Wednesday, August 1, 2018

"Impulses"--456--"पूर्व संस्कार=ध्यान बाधाएं


"पूर्व संस्कार=ध्यान बाधाएं"

हममें से अनेको सहजी अक्सर अपने आध्यात्मिक मार्ग को लेकर अपने भीतर कोई कोई 'अवधारणा' बना कर रख लेते हैं। और उन्ही अवधारणाओं के आधार पर ही अपने ध्यान में उतरते हैं यहां तक कि उनके आधार पर वे अपने नजरिये आचरण में भी परिवर्तित लाना प्रारम्भ कर देते हैं।

वास्तव में वो धारणाएं कुछ और नहीं बल्कि हमारे स्वम् के पूर्व जन्म अथवा इसी जन्म के पूर्व संस्कारों का ही परिणाम होती हैं। और यही पूर्व संस्कार समय समय पर हमारे आंतरिक उत्थान में आड़े आते रहते हैं और हमें वास्तविक आध्यात्मिक उत्थान से दूर करते जाते हैं।

क्योंकि हम अज्ञानता वश अपनी चेतना को बारम्बार उनमें उलझाते रहते हैं और अपने अस्तित्व को भी नासमझी में पीड़ा पहुंचाते रहते हैं।
जबकि ऊपरी तौर पर ये संस्कार बड़े ही आकर्षक सार्थक प्रतीत होते हैं।

वो संस्कार हैं :-

मुझे क्या पसंद है और क्या नापसंद हैं,

ये मेरा उद्देश्य है,

मुझे ये हांसिल करना है,

मुझे अपनी इमेज वैसी बनानी है,

मुझे सभी के सामने स्वम् को श्रेष्ठ आकर्षक दिखना है,

मुझे अपनी आध्यात्मिक उन्नति का सभी के सामने प्रदर्शन करना है, ताकि सभी मेरी बात मान सकें,

मुझे "श्री माँ" का कार्य अच्छे से करके सभी के लिए उदहारण बनना है,

मुझे सभी की प्रशंसा का पात्र बनना है,

जिन्होंने मुझे पीड़ा पहुंचाई है उन्हें निम्न साबित करना है,

मुझे सर्वश्रेष्ठ सहज साधक/साधिका बनना है,

मुझे अपने वक्तव्यों से सभी को मंत्रमुग्ध कर देना है,

मुझे इतना ज्ञान पाना है कि मैं हर प्रश्न का उत्तर जान सकूँ,

और सभी को उन प्रश्नों के उत्तर से अवगत करा सकूं,

मैं "श्री माँ" का सबसे अच्छा बालक/बालिका सिद्ध हो सकूं,

विश्व के समस्त सहाजियों के बीच में मैं पहचाना जाऊं,

सभी सहजी मेरा मान सम्मान करें और मेरी बातों को महत्व दें,

मैं सारी दुनिया में "श्री माँ" का संदेश प्रचारित कर "माँ" के अवतरण के बारे में सभी को सिद्ध कर सकूँ,

मैं अपने मोक्ष को प्राप्त करूँ, इसके लिए मुझे अनेको प्रयास करने है,

ये उपरोक्त प्रकार की आंतरिक भावनाएं ही हमारे 'सत्य' के मार्ग की वास्तविक बाधाएं हैं। क्योंकि इन भावनाओं के चलते "श्री माँ" 'अपने' अनुसार हमें 'अपना' यंत्र नहीं बना पाती।

यदि हम सूक्ष्मता से ध्यानस्थ अवस्था में चिंतन करेंगे तो पाएंगे कि वास्तव में ये उपरोक्त संस्कार हमारे अवचेतन में छुपे हुए 'प्रति-अहंकार' का ही परिणाम है।

क्योंकि ये संस्कार तभी उदय होते हैं जब कभी कभी किसी पूर्व काल में हमने किसी किसी प्रकार की हींन भावनाओं के साथ जीवन जिया है।ये सोचें हीनता के एहसास के परिणाम स्वरूप ही पनपती हैं।

क्योंकि ये सभी बाते हमारे मन से उत्पन्न हुई हैं जो केवल और केवल भूत काल पर ही आधारित होता है। और समस्त प्रकार के पूर्व संस्कारों को हमारा अवचेतन ही संचालित करता है।

वास्तव में जो भी हम सोचते हैं उसके द्वारा हम शास्वत सत्य को कभी स्पर्श भी नहीं कर सकते। किन्तु अपनी चेतना में गहनता विकसित कर हम उसे अपनी जागृति में अवश्य धारण कर सकते हैं।

अतः इन समस्त भावनाओं को "श्री चरणों" में हमें समर्पित कर अपनी चेतना को इन भ्रमो के भार से मुक्त कर देना चाहिए। और पूर्ण रूप से रिक्त होकर हर स्तर पर "श्री माँ" के सानिग्ध्य का आनंद उठाना चाहिए।

इन संस्कारों को हटाने के लिए सर्वप्रथम हम सभी अपने चित्त को अपने मध्य हृदए पर रखेंगे और कुछ देर तक "श्री माँ" की उपस्थित का आनंद उठाएंगे।

इसके उपरान्त अपनी चेतना को अपनी आत्मा के साथ जोड़ लेंगे और इसके प्रेम को अपनी चेतना में महसूस करते हुए आत्मा के आलोक में अपने हृदए के चारों ओर छाये हुए इन विकारों की ओर अपने चित्त को रखेंगे।

अब कुछ देर के लिए अपनी स्वांसों में, अपनी रोम रोम में, अपने सम्पूर्ण सूक्ष्म यंत्र में, अपने चारों ओर, हर स्थान पर 'निराकारा' "माँ" को ऊर्जा के रूप में महसूस करते हुए कुछ और देर के लिए ध्यान समाधि में उतर जाएंगे है।

जब तक भी ये उपरोक्त संस्कार हमारी चेतना पर अपना प्रभाव जमाते रहें। तब तक ध्यान की इसी प्रक्रिया को हर ध्यान की बैठक में दोहराते रहें।कुछ समय बाद स्वतः ही इनसे पीछा छूट जाएगा।"

---------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

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