Tuesday, December 20, 2016

"Impulses"---324---"मानवीय चेतना"


"मानवीय चेतना"

"अक्सर हममे से कुछ लोग अपनी चेतना की बात करते हैं और कभी कभी सम्पूर्ण जगत में व्याप्त "चेतना" की बात करते रहते हैं, जब ये दोनों ही 'चेतना' हैं, तो आखिर दोनों में क्या अंतर है ? हम किस प्रकार से इनको समझ सकते हैं ?

मेरी चेतना के अनुसार सार्वभौमिक "चेतना" "परमपिता" की इस रचना के कण कण में व्याप्त है और हम मानव "उनकी" रचना की सर्वश्रेष्ठ कृति हैं और हमारे भीतर भी "उनकी" चेतना उपस्थित है।

क्योंकि इस सर्वोत्तम कृति में अपने भीतर इस सम्पूर्ण रचना के ज्ञान को अपने 'संज्ञान' में लेकर उन्नत होते हुए पूर्णता को प्राप्त होने की विशेषता मौजूद है जिसे "मानवीय चेतना" के नाम से समझा जा सकता है।जो किसी भी अन्य प्राणी में उपलब्ध नहीं है

यानि हमारी मानवीय चेतना एक "कोष" के रूप में हमारे साथ है जिसे हम अपने बाह्य व् भीतरी जगत की अनुभूतियों व् अनुभवों के द्वारा उस 'उपस्थित ज्ञान' को शनैः शनै अपने 'संज्ञान' में लेते हुए भरते जाते हैं। जिससे हमारी आंतरिक समझ विकसित होती जाती है।सरल शब्दों में हम इसे अपना "संज्ञान-कोष" भी कह सकते हैं।

जबकि हमारा मन हमारे लिए "ज्ञान-कोष" का कार्य करता है जिसमे समस्त सूचनाएँ एकत्रित होती रहती हैं और 'ध्यान' अवस्था में अपने अनुभवों से गुजरकर हम 'मन के ज्ञान' को अपने 'संज्ञान' में धीरे धीरे लेते हैं।इस संज्ञान में लेने की प्रक्रिया को ही हम अपनी चेतना का विकसित होना कहते हैं।

इन दोनों के अंतर को हम "आत्मा" व् "परमात्मा" के अंतर के द्वारा भी समझ सकते है। जैसे हमारी "आत्मा" पूर्ण जागृत होने पर "परमपिता" को अभिव्यक्त करती है।इसको एक और उदहारण से भी आत्मसात किया जा सकता है।

'मानो इस धरा पर सूर्य का प्रकाश("कण कण में व्याप्त चेतना) बिखरा हुआ है और यह प्रकाश हमारे घर की खिड़की या जाल के माध्यम से हमारे अपने घर(मानवीय चेतना) में आकर पुरे घर को भी प्रकाशित(संज्ञान में लेना) करता रहता है


अतः हमारी जागृत 'चेतना' ही वो खिड़की है जिसके माध्यम से "पूर्ण चेतन" को अपने भीतर महसूस करके अपने अस्तित्व को विकसित किया जा सकता है।"
----------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

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