्या अन्य चक्रों में कैच आने लगता है।

इससे ये निष्कर्ष निकलता है कि कुंडलिनी सहस्त्रार पर किस प्रकार से महसूस होगी इसका उनको तो आइडिया है और ही अभ्यास है,

तो आखिर ये अभ्यास कैसे कराया जाय क्योंकि सेंटर का तो अपना एक शेड्यूल है जो सदा से वैसा ही चलेगा।

तो फिर सेंटर आने वाले ऐसे सहजियो को सेंटर में किस प्रकार से सिखाया जाय,

और ये अभ्यास आखिर कौन कराएगा, क्योंकि जो सेंटर चलाता है वह भी तो इसी दशा में हो सकता है।

और एक आम अच्छे सहजी को कॉर्डिनेटर/अधिकारी गण अपने पद अहंकार के चलते ये कार्य करने देंगे नहीं।

तो फिर हजारों की संख्या में साप्ताहिक सेंटर्स में आने वाले सहजी आखिर किस प्रकार से इन सूक्ष्म संवेदनाओं को समझ पाएंगे।

"श्री माता जी" के लेक्चर्स तो सभी सुनते हैं किंतु ज्यादातर सहजियो के यंत्रो की स्थिति इतनी विकसित ही नहीं हो पाई है कि वे "श्री माँ" की वाणी में अंतर्निहित 'ऊर्जा' को शोषित कर आत्मसात कर सकें।

यही कारण है कि हमारे देश के अधिकतर सहजी अपने यंत्र की सूक्ष्म अभिव्यक्तियों को समझने में असमर्थ हैं। क्योंकि लगभग सभी सेंटर्स में इन अभ्यासों को कराने की तो कोई व्यवस्था है और ही कोई कराने वाला उपस्थित है।

यदि कहीं कुछ 'गाइडिड मेडिटेशन' के नाम पर हो भी रहा है तो वो भी अधिकतर मानसिक स्तर पर ही हो रहा है।

जिसका एक 'सैटअप' बना हुआ है और हर बार हर स्थान पर उसी सैट प्रक्रिया के माध्यम से ही ध्यान कराया जाता है।

जब भी कोई ध्यान की प्रक्रिया सैट कर दी जाती है तो वह केवल और केवल मानसिक प्रक्रिया ही बन जाती है।

क्योंकि वो सैट प्रक्रिया हमारे मन के कोष में संचित हो जाती है और जब भी हम उस प्रक्रिया को दोहराते हैं तो हमारा चित्त हमारे मन के कोष में स्वतः ही चला जाता है।

यानि हमारा चित्त बाएं आगन्या में अटक कर रह जाता है जिसके कारण उस ध्यान में ऊर्जा की नगण्यता हो जाती है और उस प्रक्रिया से चैतन्य नदारत हो जाता है साथ ही उसके अनुसार दुबारा ध्यान करने वाले सहजी अपने भीतर ऊर्जा महसूस करने के स्थान ऊब महसूस करते हैं।

क्योंकि उनके मन के कोष में उक्त ध्यान प्रक्रिया के कुछ अवशेष उपस्थित रहते हैं जिसके कारण मन पुनः उन शब्दों को ग्रहण नहीं करता जिससे मन में ऊब उत्पन्न होती है।

जो भी ध्यान आगन्या के स्तर पर जाता है वह लाभ देने के स्थान पर हानि देना प्रारम्भ कर देता है। गाइडिड मेडिटेशन ग्लेशियर से फूटने वाली एक नदी की बहती धारा जैसा होना चाहिए।

जिसका जल सदा ताजा का ताजा बना रहता है और उसमें स्नान करने से सारा आलस्य भाग जाता है और हमारे शरीर के विकार भी नष्ट हो जाते हैं।

यानि कि गाइडिड मेडिटेशन किसी भी यंत्र के माध्यम से उसके उदगम यानि हृदय से प्रस्फुटित होना चाहिए जिसमें नवीनता के साथ साथ प्रेम मई वात्सल्य भी समाहित हो।

कई बार इस चेतना को सहजियो की संवेदन शीलता के नगण्य होने का जीवंत अनुभव हुआ है। जिनके वर्णन नीचे किये जा रहे हैं:-

एक स्थान पर सहज सेंटर में इस चेतना को ध्यान के लिए वहां के कोर्डिनेटर के द्वारा बुलवाया गया। जहां पर इस चेतना ने देखा कि कुछ नए लोग सेंटर् में आये हुए हैं और कुछ पुराने सहजी उनके पीछे बैठ कर हाथ से उनकी कुंडलिनी उठा रहे है।

लगभग 20-25 मिनट तक पीछे बैठे सहजी कुंडलिनी उठाते रहे जबकि उनकी कुंडलिनी तो पहले 1 मिनट में ही उठ गई थी।

जाने वो अब क्या उठाने में लगे हुए थे ?

