Wednesday, August 24, 2016

"Impulses"---300

"Impulses"

1)"जैसे कि एक सड़ा हुआ फल पानी में डालने पर दूसरे अच्छे फलों से दूर होकर पानी की सतह पर जाता है और तैरता रहता है। ताकि उसके संपर्क में आने पर बाकि के फल सड़ने लगें।

वैसे ही हलके अस्तित्व का मानव छोटी सी विपत्ति आने पर ही पूरी तरह विचलित हो जाता है और परेशानी से बचने के लिए प्रकृति व् "परमात्मा" विरोधी कार्य तक कर डालता है और अच्छे लोगों से स्वतः ही दूर हो जाता है।

इसी प्रकार से छिछला व्यक्तित्व, ज्ञानि व्यक्तित्व के संपर्क में आने पर अपनी हीनता व् तुच्छता को छिपाने लिए मन के कोष में स्थित कुछ दूसरे ज्ञानियों के ज्ञान का इस्तेमाल कर सबके सामने ज्ञान बघारना प्रारम्भ कर देता है और अपने को श्रेष्ठ साबित करने का प्रयत्न करता है।

और इस प्रकार के प्रयत्न करते ही वह उथला सबित हो जाता है और वास्तविक ज्ञानियों के हृदय से स्वम् ही उतर जाता है, क्योंकि वह प्रतिस्पर्धा से प्रभावित होकर ज्ञान बांच रहा होता है,अनुभव विहीनता के कारण उसमे ऊर्जा विद्यमान नहीं होती है।


2)"अक्सर हम सदा यही सुनते आये हैं कि इस संसार में जन्म देने वाली व् लालन पालन करने वाली माता महान होती है क्योंकि वो जन्म देने के समय व् बच्चे को बड़ा करते समय अनेको कष्ट उठाती है अतः उस माँ का ऋण संतान के द्वारा कभी भी चुकाया नहीं जा सकता।

परंतु क्या हमने कभी गहनता ये चिंतन किया है कि एक स्त्री को 'मातृत्व' का गौरव प्रदान करने में एक जीवात्मा(Soul) का कितना बड़ा योगदान है कि उसने एक स्त्री को समाज में नीचा देखने से बचा लिया।

यदि उसे मातृत्व सुख मिलता तो उस स्त्री को आम लोगो के द्वारा 'अभिशिप्त' माना जाता व् उस स्त्री का सम्मान करने के स्थान पर सर्व साधारण समाज उसकी उपेक्षा ही कर सदा उसका तिरस्कार ही करता रहता।

अतः वास्तव में ऋणी तो वह स्त्री भी है जिसको माँ कहलाने का गौरव प्राप्त हुआ है और वो माँ भी उस 'करुणामयी जीवात्मा' का ये कर्ज कभी नहीं उतार सकती।

जिसकी चेतना को प्रसन्न व् संतुष्ट देखने के लिए उस जीवात्मा ने उसके अवचेतन की मार्मिक-क्रंदन से आच्छादित पुकार व् आर्तनाद को सुन नौ माह तक गर्भ रूपी नर्क में रहना स्वीकार किया व् इस कष्टों से भरे संसार में जन्म लेकर अपने लिए भी अपने शरीर की मृत्यू तक अनेको कष्टों का सहर्ष वरण किया।


यानी दोनों ही एक दूसरे के कभी उतार पाने वाले ऋण के लिए ऋणी हैं।"

-----------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

Tuesday, August 16, 2016

"Impulses"---299-- "परम शक्ति"

 "परम शक्ति"    

"हम सभी लोग अपने दैनिक जीवन में इस जगत को संचालित करने वाले 'अदृश्य अस्तित्व' को अनेको रूपों व् नामों से संबोधित करते रहते हैं। क्या हमने कभी शांति से बैठकर ये चिंतन किया है कि आखिर इस 'दिव्य अस्तित्व' को हम सभी के द्वारा इतने नामो से क्यों पुकारा जाता है ? एक नाम से भी तो काम चल सकता था।

तो आइये, चलते हैं इन अनेको नामो को अपनी अपनी चेतना के सामर्थयानुसार समझने व् ग्रहण करने के लिए इक 'चिंतन यात्रा' पर ताकि इन नामो की विभिन्नता के वास्तविक कारणों व् उद्देश्य को आत्मसात किया जा सके। हम सभी मानवों को अपने जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए अपने "रचनाकार" के प्रति विश्वास बनाये रखने की कुछ कुछ आधार की आवश्यकता पड़ती रहती है।

