Wednesday, March 21, 2018

"Impulses"--436--"अहंकार" / "ओंकार"

"अहंकार" / "ओंकार"

साधारण सांसारिक जीवन यापन करने वाले लोगों के बीच भले ही 'अहंकार' शब्द का इतना उपयोग होता हो। किन्तु आध्यात्मिक जीवन जीने वाले साधक/साधिकाओं के द्वारा 'अहंकार' शब्द का बारम्बार उपयोग होता ही रहता है।

बल्कि उनके द्वारा अपने स्वम् के अन्तःकरण में अन्य ध्यान-अभ्यासियों के भीतर इस 'अहंकार' की खोज समय समय पर होती ही रहती है।
अनेको सहजियों के द्वारा तो इस 'अहंकार' की बात बात पर जूते के द्वारा बिना नागा पिटाई भी होती रहती है भले ही ये बेचारा प्रगट हो या हो।

यहां तक कि सहजियों के द्वारा अक्सर एक दूसरे पर समय समय पर अनेको कारणों के माध्यम से अहंकारी होने के आरोप प्रत्यारोप भी चलते ही रहते हैं।

अनादि काल से इसके किस्से हम सभी सुनते रहे हैं कि प्राचीन काल में किस प्रकार से अनेको महान लोग इस कि गिरफ्त में कर अपराध पाप कर बैठे और अंततः असमय काल-कवलित हो गए या भारी सजा के पात्र बने।

यदि ये इतना पीड़ा दायक मानव प्रगति के लिए हानि कारक है तो "परमपिता" इसको सदा के लिए नष्ट क्यों नहीं कर देते ? क्यों ये अभी तक मानवीय सभ्यता के विकास आंतरिक उत्थान की बाधा बना हुआ है ?

"श्री माँ" ने भी कई बार इसके दुर्गुणों दुष्प्रभावों के बारे में अपने प्रवचनों में बताया है, एक बार तो "श्री माँ" ने कहा था, 'कि अहंकार का नाम लेने मात्र से ही कंठ सूखने लगता है।'

आखिर यह अहंकार हम सभी के भीतर आता कहाँ से है ?

कहाँ पर ये रहता है ?

क्यों समय समय पर प्रगट होता है ?

क्यों ये लगातार विज्ञान की प्रगति के साथ साथ बढ़ता ही जा रहा है ?

यूं तो "श्री माँ" ने इस अहंकार के ऊपर अपने स्तर पर अनेको लेक्चर्स दिए हैं।

किन्तु आज हम चलते हैं अपनी सीमित समझ के द्वारा इसके उदगम को समझने के लिए एक छोटे से गहन सूक्ष्म 'आत्मचिंतन' की ओर।
मेरी चेतना के मुताबिक अहंकार हम मानवों की उत्तपत्त्ति के साथ ही हमारे साथ लग गया था।

जब "श्री परमेश्वरी" ने प्रथम बार मानव का निर्माण करते हुए "परमात्मा" से "उनके" एक अंश को अलग करके 'आत्मा' के रूप में हमारे भीतर रोपित किया।

तभी से इस अलगाव की प्रतिक्रिया स्वरूप "परम" की 'छाया' के रूप में इस अहंकार का भी निर्माण हो गया था किन्तु माता के गर्भ से बाहर आने तक ये सुप्त अवस्था में रहा।

जब तक ये 'अंश' "परमपिता" से प्रथक था तो "उनके" अस्तित्व से एकीकृत एकरूप होने के कारण 'स्वम्' को "परम" ही समझता था। किन्तु प्रथक कर दिए जाने के पश्चात भी 'उसका' ये एहसास उस पूर्व के जुड़ाव की स्मृति के कारण लगातार बना ही रहता है।

जैसे एक चुम्बक में से एक छोटे से टुकड़े को तोड़कर अलग कर भी दिया जाए तब भी वह चुम्बक ही रहता है। बस अंतर आता है तो केवल उसके चुम्बकीय क्षेत्र उसकी आकर्षण शक्ति में।

इसीलिए 'आत्मा' को "परमात्मा" का हिस्सा ही माना जाता है क्योंकि 'आत्मा' में "परम" के सभी गुण विशेषताएं विद्यमान होती हैं।

क्योंकि जब तक जीव माता के गर्भ में बना रहता है तो वह "परमात्मा" से लगातार जुड़ा रहता है और गर्भ रूपी नरक से बाहर निकालने के "उनसे" निरंतर प्रार्थना भी करता रहता है।

