Monday, March 30, 2020

"Impulses"--522--"विभिन्न प्रकार की चेतना स्तर के सहज अनुयायी"--भाग-3


 "विभिन्न प्रकार की चेतना स्तर के सहज अनुयायी"
(भाग-3)

b) ऋणात्मक मनोवृति वाले सहजी:-

7.सांसारिक उपलब्धियों के आधार पर भेदभाव करने वाले सहजी:-

इन सहजियों के वर्ग में आने वाले सहजी अन्य सहजियों के साथ अनेको प्रकार की स्थितियों हालातों के आधार पर भेदभाव पूर्ण व्यवहार करते हैं।

यह अक्सर देखा गया है कि 90% से भी ज्यादा सहजियों का झुकाव वैभव धन से परिपूर्ण/अच्छे पद पर आसीन/समाज में प्रतिष्ठित/दुनिया समाज में मशहूर सहजियों की तरफ अत्याधिक होता है।

और वे कोशिश करते रहते हैं कि उपरोक्त प्रकार की बाह्य विशेषताओं योग्यताओं से समपन्न सहजियों के इर्द गिर्द वह बने रहें।

और ऐसे लोगों के साथ किसी किसी तरह से मित्रता भी स्थापित हो जाय ताकि समय समय पर उनकी सम्पन्नता, सुविधाओं,रसूख प्रसिद्धि का वे निरंतर लाभ उठाते रहें और समाज में उनकी भी कुछ प्रतिष्ठा स्थापित हो जाय।

यदि किसी आम, सामान्य किन्तु गहन सहजी के साथ उनके अच्छे निकट सम्बन्ध रहे होते हैं तब भी वे बाह्य रूप से उन्नत सहजियों को उन गहन सहजियों से ज्यादा महत्व देते हैं।

यहां तक कि कई बार तो इन बाह्य उपलब्धियों से युक्त सहजियों के चक्कर में पड़कर उन प्रेममयी उच्च कोटि के सहजियों की उपेक्षा अपमान करने का प्रयास करने से भी नहीं चूकते।

8.डिस्कशन बहस करने वाले सहजी:-

इस वर्ग में आने वाले 99% सहजी अत्याधिक बुद्धिवादी होते हैं और वे सहज जैसे गूढ़ गहन विषय पर भी अपने अनुभव के स्थान पर अपने मस्तिष्क के द्वारा समझे गए "श्री माता जी" के वक्तव्यों, कथनों, बातों लेक्चर्स पर हर समय किसी भी सहजी के साथ चर्चा बहस करने को उतारू रहते हैं।

जो भी तथ्य इनकी अपनी समझ बुद्धि के अनुसार इनके द्वारा ग्रहण कर लिए गए हैं उन्ही तथ्यों के आधार पर ऐसे सहजी अन्य सहजियों के वास्तविक ध्यान अनुभवों, चिंतन, मनन अनुभूतियों को निरंतर काटते रहते हैं और अनवरत बहस जारी रखते हैं।

और कई बार तो ऐसा होता है कि ये लोग बहस करते करते भाषाई सभ्यता गरिमा तक को खो देते हैं और अपनी बातों को निर्थक अव्यवहारिक तर्कों, वितर्कों कुतर्कों की सहायता से बहुत ही निम्न स्तर तक पहुंच जाते हैं।इस प्रकार के घटनाक्रम अक्सर शोशल मीडिया पर अक्सर दृष्टिगोचर होते रहते हैं।

ऐसे बहस करने वाले सहजी किसी अन्य सहजी के द्वारा शोशल मीडिया पर पोस्ट किये गए उसके व्यक्तिगत अनुभवों की किसी भी पोस्ट को पकड़ कर बैठ जाते हैं।

और अपना पढ़े,सुने, देखे मस्तिष्क से समझे हुए अपने उथले ज्ञान के द्वारा उस अनुभवी गहन सहजी के द्वारा बोली/लिखी गई बातों को काटते हुए हर हाल में उसकी बातों को गलत साबित करने का निर्थक प्रयास करते रहते हैं। ऐसे सहजियों के साथ इन जैसी समझ वाले अन्य सहजी भी जुड़ कर एक गुट बना लेते हैं।

