Thursday, June 23, 2016

"Impulses"--289--"विपरीत-समय-व्यवस्था"

 "विपरीत-समय-व्यवस्था"


हममे से बहुत से सहज अभ्यासी पूर्वप्रारब्ध के परिणामो के कारण कभी-कभी गंभीर समस्यायों में घिर जाते है, एक के बाद एक परेशानी आती चली जाती है और उनमे उलझते ही चले जाते है कोई भी रास्ता उनसे बाहर आने का सुझाई नहीं देता। और वे निरंतर उन्ही दिक्कतों के विषय सोचते ही रहते है क्योंकि कोई  कोई मार्ग ढूँढने का प्रयास कर रहे होते हैं और साथ ही उस व्यक्ति विशेष के विषय में भी रात दिन विचार करते  रहते हैं जिसके कारण उन्हें वो पीड़ाएँ मिल रही होती हैं।

कभी कभी भीतर ही भीतर अत्यंत क्रोधित भी हो जाते हैं और उस व्यक्ति को अपना दुश्मन मान बैठते हैं और नाकारात्मक चिंतन प्रारम्भ कर देते है। और कभी सोच सोच कर हतोत्साहित हो जाते हैं जिसके कारण उनका यंत्र कमजोर होने लगता है और उनका विवेक धीरे धीरे अपना अस्तित्व खोने लगता है।

हांनिकारक भावनाओं की लहरें उनके अंतर्मन में उठने लगती हैं और वे अपने को पूर्णतया असंतुलित व् असहाय महसूस करने लगते हैं। नका चित्त, ध्यान व् "श्री माँ" से हट कर अपने को बचाने के लिए विभिन्न प्रकार की योजनाओं को बनाने में खपने लगता है और उनके भीतर ये धारणा घर करने लगती है की जब तक उक्त व्यक्ति जीवित है तब तक उन्हें चैन नहीं मिलेगा।

अतः अनजाने में वे प्रभु से उस व्यक्ति की 'मृत्युकी कामना करने लगते हैं जिससे उन्हें इस संकट से मुक्ति मिल जाए और यहाँ तक कि कभी कभी भीतर ही भीतर में तंग होकर उस व्यक्ति के जीवन को किसी प्रकार से नष्ट करने की भी सोचने की कल्पना भी करने लगते हैं। जिसके कारण उनके भीतर ऊर्जा का स्तर गिरता जाता है और उनको वाइब्रेशन आने कम हो जाते हैं क्योंकि वे नकारात्मकभावनाओं के वशीभूत होकर अनजाने में 'प्रकृति' व् "परमात्मा" के विपरीत जाना प्रारम्भ कर देते हैं क्योंकि उन्हें कहीं से भी कोई आशा की किरण नजर नहीं रही होती।

तो आखिर ऐसी स्थिति में क्या किया जाए ? किस प्रकार से अपने मनोभावों को संतुलित कर "श्री माँ" के प्रति समर्पित हुआ जॉय ? किस प्रकार से अपने भीतर शांति की स्थापना की जाएये एक प्रकार से उनके सम्मुख एक बेहद कठिन चुनौती जाती है और उनको अपनी सारी समझ व् अपना सारा ज्ञान बेमानी लगने लगता हैं।उनको ऐसा प्रतीत होने लगता है कि जैसे उनका अस्तित्व अब मिटने ही वाला है।

यदि गहनता से चिंतन करके देखा जाए तो पाएंगे कि हम वास्तविक कठिनाइयों से भी ज्यादा अपने नकारात्मक दृष्टिकोण के कारण ज्यादा पीड़ित महसूस कर रहे हैं, जिसका नकारात्मक प्रभाव हमारे सम्पूर्ण यंत्र व् मनो-दशा पर पड़ रहा है। वास्तव में हमारे भौतिक जीवन में हो वो ही रहा है जो पूर्व-निर्धारित था।लेकिन केवल उन्ही परेशानियों व् उस व्यक्ति के बारे में लगातार सोचने के कारण ही हम स्वम् नकारात्मक-कल्पनाओं को जन्म देते जा रहें है जो हमें एक पल भी शांति से रहने नहीं दे रहीं।

इस दयनीय स्थिति से बाहर निकलने के लिए बारम्बार ध्यान के समय अपनी सामर्थ्यानुसार कम से कम 30-40 सेकिण्ड तक 'सांस अंदर भर कर', "सांस रोकने" व् धीरे धीरे "सांस छोड़ने" का अभ्यास किया जाये,इससे हमारे सहस्त्रार में एक सुखद सा 'दवाब' व् मध्य हृदय में एक 'भीतर की ओर आनददाई खिंचाव' अनुभव होने लगेगा जो कुछ लोगों की चेतना के लिए बिलकुल नया होगा। जो दोनों केंद्रों पर "ऊर्जा" को बढाकर 'निर्विचारिता' को स्थापित करने में हमारी मदद करेगा और हम अपने अंतस में अपूर्व शांति महसूस करेंगे।और ऐसी स्थिति में हमको अपने समस्त अच्छे-बुरे विचार "श्री चरनन" के हवाले कर देने होंगे।

एक बात हमें अच्छे से समझनी है कि जैसे जैसे हम स्वम् को हानि पहुचाने वाले उस व्यक्ति के बारे में सोचते जाते है वैसे वैसे ही उसके दाहिने आज्ञा में बैठे हुए शैतान हमारे स्वम् के आज्ञा में सक्रीय होने लगते है जो हमारे मन में उलटी सीधी कल्पनाओं के माध्यम से हमें हानि पहुँचाने लगते हैं। इसके अतिरिक्त पूर्व-प्रारब्ध से उत्पन्न परेशानियों के विषय में निरंतर सोचते रहने की वजह से नव-ग्रहों के द्वारा दी जाने वाली सजा का असर भी हमारे मन में ज्यादा गहरा होने लगता हैं।

यदि हम हर प्रकार की पीड़ाओं व् परेशानियों के एहसास से दूर जाना चाहते हैं तो हमें अपने चित्त को केवल और केवल "श्री माँ" के साथ जोड़कर रखना होगा जिससे पीड़ाओं में कमि महसूस होने के साथ साथ हमारा आध्यात्मिक उत्थान भी होता रहेगा। क्योंकि जब नव-ग्रह ये देखते है कि हम साधक/साधिकाओं का चित्त "श्री माँ" से जुड़ा है तो वो सजा देने के स्थान पर उलटे हमें पुरूस्कार देने की व्यवस्था करने लगते हैं और साथ ही हमें तकलीफ देने वाले व्यक्ति के भीतर "माँ आदि" शक्ति की 'ऊर्जा' का जाना प्रारम्भ हो जाता है।

क्योंकि वो जब भी हमें नुक्सान पहुंचाने के इरादे से हमारे बारे में सोचेगा तुरंत हमारे सहस्त्रार पर विराजी हुई "माँ अदि शक्ति" अपना प्रेम उस व्यक्ति के सहस्त्रार पर प्रेषित करना प्रारम्भ कर देंगी। जिससे या तो वो व्यक्ति परिवर्तित होने लगेगा या फिर उसको उसी के "रुद्रो" के द्वारा सजा मिलनी प्रारम्भ हो जायेगी और वो हमें पीड़ा देने के योग्य नहीं रह जाएगा। इस प्रकार से हमारी समस्याएं समापन की ओर चलना प्रारम्भ कर देंगी।"

----------------------------Narayan

"Jai Shree Mata Ji"