Tuesday, May 28, 2019

"Impulses"--491--"अति-भजनाचरण-उपाय"


"अति-भजनाचरण-उपाय"

"यह अक्सर देखा गया है कि हममें से बहुत से ध्यान का आनंद लेने वाले सहजी पूजा हवन के कार्यक्रमों के दौरान गाये जाने वाले अनेकों भजनों से काफी बेचैनी का अनुभव करते हैं। क्योंकि आवश्यकता से अधिक भजन पूजा के समय को अत्यधिक लंबा कर देते हैं।

जिसके कारण जमीन पर सुखासन में बैठने वाले सहजियों के पांव सो जाते और उनमें तीखा दर्द होने लगता है इसके साथ साथ कमर में भी पीड़ा अनुभव होने लगती है।

जिसके कारण सहजी बार बार अपने बैठने की पोजिशन बदलते रहते हैं जो उनके स्वयं के ध्यान की एकाग्रता को भी भंग करता है साथ ही नजदीक बैठने वाले सहजी के ध्यान में भी विघ्न पहुंचाता है। वैसे तो सही मायने में हवन/पूजा डेढ़ घंटे में समाप्त हो जानी चाहिए।

किंतु पूजा के लिए तैयार होकर आए कुछ भजन गायक अपने अपने 4-5 भजन सभी को सुनाने को तत्पर रहते हैं जिसके कारण समय खिंचता ही जाता है। कभी कभी तो 20-22 भजन तक हो जाते हैं।

वास्तव में हममें से अधिकतर लोगों का झुकाव इड़ा नाड़ी की तरफ ज्यादा होता है जिसके कारण उन्हें भजनों में बहुत मजा आता है।

और इसके विपरीत जो लोग पिंगला नाड़ी प्रधान होते हैं उनको कर्मकांड, मंत्रोचारण ताली बजाकर नृत्य करना अत्यधिक प्रिय होता है, वो भी पूजा/हवन आदि में भजनों का लुत्फ ले लेते हैं।

हालांकि एक तथ्य की बात यह भी है कि जिन लोगों के मन विभिन्न प्रकार के दुखों से हर समय पीड़ित रहते हैं उनको सन्तुलन में आने के लिए सहज क्रियाएं, मंत्रोचारण नृत्य लाभ दायक होते हैं।

और इसके विपरीत जो सहजी हर समय घोड़े पर सवार हो अतिकर्मिता से बाधित होते हैं उनको सन्तुलित होने के लिए भजनों में शरीक होना भक्ति में डूबकर भजन गाना हितकर होता है।

किंतु जो सहजी मध्यमार्गी होते हैं, यानि सुषुम्म्ना पर स्थित होते हैं उनको मौन अवस्था में निष्क्रिय ध्यान में ही आनंद आता है। वास्तव में केवल सुषुम्ना प्रधान सहजी ही सही मायनों में ध्यान का मजा वास्तविक लाभ उठा पाते हैं।

किंतु वो भी तीन चार घंटो तक लगातार बिना हिले ढुके नहीं बैठ पाते और डेढ़ दो घंटे बाद प्रतीक्षा करने लगते हैं। कि पूजा का कार्यक्रम कब खत्म हो और वह शारीरिक रूप से कुछ आराम महसूस कर पाएं।

सुषुम्म्ना पर स्थिति ऐसे सहजियों को यह चेतना कुछ व्यवहारिक सुझाव देना चाहती है। जिनको अपना कर ऐसे सहजी लंबी पूजा/लंबे हवन में बिना किसी शारीरिक पीड़ा के ध्यान में बने रह सकते हैं।

सर्वप्रथम पूजा/हवन का कार्यक्रम प्रारम्भ होने से 5-10 मिनट पूर्व अपनी चेतना को अपने मध्य हृदय में स्थित "श्री माँ" के "श्री चरणों" में स्थित कर देंगे अपने चित्त को अपने सहस्त्रार पर टिका देंगे।

इसके उपरांत दोनों स्थानों पर "श्री माँ" की उपस्थिति को 'ऊर्जा' के रूप में आभासित करना प्रारम्भ कर दें। और जब 'महामंत्र' का शुभारंभ हो तो अपने चित्त को सम्पूर्ण सामूहिकता पर टिकाते हुए सभी सहजियों के सहस्त्रार पर आई हुई कुंडलिनी से जोड़ लेंगे।

और सहस्त्रार पर स्थित उन समस्त कुण्डलीनियों से उत्सर्जित होने वाली 'दिव्य ऊर्जा' को अपने सहस्त्रार के माध्यम से अपने मध्य हृदय में लगातार शोषित करते चले जायेंगे जब तक कार्यक्रम समाप्त नहीं हो जाता।

जब आप सूक्ष्म रूप में ऐसा आभासित करना प्रारम्भ कर देंगे तो आपका सम्पर्क बाह्य घटना कर्मों से पूर्णतया कट जाएगा और आप 'परम ऊर्जा' के एक आनंदाई 'ग्लोब' में स्वयं को पाएंगे।

आपको बाह्य रूप से क्या चल रहा है यह तो आभासित होगा किंतु आपकी चेतना केवल और केवल 'पवित्र शक्तियों' को आपके यंत्र में ग्रहण करने में लगी होगी।

ऐसी सुंदर स्थिति में तो आपको, आपके शरीर का ही आभास होगा और ही आपका चित्त बाह्य रूप से होने वाले घटनाक्रम पर ही रहेगा।

जैसे, जब हम कोई अच्छी सी फिल्म देख रहे होते हैं तो हम पूर्णतया उस फिल्म की कहानी पात्रों में खो जाते हैं हमें कुछ देर के लिए गर्मी, सर्दी, शोर आदि की तरफ ध्यान ही नहीं रहता। यहां तक कि उस स्थिति में हमें कोई विचार भी नहीं रहे होते, हम पूर्णतया उस पिक्चर में डूबे होते हैं।

अतः हमें भी किसी भी पूजा/हवन के दौरान अपनी चेतना को सामूहिकता के दौरान प्रवाहित होने वाले सामूहिकता के प्रसाद को ग्रहण करने में पूरी तन्मयता के साथ उतर जाना चाहिए।

ताकि तो हमें किसी भी प्रकार का देहाभास रहे और ही किसी भी प्रकार के विचार ही हमें तंग करें और ही कार्यक्रम जल्दी समाप्त होने की प्रतीक्षा ही रहे।

जब ऐसी सुंदर अवस्था घटित हो रही होती है तो हमारे सम्पूर्ण सूक्ष्म यंत्र में 'दिव्य शक्तियां' समुंदर में उठने वाली लहरों की तरह प्रवाहित हो रही होती हैं जो हमें पूर्ण रूप से 'निर्विकल्प' समाधि में स्थित कर देती है।

ऐसी विलक्षण स्थिति में हमारा 'काल-चक्र' तक रुक जाता है और हमारी चेतना हमारे ही अन्तःकरण में "परमात्मा" के साम्राज्य में विचरण कर रही होती है और हमारा सम्पूर्ण अस्त्तित्व तरंगित हो रहा होता है।"

----------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"



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