इसी कारण जो भी आधार हमको अपने पूर्व संस्कारों व् वर्तमान माहौल से प्राप्त होता है हम अक्सर उसी "विश्वास" के प्रतीक उस रूप या नाम का स्मरण करते रहते हैं व् अपना जीवन हर प्रकार की सुख-दुःख की स्थितियों व् परिस्थितियों में व्यतीत करते रहते हैं।
हमारे विश्वास का प्रारम्भ अधिकतर हमारे:---

i) कुलदेवता=कुल+देवता, से होता है यानि हमारे अच्छे पूर्वज, जो अक्सर 'सर्प-योनि' में रहते हैं जिनको हम अपनी 'जीवात्मा'(Soul) में 'उनके प्रेम व् सुरक्षा की एक शक्ति के रूप में महसूस करते हैं, जो हमारे विश्वास के अनुसार हमारे पूरे कुल की रक्षा करते है जिनके लिए हममे से कुछ लोग अक्सर एक कमरा अपने घरों में बना कर उसे स्वच्छ रखते हैं और हर ख़ुशी के अवसर पर उन्हें भोग भी लगाते रहते हैं

ii) ईश्वर=इष्ट+वरण, यानि किसी भी देवी या देवता के स्वरुप को हम अपने पूर्व या वर्तमान संस्कारो के फलस्वरूप हृदय में स्थान देते हैं और अक्सर अपनी 'आत्मा' के भीतर अपने साथ उनका आभास करते रहते हैं और अनेको अवसरों पर हम उनका स्मरण करते हुए उनकी उपासना करते हैं। हर दुःख-सुख की घड़ी में उनको नमन करते हैं।

iii) भगवान्==भूमि, =गगन, व्=वायू, =अग्नि, =नीर, यानि पांचो तत्वों को धारण करने वाला व् संचालित करने वाला अस्तित्व जो अपनी 'शक्ति' यानि "माँ भगवती" की सहायता से इस 'धरा' पे स्थित समस्त प्रकार के जीवनों की देखभाल करता है, रक्षा करता है व् न्याय व्यवस्था को संचालित करता है।

iv) परमात्मा=परम+आत्मा, यानि एक ऐसा विलक्षण "अस्तित्व" जो हम सभी मानवो की प्रकाशित आत्माओं के माध्यम से हमारे अंतर्मन में मौन वार्तालाप कर हम सभी का मार्ग-दर्शन करता है व् हमारे भौतिक व् आध्यात्मिक जीवनों को सुन्दर बना हमें हर क्षेत्र में विकसित होने की व्यवस्था करता है।

v) परमेश्वर=परम+ईश्वर, यानि हमारे ब्रह्माण्ड के 'संचालक', इस ब्रहम्मांड के कण कण में व्याप्त एक ऐसा "महान अस्तित्व" जो अपनी 'शक्ति' "परमेश्वरी" के माध्यम से जड़ व् चेतन अस्तित्वों व् मानवो के हृदय में स्थापित समस्त 'इष्टों'(ईश्वरो) को जागृत कर उन्हें शक्ति संपन्न बनाता है व् उनको अपने प्रेम से उनको पुष्ट करता है।

vi) परमपिता=परम+पिता, यानि समस्त ब्रह्ममांडो के समस्त संचालको के 'संचालन कर्ता', जिनकी शक्ति "सर्वेश्वरी" समस्त रचना को सुचारू रूप से संचालित करती हैं।

vii) पारब्रहम्परमेश्वर=पार+ब्रहम्+परमेश्वर, यानि, समस्त ब्रह्ममांडो से परे रहने वाले+परमेश्वर, जो अपने उपरोक्त 'पदों'(नामों) व् 'रूपों' के द्वारा अपनी "प्रथम शक्ति", "आदि शक्ति" के माध्यम से इस सम्पूर्ण रचना के 'अलौकिक नेटवर्क' को व्यवस्थित व् संचालित करते हैं। 

और "वही" हमारी 'प्रकाशित आत्मा' के माध्यम से गहन ध्यान अवस्था में मुखर होते हैं क्योंकि हमारी आत्मा "पारब्रह्म" का ही अंश है जिसको "उन्होंने"अपनी रचना का अनुभव कराने के लिए "माँ आदि शक्ति" के अंश कुण्डलिनी के साथ इस धरा पर मानव देह में जन्म दिया है।

कुण्डलिनी व् आत्मा मानव देह धारण करने पर मानव की अनेको विभूतियों यानि, चेतना, बुद्धि, विवेकशीलता, मन, आदि को जागृत कर इन सभी के साथ "जीवात्मा" रूपी 'अस्तित्व' में स्थापित हो जाते हैं। और "जीवात्मा" मानवीय चेतना की उच्चतम अवस्था यानि 'पूर्ण मुक्त अवस्था' प्राप्त होने तक तक बारम्बार जन्म लेती रहती है।"
----------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"