और ये सारे सहजी मिलकर एक के बाद एक पोस्ट करते चले जाते हैं और उस सहजी की सही बातों अनुभवों को हर हाल दबाने का असफल प्रयास करते रहते हैं।

वास्तव में होता ये है कि जब कोई सहजी अपना वास्तविक सत्य अनुभव शेयर करता है। तो ऐसे सहजियों की वर्षों पुरानी ध्यान सहज के विषय बनी हुई उथली धारणाएं टूटने लगती हैं।

जिसकी प्रतिक्रिया स्वरूप ऐसे सहजियों का अहम घायल हो जाता है और वे तिलमिला कर वाक युद्ध प्रारम्भ कर देते हैं।

जब तक ऐसे बहस करने वाले सहजी स्वयम का अपना अनुभव नहीं प्राप्त करेंगे तब तक ये लोग सदा किसी किसी प्रकार की बहस में निरंतर बने ही रहेंगे।

9.सदा विभिन्न प्रकार की आशंकाओं से भयभीत रहने वाले सहजी:-

इस वर्ग में आने वाले सहजी अनेको प्रकार के भयों से सदा घिरे रहते हैं, उनको हर समय कुछ कुछ बुरा होने की शंका सताती रहती है।

क्योंकि ऐसे सहजियों का चित्त सदा इस बात पर बना रहता कि वो जाने अनजाने में कुछ गलत कार्य कर बैठे जिसके परिणाम स्वरूप उनको कोई कोई कष्ट अथवा परेशानी उठानी पड़ जाय।

ऐसे सहजी "श्री माता जी" के लेक्चर्स निरंतर सुनते रहते हैं और अपने स्वयम के कार्यों का आंकलन "उनके" लेक्चर्स के आधार पर निरंतर करते रहते हैं।

ऐसे लोग अक्सर "श्री माता जी" द्वारा बताई गई समस्त बातों का अनुसरण करने में अपने को असमर्थ पाते हैं।

और पालन कर पाने के कारण तुरंत डर जाते हैं कि अब जरूर कोई कोई उनके साथ नकारात्मक घटना अवश्य घटेगी और उनको अनेको प्रकार के दुख अवश्य भोगने होंगे।

ऐसे भयभीत सहजी यह तथ्य बिल्कुल भी नहीं समझ पाते कि "श्री माता जी" ने अपने कथनों के माध्यम से एक आदर्श उच्चतम अवस्था के सहज साधक/साधक के स्तर तक उन्नत होने के लिए हम सभी का मार्ग दर्शन किया हैं।

हमको यह अच्छे से समझना है कि "श्री माता जी" के द्वारा वर्णित उस उच्चतम ध्यान के शिखर तक हम एक दम से नहीं पहुंच सकते।

तो फिर हम आज की अपनी वर्तमान स्थिति की तूलना उस 'सर्वोच्च' अवस्था से करके अपने को क्यों प्रताड़ित करने में लगे हैं।

हमको अच्छे से इस तथ्य को अपने भीतर उतारना होगा कि शनै शनै हमारी आत्मिक तरक्की निश्चित रूप से होती रहेगी।

और "श्री माता जी" की बताई वह समस्त बातें भी हमारे अस्तित्व में धीरे धीरे उतरती परिलक्षित होती जाएगी यदि हम अपने यंत्र में ऊर्जा की अनुभूति के प्रति जागरूकता बनाये रखें।

यह बिल्कुल ऐसा ही है जैसे हमको अपने स्थान से दिल्ली जाना है और हम अपने मोबाइल मैप में GPS द्वारा संचालित नक्शे में दिल्ली लिख कर डाल देते हैं।

तो वह नक्शा हमें दिल्ली की दूरी, बीच में पड़ने वाले स्थान दिल्ली पहुंचने में लगने वाला एक सम्भावित समय बता देता है।

