Wednesday, July 31, 2019

"Impulses"--499--"मृत्यु-वरण-अभ्यास"

"मृत्यु-वरण-अभ्यास"


"एक बात बहुत ही आश्चर्य जनक है कि आम हालात में हममें से अधिकतर ध्यान अभ्यासी भी अपने को इस संसार में बनाये रखने के लिए जी जान लगा देते हैं।

दुनिया भर के संघर्ष, लड़ाइयां, झगड़े, वाद-विवाद, उपलब्धियां, उद्वेश्य प्राप्ति, लक्ष्य भेदन आदि में ही हमारी चेतना व्यर्थ जाया होती रहती है।

बड़े ही अफसोस कि बात है कि अपने जीवन का सबसे ज्यादा समय हम इस निश्चित रूप से मिटने वाले स्थूल अस्तित्व को बनाये रखने के लिए ही खर्च करते रहते हैं।

क्या हम सभी समय समय पर चिंतन करते हैं, कि इस स्थूल जीवन के अंत के समय के लिए भी हम कुछ सकारात्मक रूप से कर पा रहे हैं अथवा नहीं?

यूं तो हम सभी मानसिक रूप से तो जानते हैं कि एक एक दिन हमारे स्थूल शरीर की मृत्यु अवश्य होगी। किन्तु हममें से अधिकतर लोग इस 'अवश्य भावी क्षण' के लिए आंतरिक रूप से बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं।

बल्कि घोर अज्ञानता के चलते हम इसके उलट यही भाव से ग्रसित रहते हैं कि मानो हम अमर हों। और अक्सर इस अनमोल घड़ी के लिए अत्यंत सतही स्तर पर विचारते रहते हैं।

कि हम तो सहजी हैं हमारी आनंदाई मृत्यु की व्यवस्था तो "श्री माँ" स्वयं ही करेंगी, हमें 'इसकी' चिंता करने की भला क्या आवश्यकता है। 'जैसे सांसारिक/आध्यात्मिक जीवन को अच्छे से जीने के लिए अच्छे अभ्यास की आवश्यकता होती है।

वैसे ही सरल पीड़ा रहित मृत्यु को धारण करने के लिए भी हमें उचित अभ्यास की जरूरत होती है।' क्या हम इस ओर ध्यान देकर अक्सर अपने को निम्न भुलावा देते रहते हैं कि:-

हम तो घंटे दो घंटे नित्य ध्यान में बैठते हैं,

हम तो हर सप्ताह सैंटर जाते हैं,

हम तो अक्सर बड़ी सामुहिकता अथवा बड़ी पूजा अटैंड करते हैं,

हम तो हर सप्ताह नए लोगों को आत्मसाक्षात्कार देते रहते हैं,

हमतो ध्यान में बहुत गहरे उतर चुके हैं,

हमारे चक्रों नाड़ियों में अच्छे वायब्रेशन आते हैं,

हम तो अनेको लोगों को ध्यान में उतरने में मदद करते हैं,

अरे हम तो सहज सैंटर चलाते हैं,

हम तो लोगों की बीमारियां ठीक कर देते हैं,

हमको ध्यान की सारी सूक्षमताएँ पता लग चुकी हैं,

हम सहजियो में अच्छे सहजी माने जाते हैं,

हम ध्यान आध्यात्मिकता पर बहुत अच्छा बोलते/लिखते हैं,

सभी सहजी हमें जानते हैं,आदि आदि।

यदि घोर अज्ञानतावश हम उपरोक्त भ्रमो के शिकार हैं तो हमें सचेत हो जाना चाहिए। क्योंकि जब हमारी चिर-प्रतीक्षित मृत्यु आएगी तो यह सब उपरोक्त क्रिया कलाप हमारी बिल्कुल भी मदद नहीं कर पाएंगे।

क्योंकि हमने स्वेच्छा से अवश्यभावी मृत्यु को वरण करने की वास्तव में कोई तैयारी नहीं की है। और ही 'इसे' स्वीकार करने के लिए कोई अभ्यास ही बनाया है।

यदि उस 'सुनिश्चित प्रयाण' के लिए आंतरिक रूप से अभी तक कोई तैयारी नहीं की है तो कोई बात नहीं।

मेरी चेतना के अनुसार हम आज से ही अपनी चेतना चित्त का एक सरल अभ्यास अपने जीवन में अपना कर उस 'विशेष उत्सव' के लिये तैयार हो सकते हैं।

