Tuesday, March 6, 2018

"Impulses"--434--"प्रचलित भ्रम"

"प्रचलित भ्रम"

"एक बहुत ही दुखद पीड़ादायक स्थिति सहज का कार्य करने वाले बहुत से सहजियों के लिए उनके संज्ञान में आये बगैर उत्पन्न हो जाती है।
जब वो अज्ञानता से वशीभूत होकर अपने भीतर में उन समस्त सहज के कार्यों का श्रेय जाने अनजाने में स्वयं को देने लगते हैं।

वो ये भूल जाते हैं कि सहज से सम्बंधित समस्त कार्य स्वयं "माँ आदि शक्ति" की देखरेख में अदृश्य रूप में "हमारी कुण्डलिनी माँ", "श्री गणेश""श्री हनुमान" अनेको देवी-देवताओं के द्वारा ही सम्पन्न होते हैं।

किन्तु प्रत्यक्ष में उनका स्थूल अस्तित्व उन कार्यों को सम्पादित करते हुए दिखाई पड़ता है।जिसके कारण उनमें से बहुत से सहजियों को ये भ्रम उत्पन्न हो जाता है।

इस कार्य में यदि हमारा कुछ शामिल है तो वो है हमारी शुद्ध इच्छा से आच्छादित हमारी चेतना, हमारा एकाग्र चित्त मन, पूर्ण ईमानदारी मनोयोग से इस दिशा में किया गया हमारा श्रम, गतिविधियां कार्यक्रम के दौरान हमारे हृदय से प्रस्फुटित होने वाला वाणी-प्रवाह।

इनके अतिरिक्त सहज के कार्यों में हमारा कोई भी योगदान शामिल नहीं हैं। किन्तु हमें सचेत रहना चाहिए कि हमारे हृदय से फूटने वाले वाणी-प्रवाह में हमारे मन की स्मृति से कुछ भी सूचनाएं शामिल नहीं होनी चाहिये। वर्ना चेतना का कार्य ठीक प्रकार से सम्पन्न नही होगा क्यंकि उस प्रवाह में 'पवित्र ऊर्जा' उपस्थित नहीं होगी।

जिसके फलस्वरूप आत्मसाक्षात्कार पाने वाले नए सहजियों को ठीक प्रकार से चैतन्य महसूस नही होगा अथवा ध्यानातुर साधक/साधिकाओं को 'दिव्य- ऊर्जा-धाराओं' का आनंद नही आएगा।

हमको आंतरिक मनन-चिंतन के द्वारा ठीक प्रकार से समझना चाहिए कि सारी की सारी पूर्व पश्चात की व्यवस्थाएं देवी-देवताओं गणों के द्वारा ही अंजाम दी जाती हैं।

यहां तक कि आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने के लिए चुने गए नए साधक/साधिकाओं को स्वम् इन्ही देवी-देवताओं के द्वारा उनके अन्तःकरण में प्रेरित किया जाता है। तो हम अब आसानी से समझ ही सकते हैं कि हम सभी की वास्तव में इन जागृति के कार्यो में प्रतिभागिता ही कितनी है।

किन्तु फिर भी हममे से बहुत से साधक/साधिका इन समस्त बाहरी सहज-कार्यों को अपनी स्वम् की व्यक्तिगत उपलब्धि मान बैठते हैं और अपनी आगन्या पर सवार अहंकार नामक शैतान के चंगुल में अंततः फंस ही जाते हैं।

क्योंकि जब भी हम इन ऊपरी तौर से परिलक्षित होने वाले जागृति के कार्यों में संलग्न होते हैं तो हम अन्य सहजियों लोगों के द्वारा देखे जाते हैं और उनके द्वारा प्रशंसा सराहना भी पाते रहते हैं।

जो धीरे धीरे हमने से कुछ की एक अति आवश्यक मानसिक आवश्यकता बनने लगती है और एक समय ऐसा आता है कि हमारे द्वारा किये गए हर कार्य के लिए हमें सराहना प्रशंसा रूपी भोजन अवश्य चाहिए।

यानि, ऐसे सहजी भीतर में हर वक्त चाहते हैं कि, उनके द्वारा बोले गए हर वक्तव्य, उनके द्वारा लिखी गई समस्त पंक्तियों, उनके द्वारा प्रदर्शित की गई हर वस्तु-स्थिति, उनके द्वारा धारण किये गए समस्त वस्त्रों-आभूषणों, उनकी कलात्मकता, उनके द्वारा अपनाए गए समस्त तौर तरीकों, उनके द्वारा की जाने वाली हर प्रकार की साज-सज्जा, यहां तक कि उनके द्वारा सुसज्जित किये गए स्वयं के व्यक्तित्व के लिए उन्हें ढेर सारी प्रशंसा प्राप्त हो।