साथ ही वह वर्तमान समय के अनुसार यदि कहीं जाम भी लगा है तो उस जाम का भी सम्भावित समय बता देता है।

और जब हम चलना प्रारम्भ करते हैं तो उस बताए गए समय स्थान की स्थिति की सुनिश्चितता हमारी गति के अनुसार बदलती रहती है।

तो यह सिद्धांत इस सहज ध्यान यात्रा में भी लागू होता है कि जो भी "श्री माता जी" के द्वार हम सबके लिए बताया गया है।

उसको हम अपनी वर्तमान आंतरिक स्थिति, अपनी बाह्य स्थिति, अपनी ग्राह क्षमता, अपनी तीव्रता, अपने आत्मसात करने के तरीके, अपने पूर्व संस्कार अपनी शुद्ध इच्छा के अनुसार की प्राप्त कर सकते हैं।

इन तथ्यों को हम कुछ उदाहरणों के द्वारा आसानी से समझ सकते हैं जो कि 99% सहजियों को अत्यधिक परेशान करते हैं।

जैसे "श्री माता जी" ने अपने कुछ लेक्चर्स में बताया है कि,

●'जब भी हम घर से बाहर जाएं तो बंधन लगा कर जाएं रात्रि में फूट सोकिंग अवश्य करें।'●

तो कई बार बहुत से सहजी बंधन लगाना भूल जाते हैं और जब बाद में उन्हें याद आता है तो वे डर जाते कि आज जरूर निश्चित रूप से हमारे साथ कुछ कुछ बुरा होने वाला है या आज कहीं हमारा एक्सीडेंट हो जाय।

तो कई बार सहजी रात्रि में फूट सोकिंग नहीं कर पाते तो वे हर पल डरे रहते हैं कि उनके भीतर कोई कोई बाधा अवश्य घुस गई है अथवा घुसने वाली है।

इस विषय पर हमारी मामूली समझ यह कहती है कि जब हमने "श्री माँ" के "श्री चरणों" में एक बार अपने आप को समर्पित कर दिया तो फिर अपनी सुरक्षा की चिंता किस लिए कर रहे हैं।

और वैसे भी जो सुनिश्चित है वह तो अवश्य होकर ही रहेगा तो उसके लिये हम कुछ भी नहीं कर सकते सिवाय स्वीकार करने के।

इस भय के विषय पर भी "श्री माता जी" की बताई गई एक बाद हमें याद रही है,

एक बार प्रातः काल के समय कुछ सहजियों को "श्री माता जी" ने सहज के कार्यों के लिए किसी अन्य स्थान पर जाने को बोला और "श्री माता जी" अपने किसी कार्य से चले गए।

शाम को जब वही सहजी "श्री माता जी" को वहीं पर दिखाई दिए तो "श्री माता जी" ने उनसे पूछा कि आप लोग गए क्यों नहीं।

तब सहजियों ने बताया कि, "श्री माता जी" हम जाने को तैयार हो चुके थे तो हमें पता चला कि रास्ते में जंगल पड़ेगा और उस जंगल में एक शेर आया हुआ है इसीलिए शेर के डर से हम वहां नहीं गए।

तब "श्री माता जी" ने कहा,

'कि यदि शेर के द्वारा आप लोगों को खाना लिखा है तो शेर आपको अवश्य खायेगा किन्तु आप सभी डरते क्यों हैं।'

इसके अतिरिक्त एक और ज्वलंत उदाहरण के माध्यम से हम सहजियों के अन्तर्निहित भय को समझने का प्रयास करेंगे।

"श्री माता जी" ने अपने एक लेक्चर में कहा है कि:

"मानव को ध्यान में उन्नत होने के लिए 'काम' की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है। इसका उपयोग मात्र सन्तानोपत्ति के लिए ही किया जाना चाहिए।"

"श्री माता जी" के इस प्रकार के लेक्चर्स हर वर्ग आयु के सहजी सुन रहे होते हैं।

अब जिन सहजियों ने उपरोक्त बाते लेक्चर्स में सुन लीं किन्तु उनकी आंतरिक बाह्य अवस्था "श्री माता जी" की इन बातों का पालन करने की नहीं है।