वास्तव में इस अभ्यास के लिए ज्यादा कुछ बाह्य रूप से करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। जब भी हम रात्रि में सोने के लिए तैयारी करें तो उस वक्त केवल एक बार यह चिंतन अवश्य करें।

कि, 'क्या मैंने अज्ञानतावश अथवा दुर्भावनावश अपने अहंकार, क्रोध, ईर्ष्या, घृणा, तूलना, मोह, लिप्तता, लोभ, कामना, भय, आकांशा किसी सांसारिक इच्छा के चलते किसी का हृदय तो नहीं दुखाया।

यदि उपरोक्त में से कुछ भी इस वर्तमान दिवस में हुआ है तो सर्वप्रथम अपने दोनों मुख्य चक्रो, यानि सहस्त्रार मध्य हृदय पर ऊर्जा को अनुभव करते हुए, 

बिना किसी दोष भाव के अपनी चेतना को अपनी 'आत्मा' से जोड़करअपने चित्त को अपनी "हृदय स्वामिनी" के "श्री चरणों" में रखकर केवल एक बार "उनसे" प्रार्थना करनी है।

कि, 'हे' "श्री माँ" मेरी चेतना में इतना सामर्थ्य जागृति भर दो कि मेरे द्वारा जाने अनजाने में मेरे द्वारा किसी का भी हृदय दुखे।

इसके उपरांत अपने अस्तित्व को चित्त की सहायता से "श्री निराकारा" से जोड़ लेंगे और धीरे धीरे निद्रा देवी की गोद में समा जायँगे।

इस प्रकार से निद्रा में समाना ऐसा ही होगा मानो हम "माँ आदि शक्ति" की गोद में आनंद के साथ अपने प्राण समर्पित कर रहे हों।

क्योंकि निद्रा भी मृत्यु समान होती है, इसकी गोद में जाने के बाद हम कहाँ होते हैं हम नहीं जान पाते।

वास्तव में जब भी हम रात्रि में सोएं तो हम यही अनुभव करें कि अब हमारा अंतिम समय गया है और हम अपने 'उदगम' "श्री माँ" के "श्री चरणों" में सदा के लिए समाने जा रहे हैं।

जब हम पूर्ण हृदय, सच्ची लगन समर्पित श्रद्धा के साथ यह अभ्यास प्रतिदिन बना लेंगे तो निश्चित रूप से अपनी उस वास्तविक अंतिम घड़ी में हम "श्री माँ" के साथ ही होंगे।

क्योंकि ऐसा माना जाता है कि जिस मनोदशा मनस्थिति में हम अपने प्राण त्यागते हैं मृत्युपरान्त वैसा ही अनुभव हमारी चेतना में अगले जन्म तक स्थाई रहता है।

अतः क्यों हम अच्छे से अपनी अंतर्चेतना को व्यवस्थित कर लें ताकि इस कठिन/आनंदाई घड़ी में हम प्रफुल्लित रहते हुए बिना किसी कष्ट के 'अगली यात्रा' पर निकल सकें।"



-------------------------------------Narayan

"Jai Shree Mata Ji"


January 16 2019


Wednesday, July 24, 2019

"Impulses"--498--"उषाकाल ध्यान-संशय निवारण"


"उषाकाल ध्यान-संशय निवारण"


हममें से बहुत से सहजी सूर्योदय से पूर्व ध्यान में बैठते हैं किन्तु अक्सर यह महसूस करते हैं कि सुबह के ध्यान में बहुत अच्छे वायब्रेशन अनुभव नहीं हो रहे। और ही उतना आनंद ही रहा होता है जितना आनंद दिन में अथवा रात्रि में आता है।

इस कारण से हम कभी कभी चिंता भी करने लगते हैं कि आखिर क्या कारण है ? 

उषाकाल के ध्यान में ऐसा क्यों होता है कि ध्यान की बहुत अच्छी स्थिति का अभाव क्यों रहता है ?

