Tuesday, August 2, 2016

"Impulses"--296--"विचलन"

"विचलन"

"देखा गया है कि जो लोग पूर्ण हृदय से "श्री माँ" से जुड़े रहने की अभिलाषा मन में रखते हैं और दिल लगाकर गहन 'ध्यान' में उतरने के लिए लालायित रहते है व् इसके लिए अभ्यास के लिए सदा तत्पर रहते हैं। 

वे अक्सर अपने जीवन में घटित होने वाली छोटी छोटी नकारात्मक व् सांसारिक घटनाओं से ही काफी विचलित हो जाते हैं। 

जबकि 'ध्यान' में जुड़ने से पूर्व बड़ी बड़ी विपरीत परिस्थितियों में भी अपने को किसी तरह से संभाल लेते थे पर अब बहुत ही तुच्छ घटनाएं भी हृदय पर असर डालने लगी हैं।

उनको ऐसा प्रतीत होता है की मानो उनका सारा सुख-चैन नष्ट हो गया हो और वो एक प्रकार के नर्क में जीने के लिए मजबूर हों।
ऐसा महसूस कर वो और भी ज्यादा "श्री माँ" की ओर झुक जाते हैं और "उनसे" ऐसी परिस्थितियों से बाहर निकालने के लिए प्रार्थना करते हैं।

ऐसा क्यों महसूस होता है साधकों/साधिकाओं को.....? जबकि आम लोगों से हम ज्यादा शक्तिशाली बन रहे हैं, "परमपिता" से नजदीकी का भी एहसास होने लगा है तो फिर इस प्रकार से हम क्यों पीड़ित महसूस करते है,.....?

क्यों ऐसे लोगों को सहन नहीं कर पाते जो प्रकृति व् 'परमात्मा' के विपरीत जीवन जीते हैं....?

जो लोग सहज का विरोध करते हैं व् "श्री माँ" को सम्मान नहीं देते, उनसे दूर जाने की इच्छा क्यों हृदय में बलवती होने लगती है.....? फिर चाहे वो लोग हमारे जीवन मे कितने ही नजदीक क्यों रहे हों।

उपरोक्त प्रश्न सहजियों को अक्सर परेशान करते रहते हैं परंतु कोई भी रास्ता सुझाई नहीं देता।

वास्तव में "ध्यान" अवस्था में निरंतर प्राप्त होने वाला "श्री माँ" का प्रेम हमें सत्य के प्रति अत्यधिक संवेदनशील बना देता है जिसके कारण हमारे सुप्त 'ज्ञान चक्षु' धीरे धीरे खुलने लगते है और हम असत्य से दूर होने लगते हैं।

दूसरे, ध्यान में प्राप्त होने वाले आनंद के हम 'आदि' होने लगते हैं जो हमारे भीतर एक सुखद शांति की स्थापना कर देता है जिसे हम किसी भी प्रकार से नष्ट होता नहीं देख पाते और तुरंत विचलित हो जाते हैं।

ऐसी परिस्थितियों व् व्यक्तियों से हम दूर हो जाना चाहते हैं, यदि किन्ही कारणों से दूर हों पाये तो हमे नर्क जैसी अनुभूति होती है। परन्तु ऐसी हृदय अवस्था ही तो हमे उत्थान मॉर्ग पर अग्रसर करती है।"

---------------------Narayan

"Jai Shree Mata Ji"



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