तो उनके भीतर बहुत जबरस्त दोष भाव जाता है और वह अपने मूलाधार चक्र की पकड़ के प्रति बहुत बुरी तरह आशंकित हो जाते हैं।

वह भयभीत होकर रात दिन यही सोचना प्रारम्भ कर देते हैं कि अब तो तुम्हारी खैर नहीं अब तुम्हें "श्री गणेश" की नाराजगी से कोई नहीं बचा सकता।

वे तो हर चक्र पर विद्यमान हैं अतः अब हमारे सभी चक्र बुरी तरह पकड़ जाएंगे और हमारा आध्यात्मिक उत्थान नहीं हो पायेगा।

यानि बिना अपनी वर्तमान स्थिति का आंकलन किये अधिकतर सहजी अनजाने में अपने द्वारा स्वयं बनाई गई धारणाओं की गिरफ्त में बुरी तरह जकड़े जाते हैं और निरंतर भय से पीड़ित रहते हैं।

अब कुछ सहजी जिनकी आयु 60-70 वर्ष हो चुकी है वे तो एक बार को "श्री माता जी" के इस कथन का पालन कर भी सकते हैं।

किन्तु ऐसे सहजी, जिनका अभी विवाह नहीं हुआ अथवा विवाह होने वाला है या कुछ ही वर्ष पूर्व विवाह हुआ है।

और वे तो 'प्रणय सम्बन्धो' को जीने की अभी पूर्ण अभिलाषा रखते हैं, तो ऐसे अधिकतर सहजियों का आंतरिक संघर्ष प्रारम्भ हो जाता है।

और वे भीतर ही भीतर दोष भाव से ग्रसित होकर भीतर ही भीतर हर पल डरे हुए रहने लगते हैं। स्वयं भी पीड़ित रहते हैं और अपने जीवन साथी को भी जाने अनजाने में तकलीफ पहुंचाते रहते हैं।

तो किसी से कुछ कह पाते हैं और ही शर्म के मारे किसी को अपनी व्यथा सुना ही पाते हैं और ही किसी की सुलझी हुई सलाह उनको प्राप्त हो पाती है।

और यदि हिम्मत करके किसी सीनियर सहजी अथवा संस्था के कॉर्डिनेटर से कह भी दें तो फिर उन बेचारे सहजियों पर तो अक्सर आफतों का पहाड़ टूट पड़ता है।

पहले तो वही महान सहजी उनको "श्री माता जी" के कथनों के द्वारा अच्छे से लताड़ते हैं और फिर उसके बाद उनकी वह व्यक्तिगत बात पूरी तरह से सार्वजनिक हो जाती है।

और वे मुसीबत के मारे सहजी सारे में बदनाम हो जाते हैं और उन्हें सदा के लिए शर्मिंदगी झेलनी पड़ती है।

ऐसे समस्त आंतरिक रूप से संघर्षरत दोष भाव से ग्रसित सहजियों से इस चेतना का यह कहना है कि इस विषय पर स्वयम को तकलीफ दीजिये।

आप सभी सहजी केवल औए केवल इतना कार्य कीजिये कि आप अपने मध्य ह्रदय अपने सहस्त्रार पर स्थित "श्री ऊर्जा" को चित्त के माध्यम से अपनी चेतना में निरंतर शोषित करने का अभ्यास बनाएं।

जैसे जैसे इस 'दिव्य ऊर्जा' का भोजन अपनी 'जीवात्मा'(Soul) करती जाएगी वैसे वैसे आपकी चेतना सूक्ष्म समझ विकसित होती जाएगी। और उन्नत होती हुई चेतना आपके ह्रदय में उन्नत होने के लिए नई नई प्रेरणाएं प्रदान करती जाएगी।

जो आपको आध्यात्मिक रूप से विकसित होने में मदद करेगी साथ ही समस्त प्रकार के दोष भावों का निराकरण भी करती जाएगी।