उनके लिए अति आवश्यक इस प्रशंसा के लिए वो हर पल कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। और तो और वो अपने समस्त सांसारिक आध्यात्मिक रिश्तों को विशेष तौर से सबके सामने प्रस्तुत करते हैं।उनका महिमा मंडन करने से भी नहीं चूकते। 

मानो वो रिश्ते संसार के श्रेष्ठतम रिश्ते हों जो "श्री माँ" की अनुकंम्पा से केवल उन्हें ही प्राप्त हुए हैं। अपना प्रभाव बनाये रखने के लिए कभी कभी तो वो "श्री माँ" के बच्चों के समक्ष अपनी उच्च बिरादरी, अपना उच्चकुल, उच्च खून, उच्च रहन सहन अपनी विद्वता का प्रदर्शन भी कर डालते हैं।

उनका प्रयास रहने लगता है कि उनकी हर प्रकार की प्रस्तुति अति भव्यता से सबके सामने आए ताकि उनकी श्रेष्ठता सिद्ध हो सके और वो और भी ज्यादा वाहवाही लूट सकें।

और तो और इस अवस्था में वो अपने आध्यात्मिक जुड़ावों का लाभ सांसारिक रूप से उठाने में भी गुरेज नहीं करते। वो अक्सर अपनी बहुत सी सांसारिक जरूरतों, कार्यों, इच्छाओं की पूर्ति, सहजियों की मदद उनके द्वारा प्रदत्त सुविधाओं के द्वारा करते हैं।

यानि सहजियों के निर्मल निर्वाजय प्रेम को वे अपनी सांसारिक तुष्टि के लिए उपयोग करने से भी नहीं चूकते। ऐसी गंभीर स्थिति में पूरी तरह जकड़ जाने के बाद अपना रुतबा श्रेष्ठता बनाये रखने के लिए बहुत से ऐसे सहजी अब अपने से बेहतर सहजियों में कमियां ढूढ ढूंढ कर अन्य सहजियों के सामने लाना प्रारम्भ कर देते हैं।

ताकि उनसे अच्छे स्तर के सहजी को सभी निम्न समझें और उनकी उपयोगिता में उनके स्वयं के प्रभाव में कोई कमी पाये। इस उपक्रम में अक्सर वो अन्य सहजियों से छोटी छोटी बातों पर लड़ने तक लगते हैं और अपनी बातों को नाजायज तरीके से जबरदस्ती अन्य सहजियों पर थोप-थोप कर मनवाने का अथक प्रयास भी करते रहते हैं।

क्योंकि वो अपनी बाह्य पोजिशन को खोना नहीं चाहते, उनको डर लगता रहता है कि उनकी पॉपुलैरिटी में कहीं कोई कमी जाये। उनसे वास्तविक रूप से प्रेम करने वाले उनके वास्तविक हितैषी जब उनकी इस दयनीय स्थिति को देखकर उन्हें प्रेम से समझाने का प्रयास करते हैं।

तो वे उनको ही नासमझ बताते हुए अपनी बात ऊपर रखते हुए उनकी ही कमियों को दिखाने के साथ साथ दूसरे सहजियों की बुराई करना प्रारंभ कर देते हैं। यहां तक कि वो अपने मुताबिक अपने वास्तविक हितचिंतकों की नासमझी कमअक्ली को अन्य सहजियों के समक्ष रखने से भी नहीं कतराते।

ऐसा करके वो सभी को ये दिखाना चाहते हैं कि वो कितने सही हैं और उनके शुभचिंतक कितने गलत हैं। यह देखकर जानकर उनके हितचिंतकों को बहुत अफसोस होता है और धीरे धीरे वो उन भ्रमित सहजियों को समझाना सलाह देना बंद कर देते हैं।

उनके नकारात्मक विचारों सदा आशंकित रहने वाले उनके मन के कारण उनका मध्य हृदय बंद होने लगता है जिसके कारण उनके सहस्त्रार की ऊर्जा-सप्लाई भी बंद होने लगती है।

यानि उनका यंत्र अब दिव्य ऊर्जा को ग्रहण करने योग्य नहीं रह जाता जिसके फलस्वरूप ऐसे बाधित सहजी अत्यधिक कंडीशंड हो जाते हैं और वे अत्यंत कट्टरता से सहज तकनीक, सहज नियमाचरण, सहज कर्मकांड सहज प्रोटोकॉल का पालन करने लगते हैं।