किन्तु जैसे ही वो गर्भ से बाहर आता है तो उसका सम्पर्क "परमात्मा" से टूट जाता हैं जिसके परिणाम स्वरूप "परमात्मा" से पृथक उसका एक अस्तित्व प्रभाव में जाता है जो वास्तव में अहंकार का ही एक दूसरा रूप होता है।

"परमात्मा" से जुड़ाव की क्षीण अस्पष्ट स्मृति जो बायें आगन्या में मौजूद रहती है, उसको स्वम् के "परमात्मा" के होने का ही एहसास कराती रहती है।

जिसके कारण वो अपनी हर बात में 'मैं' शब्द का इस्तेमाल करता है और उसको सदा लगता भी रहता है कि वो ही सबकुछ है। इस कारण उसके भीतर सदा कर्ता-भाव बना ही रहता है जिसके प्रभाव के कारण वो अहंकारी प्रतीत होता है।

जब इस कर्ता भाव की अति होने लगती है तो वह निरंकुश हो जाता है और अन्य लोगों की सजा तक निर्धारित करने लगता है, यहां तक कि कभी कभी सजा भी स्वम् देने लगता है।

अपने इर्दगिर्द की दुनिया को स्वम् संचालित करने के लिए अनेको नियम बनाता है, मर्यादाएं निर्धारित करता है।

यानि जो भी कार्य इस रचना को चलाने के लिए स्वम् "परमपिता" करते हैं, वो भी अपने चारों ओर के संसार में स्वम् ही 'स्वयम्भू' बनकर अपने स्तर पर स्वम् करना चाहता है, और अक्सर करता भी है।

इसी वजह से सभी मानवों में यही भाव विद्यमान होने के कारण अनेको कारणों से आपस में हर प्रकार का संघर्ष छिड़ा ही रहता है। क्योंकि एक प्रकार से अनेको 'स्वयम सिद्ध' "परमात्मा" उत्पन्न हो जाते हैं जो अपने अनुसार ही इस दुनिया को चलाना चाहते हैं।

यही इस संसार में हर प्रकार की मानव-जनित समस्याओं विनाश का मूल कारण भी है। घर हो या बाहर, आजकल जिधर भी दृष्टि घुमाओ तो केवल और केवल अहंकार से परिपूर्ण मानव के ही दर्शन होते हैं।

इसीलिए "श्री माँ" ने 'कुण्डलिनी जागरण' के माध्यम से मानव की मानवीय चेतना को "परमपिता" से पुनः जोड़ने की व्यवस्था की।
ताकि इस महा पीड़ादायक हर प्रकार के विनाश के उत्तरदायी इस अहंकार का लोप हो सके।

और मानव "परमात्मा" के "श्री चरणों" में समर्पित हो "उनके" अस्तित्व में विलय होकर "परमानंद" का आनंद उठाते हुए अपने 'चिर प्रतीक्षित' 'मोक्ष' का भागी बन पूर्ण 'निर्वाण' को प्राप्त हो।

साथ ही 'स्वम् का गुरु' बन कर अन्य लोगों को भी इस 'स्थिति' तक पहुंचने का मार्ग दिखा सके इस मार्ग पर चलने में उनकी मदद कर सके।
हम सभी सहजियों को पूर्णतया सतर्क रहना चाहिए कि ये अहंकार रूपी भ्रम हमारे आगन्या को अपने शिकंजे में लेले।

क्योंकि जैसे ही हमारा सम्पर्क अपने सहस्त्रार मध्य हृदय की "माँ" से तकनीकी रूप से कट जाएगा उसी क्षण ये अहंकार हमारे मन मस्तिष्क पर अपना कब्जा जमा लेगा।

यदि किसी में ये परिलक्षित हो तो तुरंत अपने सहस्त्रार मध्य हॄदय की ऊर्जा को महसूस करें ताकि इसका प्रभाव समाप्त हो सके। हममे से बहुत से सहजी समय समय पर इसकी गिरफ्त में आते ही रहते हैं चाहे वे 1970 से ही सहज से क्यों जुड़े हो।

चाहे स्वम् "श्री माता जी" के साक्षात स्वरूप के साथ रहकर कई वर्षों तक सहज का कार्य ही क्यो करते रहे हों।"

-------------------------------------------Narayan

"Jai Shree Mata Ji"



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