इस चेतना की सरल किन्तु सूक्ष्म समझ यह कहती है कि "श्री माता जी" के समस्त लेक्चर्स हम सभी के लिए एक बहुत बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर जैसे हैं। जहां पर मानव उपयोग में आने वाली हर वस्तु, सुविधा सेवा प्राप्त की जा सकती है।

हम उस बड़े स्टोर से सभी वस्तुएं तो अपने घर नहीं लाते वरन, जिसकी हमें आवश्यक्ता होती है वह अपने बजट घर के आकार प्रकार के अनुसार ले कर जाते है।

ठीक इसी प्रकार से "श्री माता जी" के समस्त लेक्चर्स को हम अपनी सूक्ष्म समझ चेतना के स्तर के अनुसार ही अपने अस्तित्व में उतारेंगे तो किसी भी प्रकार का आंतरिक संघर्ष भय हमारे भीतर उत्पन्न नहीं होगा।

यदि फिर भी कुछ उलझन लगे तो "श्री माता जी" से गहन ध्यान अवस्था मे प्रार्थना करें कि "वे" हमको 'अपनी' उन सभी बातों को धारण करने की सामर्थ्य प्रदान करें।

साथ ही एक कार्य हम और भी कर सकते हैं कि जो भी इस प्रकार के लेक्चर्स हैं उन्हें मात्र कानों से सुनकर मन में संचित करें।

अपितु उन सभी लेक्चर्स के शब्दों में जो अन्तर्निहित 'दैवीय ऊर्जा' व्याप्त है उस 'ऊर्जा' को अपने सहस्त्रार के माध्यम से अपने मध्य ह्रदय तक शोषित करें।

क्योंकि हमारा यह व्यक्तिगत अनुभव है कि जिन तथ्यों पर भी "श्री माँ" के मुखारविंद से जो भी 'शब्द' उच्चारित होते हैं।

उन समस्त शब्दों में उन तथ्यों रूपी बीजों को हमारी चेतना के भीतर रोपित करने की शक्ति क्षमता विद्यमान होती है।

और जब हम निरंतर सहस्त्रार मध्य ह्रदय में अपना चित्त टिका कर ध्यानास्थ रहते हैं और ध्यान की ऊर्जा हमारे भीतर भ्रमण करने लगती है।

तब ही जाकर वह रोपित शब्द रूपी बीजों में कुल्ले फूटने प्रारम्भ हो जाते हैं और हमारे भीतर आत्मज्ञान का पौधा फूट पड़ता है और धीरे धीरे विकसित होने लगता है।

और एक समय आता है जब हमारी चेतना हमारे स्वयम के द्वारा अर्जित ज्ञान से सुवासित होने लगती है। और हमारे माध्यम से अनेको सहजियों को उनके ध्यान में विकसित होने की प्रेरणा मिलने लगती है।

अतः "श्री माता जी" के वक्तव्यों से भयभीत होने के स्थान पर हमें उन वक्तव्यों के भीतर अन्तर्निहित ऊर्जा शक्तियों को निरंतर ग्रहण करते जाना है।

ताकि हमारी चेतना के भीतर आध्यात्मिक उत्क्रांति का घटनाक्रम प्रारम्भ हो सके और हम अपने समस्त प्रकार के भय सांसारिक झुकावों से ऊपर उठ पाएं।

एक पुरानी कहावत है:

"हाथ कंगन को आरसी क्यापढ़े लिखे को फारसी क्या।"

*"वास्तविक ज्ञान वो है जो हमारी नसों, नाड़ियों में खून के साथ प्रवाहित होता है। जो हमारी अंतर्चेतना ह्रदय को निरंतर प्रफुल्लित रखता है। जब हमारे भीतर 'सदज्ञान' का उदय होता है तो हमारा अंतर्मन पुष्प सम खिल उठता है। 

*'दिव्य ऊर्जा' की धारा हमारे सूक्ष्म यंत्र को प्लावित करना प्रारंभ कर देती है। और हमारे अवचेतन मन में समाए हर प्रकार के भय समाप्त होने लगते हैं।"*

------------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"


.........To be Continued,