मेरी चेतना के अनुसार प्रातःकाल के ध्यान में यदि हम अच्छे से आनंद उठाना चाहते है। तो हमें अपना ध्यान का तरीका इसके प्रति थोड़ा सा नजरिया बदलना पड़ेगा जो दिन रात्रि के ध्यान के अभ्यास से थोड़ा भिन्न होगा।

हममें से अधिकतर सहजी "श्री माँ" के 'साकार स्वरूप' "श्री चरणों" की ओर अपना चित्त केंद्रित करके ही ध्यान में उतरते हैं।

और "उन" पर जाने वाले चित्त की प्रतिक्रिया के परिणाम स्वरूप "उनसे" आने वाली ऊर्जा को अपने हाथों हाथों की उंगलियों में अथवा सहस्त्रार में अनुभव करने के हम आदि होते हैं।

इस अभ्यास के कारण हममें "श्री माँ" द्वैत भाव बना रहता है जो "उनसे" सदा दूरी को ही प्रदर्शित करता है। जिसके कारण हम "उनसे" प्रवाहित होने वाले वायब्रेशन को आसानी से महसूस कर पाते हैं।

यानि कोई चीज यदि दूर से आएगी तो हम उसे आसानी से अनुभव कर अपने संज्ञान में ले सकते हैं।

जैसे कि यदि शीतल बयार अचानक से बहनी प्रारम्भ हो जाये तो जब वह हमारे सम्पर्क में प्रथम बार आकर टकराती है तब हम उसे आसानी से अनुभव कर पाते हैं।

और इसके अगले चरण में जब यह हमारे अस्तित्व गुजर रही होती है तो हमारे अनुभव कुछ बदल जाते हैं। यानि इस दूसरी स्थिति में हम भी उसी बयार का हिस्सा बन जाते है।

तब हमें बयार का प्रवाह स्पष्ट तौर से तो अनुभव नहीं होता किन्तु इसके मंदम मंदम बहाव से हमारा बाह्य अस्तित्व अवश्य आडोलित हो रहा होता है।

ठीक इसी तरह जब हम सुबह के ध्यान में बैठते हैं तो स्वाभिक रूप से हम जाने अनजाने में "परमेश्वरी" के निराकार के साथ एकाकार हो जाते हैं।क्योंकि उस 'अमृत बेला' में हमारे विचार के बराबर होते हैं।

जिनके कारण आम हालातों में हम "माँ आदि शक्ति" की ऊर्जा रूपी "शक्ति" के साथ पूर्ण एकाकारिता स्थापित नहीं कर पाते हैं और "उनसे" सदा दूरी बनी ही रहती है।

और इसी दूरी के कारण जब हम "उन" पर अथवा "उनके" "श्री चरणों" पर चित्त डालते हैं तो हमारा यंत्र विभिन्न स्थानों पर प्रतिक्रिया को प्रगट करता है जो वायब्रेशन के रूप में आभासित होती है।

वास्तव में उषाकाल में विचारों की नगण्यता होने के कारण हम स्वतः ही "माँ आदि शक्ति" के 'निराकार' अस्तित्व से तत्क्षण एकरूप हो जाते हैं और "वह" हमें अपने 'निराकार' अस्तित्व में कुछ देर के लिए समा लेती हैं।

जिसके कारण यकायक उत्पन्न हुई नई परिस्थिति के परिणाम स्वरूप हमें हाथों उंगलियों के पौरवों में वायब्रेशन की कमी अनुभव होती है।

किंतु यदि हम गौर करें तो हम पाएंगे कि ऐसी सुंदर अवस्था में हमारे सम्पूर्ण यंत्र के भीतर धीमी गति से प्रवाहित होने वाला एक करंट सा अनुभव हो रहा होता है।

यानि इस स्थिति में "वो" हमारे यंत्र के समस्त रोम छिद्रों के द्वारा एक स्फूर्ति आनंदाई बयार के मानिद गुजर रही होती हैं।

अतः ऐसी विलक्षण स्थिति में हमें "उनसे" आने वाली वायब्रेशन महसूस करने के स्थान पर "उनको" अपने सूक्ष्म अस्तित्व में प्रवाहित होते हुए ही महसूस करना चाहिए।

तब जाकर ही बिना किसी शंका चेकिंग के हम गहन ध्यान का लुत्फ उठा सकेंगे। यदि यह तरीका पसंद आये तो आप भी इसी प्रकार से इसी भाव में सदा ध्यान का लाभ आनंद उठा सकते हैं।

इस विधि से गहनता में इजाफा ही नहीं होता वरन, "उनसे" एकाकारिता नजदीकी भी अनुभव होती है।"

---------------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"


January 12 2019·