क्या वो अब उनके चक्रों नाड़ियों के देवी देवताओं को भी उठाकर सहस्त्रार पर लाना चाहते थे ?

जब इस चेतना ने वहां के कॉर्डिनेटर से पूछा कि वे क्या कर रहे हैं तो उन्होंने उत्तर दिया कि हम कम से कम 20-25 मिनट तक कुंडलिनी उठाते हैं।

उनका उत्तर सुन कर यह चेतना हैरान हो गई कि उनकी संवेदन शीलता भी इतनी गई गुजरी थी कि उन्हें भी कुंडलिनी उठने का आभास नहीं हो रहा है।

एक अन्य घटनाक्रम के तहत एक गांव में कुछ नए लोगों को वही पुरानी हाथ रखवाने वाली प्रक्रिया के द्वारा आत्मसाक्षात्कार दिया जा रहा था।

तत्पश्चात सदा की भांति सबसे पूछा गया कि वायब्रेशन आये या नहीं।तो नए लोगों ने मना कर दिया। तब उनको फिर से वही प्रक्रिया दुबारा कराई गई किंतु फिर भी नए लोगों को वायब्रेशन महसूस नहीं हुए।

तब रिलाइजेशन देने वाले उस 'काफी पुराने माध्यम' ने उन लोगों से कहा कि आप सभी लोग प्लास्टिक शीट पर बैठे हैं। जिसके कारण उनकी कुंडलिनी सहस्त्रार पर नहीं पाई है जिसके कारण उनको वायब्रेशन नहीं रहे हैं।

कुछ दिन बाद उसी स्थान पर उन्ही लोगों को मध्य हृदय सहस्त्रार के माध्यम से आत्मसाक्षात्कार दिया गया तब सभी को वायब्रेशन महसूस हुये।

हाथों के अतिरिक्त काफी लोंगों ने अपने सहस्त्रार मध्य हृदय में भी चैतन्य महसूस किया जबकि इस बार भी वो लोग प्लास्टिक शीट पर ही बैठे हुए थे।

यदि माध्यम सशक्त है तो "श्री माँ" की 'शक्ति' अंतरिक्ष की अनंत ऊंचाइयों से भी अवतरित होगी और धरती माँ के गर्भ से भी प्रगट होगी।

इतनी 'बड़ी शक्ति' को भला प्लास्टिक, जूते, गण्डा, ताबीज तंत्र भी भला कैसे रोक पाएंगे।

और भी कई उदाहरण बड़े कोर्डिनेटर्स की संवेदन-शून्यता के उदाहरण इस चेतना को देखने को मिले।

एक बार एक सेमिनार में "श्री माँ" ने इस चेतना के द्वारा नए लोगों को आत्मसाक्षात्कार दिलवाने का माध्यम बनवाया।

बड़े ही सरल तरीके से "श्री माँ" ने आंतरिक प्रेरणा के आधार पर नए लोगों की कुण्डलीनयाँ इस यंत्र के माध्यम से उठवा दीं।

जिनकी तीव्र अनुभूति इस यंत्र के सहस्त्रार, हृदय हाथ की हथेलियों में विभिन्न ऊर्जा प्रक्रियाओं के रूप में हो रही थी साथ ही अधिकतर नए लोगों को भी हो रही थी।

अतः सभी नए लोगों को अनेको शुभकामनाएं देखकर आत्मसाक्षात्कार की प्रक्रिया को समाप्त कर दिया गया।

किंतु तभी उस क्षेत्र के कॉर्डिनेटर उठे और कुछ देर तक सभी नए लोगों की नाड़ियों को बिना आवश्यकता के सन्तुलित करवाते रहे और चक्रों पर हाथ रखवा कर रिलाइजेशन की प्रार्थमिक प्रक्रिया फिर करवा दी।

यह देखकर इस चेतना को घोर आश्चर्य के साथ साथ अत्यंत दुख भी हुआ कि 15-20 साल पुराने सहजी की चैतन्य के प्रति संवेदन शीलता इतनी खराब है।

कि उन्हें ये अनुभव ही नहीं हो पाया कि उन लोगों की कुण्डलीनियाँ उठ चुकी हैं और उनके चक्र सामान्य रूप से कार्य कर रहे हैं।

'इस चेतना के समक्ष दो सबसे दुखद शर्मिंदगी से परीपूर्ण अनुभव जो चैतन्य चेकिंग करने वाले पदाधिकारियों के रहे हैं।

जब कुछ महान सहज पदाधिकारियों ने एक ही घर से सगे बहन भाइ के द्वारा सहज विवाह के लिए दिए गए प्रार्थना पत्रो का मिलान करके आपस में विवाह के लिए टोकन no दे दिए। जब उन दोनों का नम्बर स्टेज पर पुकारा गया तो वे दोनों अत्यंत शर्मिंदा हुए