और अपने सम्पर्क में आने वाले नए-पुराने सहजियों को भी उन्हें फॉलो करने के लिए दवाब बनाने लगते हैं। जो उनका अनुसरण नहीं करता उनसे बुरा मान जाते हैं और वाद विवाद करना प्रारंभ कर देते हैं। क्योंकि उनके हृदय सहसत्रार के द्वारा प्रेममयी ऊर्जा को ग्रहण नहीं कर पाने के कारण उनकी चेतना में नवीनता की कमी रहने लगती है।

ऐसी स्थिति में वो केवल इधर उधर से अन्य लोगों के आत्मज्ञान, अनुभवों को अपने शब्दों शैली में जोड़-तोड़ कर सभी के सामने पेश करने लगते हैं।बात बात में "श्री माता जी" की अमृत वाणी का हवाला देते हैं।

वे अक्सर "श्री माता जी" के लेक्चर्स को अपनी तथा-कथित सीमित धारणाओं विचारों के हिसाब से ढाल कर सभी के सामने प्रस्तुत करते हैं ताकि उनका लोगों पर प्रभाव बरकरार रहे।

किन्तु उन बातों में स्वयं के वास्तविक अनुभव की नगण्यता होने के कारण चैतन्यमयी 'ऊर्जा' विद्यमान नहीं रह पाती जिसके कारण उनकी बातों में लोगो की कोई विशेष रुचि आकर्षण नहीं रह पाता।

इन स्थितियों का आभास भी उन्हें अपने भीतर यदाकदा होता रहता है जिसको भरने के लिए वे अक्सर बाहरी रूप से कोई कोई प्रपंच अपनी लोकप्रियता को यथावत रखने के लिए करते रहते हैं।

परंतु आंतरिक रूप से वो बिल्कुल खोखले हो चुके होते हैं और स्वम् को भीतर में अत्यंत हींन दयनीय पाते हैं। किंतु अपने अहम के कारण इस सत्यता को स्वीकार नहीं कर पाते और धीरे धीरे आंतरिक रूप से पतन की ओर निरंतर अग्रसर होते जाते हैं।

यदि ऐसे दिग्भ्रमित सहजी अपनी चेतना की वर्तमान निम्न अवस्था को स्वीकार कर अभी भी अपने आंतरिक उत्थान की ओर अग्रसर होना चाहते हैं तो उन्हें अपने इस अहम वहम को पूर्णतया त्यागना होगा।

और "श्री चरनन" में पूर्ण हृदय से क्षमा याचना करते हुए अपने प्रदर्शनकारी अस्तित्व को "श्री माँ" के हवाले करते हुए सरलता सादगी को अपना अभिन्न अंग बनाना होगा।

साथ ही सभी सहजियों से आंतरिक बाह्य रूप से प्रेम भाव बनाये रखते हुए नित्य गम्भीर ध्यान में स्थित होकर अपने स्वयं के हृदय की गहनता में उतरकर वास्तविक सत्य को खोजना होगा तभी जाकर कुछ आध्यात्मिक कल्याण हो पायेगा।

यदि हम अपने नजदीक किसी ऐसी मलिन निम्न मनोदशा वाले सहजी को पाएं तो सर्वप्रथम अपने मध्य हृदय सहस्त्रार को एक करके दोनो केंद्रों पर 'दिव्य ऊर्जा' को कुछ देर तक महसूस करें।

फिर अपने मध्य हृदय से "श्री माँ" की शक्ति प्रेम को उसके सहस्त्रार के माध्यम से उसके मध्य हृदय में अपने ध्यान के हर दौर में कुछ देर अवश्य प्रवाहित करें जब तक कि वह पूर्ण सन्तुलन में जाये।

ये भी हमारे अन्य आध्यात्मिक कर्तव्यों में से एक अति महत्वपूर्ण कर्तव्य है। क्योंकि हमें स्मरण रखना चाहिए कि हम सब की प्रेममयी "माँ" ने अपने सहस्त्रार से उक्त सहजी को जन्म देकर बड़े प्रेम से किसी प्रेममयी सहजी के माध्यम से पोषित किया है।

इसीलिए हमें उस सहजी के प्रति आत्मिक प्रेममयी भाव रखते हुए ये कार्य निरंतर करना होगा ताकि "उनकी" मेहनत निष्फल हो जाये।भले ही हम उस सहजी से बातचीत भी करें।"

-----------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

 

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