और दूसरे केस में तथाकथित वायब्रेशन चेक करने वाले पदाधिकारी ने एक सहजी युवाशक्ति की शादी दुर्व्यसनों में लिप्त शराबी से करा दी जिसको दो दिन बाद ही शादी तोड़ कर वापस आना पड़ गया।'

इस बात से यह निष्कर्ष निकलता है कि अधिकतर सहज संस्था के पदाधिकारी/सेंटर्स कॉर्डिनेटर पुराने सहजी ध्यान की सभी प्रक्रियाओं को केवल और केवल मानसिक स्तर पर ही सम्पन्न कर रहे है।

एवम इसी कमी को छुपाने के लिए वो अच्छे सहजियो को सेंटर्स में ध्यान का कार्य करने नहीं देते क्योंकि इससे उन पुराने सहज पदाधिकारियों सहजियो की अक्षमता उजागर हो जाएगी।

बड़ा ही तकलीफदेह लगता है जब कोई 20-25 साल पुराने सहजी मिलते हैं और वह कहते है कि उसे वायब्रेशन ठीक से नहीं आते।

उनकी कुंडलिनी उन्हें कभी भी उसके सहस्त्रार पर महसूस नहीं दी,

कोई बताते हैं कि उनके चक्र नाड़ियां सदा पकड़े रहते हैं,

कुछ कहते हैं कि उन्हें ध्यान का आनंद कभी भी ठीक से आया नहीं।,

कुछ प्रश्न करते हैं कि चक्रों नाड़ियों की स्थिति किस प्रकार से पता लगती है उन्हें समझ नहीं रहा।

कुछ लोगों के चक्रों में बड़े ही सुंदर वायब्रेशन होते हैं जिनके कारण उनके चक्रों में दवाब(वैक्यूम) का अनुभव हो रहा होता है। और वे इन अच्छे लक्षणों को बाधा समझ कर मानसिक रूप से पीड़ित हो रहे होते हैं।

इन स्थितियों को देखकर अच्छे से समझा जा सकता है कि ये हालात हमारे देश के सेंटर अटेंड करने वाले ज्यादातर कोर्डिनेटर्स पुराने सहजियो की है।

'कुछ सहजियो ने जोश भावुकता की गिरफ्त में आकर सहज योग में कुछ नया करने उद्देश्य के चलते अज्ञानतावश अलग अलग सहज योग ट्रस्ट तक बना डाले जो कि सामुहिकता के उत्थान में बाधा ही साबित हुए हैं।

हम सभी को हृदय से समझना होगा कि "श्री माता जी" ने सहज योग की वास्तविक आवश्यकता को देखकर स्वतः ही अपनी इच्छानुसार दो ट्रस्ट्स का निर्माण कर दिया था। अब और किसी भी नए ट्रस्ट की आवशयकता शेष नहीं रह गई है।

इन नए ट्रस्टों से केवल और केवल सहज सामुहिकता को हानि ही हो रही है क्योंकि नए पुराने लोगों में भ्रम विवाद ही उत्पन्न हो रहा है।

हम सहजी कभी भी इतने उन्नत नहीं हो सकते कि हम "श्री माँ" की तरह से हर चीज को देख सकें। क्योंकि "वह" "आदि शक्ति" हैं और हम मात्र मानव हैं जो अभी जागृति की ओर अग्रसर हैं।

हम कोई भो कार्य पूर्णता के साथ करने में सक्षम नहीं हैं जबकि "वह" "पूर्णता" का पर्याय हैं। अतः हमको इस प्रकार के कार्यो से बचना चाहिए जिससे सामुहिकता खंडित हो रही हो।

"श्री माँ" के द्वारा निर्मित ट्रस्ट एक 'स्वयम्भू' की तरह हैं जिनसे ऊर्जा प्रगट होती है और नए ट्रस्ट मानव निर्मित मंदिर की तरह हैं जिनसे मानसिक सन्तुष्टि तो हो सकती है किंतु हृदय में ऊर्जा नहीं महसूस की जा सकती।

अतः इस चेतना का उन सभी सहजियो से विनम्र निवेदन है कि वो अपने द्वारा बनाये गए ट्रस्टों को पुराने ट्रस्टों में विलय करके "श्री माँ" के स्वप्न को पूर्ण करने में अपना समर्पित योगदान दें।

यदि आपके पास कुछ अच्छे ध्यान अनुभव उपलब्धियां हैं तो बिना ट्रस्ट बनाये भी वो सभी के साथ बांटी जा सकती हैं।

जैसे एक ऊंचाई पर जलती हुई मशाल अंधेरे में दूर से ही दिखाई देती है मशाल को यह बताना नहीं पड़ता कि वह जल रही है।

अब प्रश्न ये उठता है कि हमारे समस्त सहजी सामूहिक रूप से ध्यान की गहराइयों में कैसे जाएंगे ?"

---------------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

.........To be Continued,